[ ए. सूर्यप्रकाश ]: नागरिकता संशोधन कानून यानी सीएए के खिलाफ कुछ राजनीतिक दलों का दुष्प्रचार नित नई गिरावट का स्तर छूता जा रहा है। अब उन्होंने राष्ट्रीय जनसंख्या रजिस्टर यानी एनपीआर और हर दस साल में होने वाली जनगणना की कवायद का भी विरोध शुरू कर दिया है। एनपीआर और जनगणना को लेकर अफवाहें फैलानी शुरू कर दी गई हैैं, जबकि ये दोनों पहलू गवर्नेंस के लिहाज से बहुत महत्वपूर्ण हैं। इससे पहले विपक्षी दल सीएए के खिलाफ अनर्गल प्रलाप करते रहे जबकि इसका किसी भी धर्म के भारतीय नागरिक से कोई लेना-देना नहीं। न ही दूसरे देश के नागरिकों के लिए इससे हमारे दरवाजे खोल दिए जाएंगे, क्योंकि इसमें नागरिकता देने के लिए एक मियाद तय की गई है।

एनपीआर का आगाज करने वाली कांग्रेस ही अब इसके विरोध में उतर आई

एनपीआर और जनगणना से जनसांख्यिकीय जानकारियां तो मिलती ही हैं, साथ ही देश के विभिन्न इलाकों में लोगों के सामाजिक एवं आर्थिक स्तर का हाल भी पता चलता है। इनमें से एक भी कवायद का मकसद किसी को किसी प्रकार के अधिकार से वंचित करना नहीं है। इनमें भी एनपीआर तो कांग्रेसनीत पूर्ववर्ती संप्रग सरकार की देन है जिसने 2010 में इसकी शुरुआत की थी। उसमें लोगों की डेमोग्राफिक और बायोमीट्रिक जानकारियां इकट्ठा करनी थीं। इसमें लोगों के स्थाई आवास से लेकर पिछले छह महीनों के प्रवास से जुड़ी सूचनाएं एकत्र की जा रही थीं। ऐसे में यह बहुत अजीब है कि एनपीआर का आगाज करने वाली कांग्रेस ही अब इसके विरोध में उतर आई है। वह जिस तल्खी से इसका विरोध कर रही है वह किसी नाटक से कम नहीं लगता।

जनगणना से जनसांख्यिकीय परिवर्तन को लेकर तस्वीर स्पष्ट होती है

भारत में जनगणना मुख्य रूप से लोगों की गिनती के लिए होती है। यह दुनिया में सबसे बड़ी प्रशासनिक एवं सांख्यिकीय गतिविधि मानी जाती है और ऐसा माना जाना एकदम उचित भी है। इसके लिए आंकड़े जुटाने के काम में करीब तीस लाख लोग लगेंगे। इसमें पहली बार आंकड़ा संग्रहक एक मोबाइल एप का भी इस्तेमाल करेंगे। भारत में दशकीय जनगणना का सिलसिला 1892 से शुरू हुआ जिसमें अभी तक कोई अंतराल नहीं आया। राष्ट्रीय महत्व के दृष्टिकोण से यह बहुत महत्वपूर्ण कवायद है, क्योंकि इससे बीते दस वर्षों के दौरान राष्ट्रीय एवं स्थानीय स्तर पर जनसांख्यिकीय परिवर्तन को लेकर तस्वीर स्पष्ट होती है। ये दोनों किस्म के सर्वेक्षण नीति निर्माताओं के लिए कार्यक्रमों की रूपरेखा तैयार करने में आधारभूत तत्व की भूमिका निभाते हैं। समाज के एक बड़े तबके के लिए तमाम बुनियादी सुविधाओं से जुड़ी योजनाओं में ये जानकारियां ही आधार बनती हैं। जनगणना गांव, कस्बे और वार्ड स्तर की सूक्ष्म जानकारियों का अहम स्नोत होती है। इससे आवास, शिक्षा, साक्षरता, विस्थापन, प्रजनन दर, भाषा, धर्म, अनुसूचित जाति एवं जनजातियों के बारे में सूचनाएं मिलती हैं।

राष्ट्रीय जनसंख्या रजिस्टर और जनगणना से हासिल आंकड़े नीतियां बनाने में आते हैं काम

राष्ट्रीय जनसंख्या रजिस्टर और जनगणना केंद्र सरकार की एक वैधानिक गतिविधि है। इससे हासिल आंकड़े न केवल संघीय, बल्कि राज्य, जिला एवं तालुका स्तर पर नीतियां बनाने में काम आते हैं। ऐसे में अरुंधति रॉय जैसे लोगों का इस गतिविधि में नागरिकों को फर्जी नाम और पता बताने के लिए उकसाना बहुत शर्मनाक है। उन्होंने लोगों से यहां तक कहा कि वे पते के रूप में सात, लोक कल्याण मार्ग बताएं जो असल में प्रधानमंत्री आवास का पता है। मानों इतना ही पर्याप्त नहीं था। उन्होंने लोगों को इसके लिए भी उकसाया कि उस मोदी सरकार को काम न करने दिया जाए, जिसे कुछ महीने पहले ही 2024 तक शासन करने के लिए भारी जनादेश मिला है।

जनसंख्या आंकड़ों के संग्रहण को लेकर सरकार के कामकाज को अस्थिर करना संविधान विरोधी है

जनसंख्या आंकड़ों के संग्रहण को लेकर केंद्र सरकार के कामकाज को अस्थिर करना और एक चुनी हुई सरकार के कार्यकाल को कम करने का आह्वान पूरी तरह संविधान विरोधी है। ऐसी अराजक गतिविधियों को बर्दाश्त करना राष्ट्रीय एकता एवं अखंडता के लिए हानिकारक है। हमें किसी भी सूरत में कुछ असंतुष्ट लोगों के गिरोह को शासन-प्रशासन एवं लोकतांत्रिक परंपराओं को इस तरह आघात पहुंचाने की गुंजाइश नहीं देनी चाहिए।

एनपीआर मुस्लिमों के विरुद्ध है यह सरासर झूठ है

यह दुष्प्रचार भी हो रहा है कि एनपीआर का इसलिए विरोध किया जाना चाहिए, क्योंकि यह मुस्लिमों के विरुद्ध है। यह भी सरासर झूठ है। इस पूरे घटनाक्रम से यही प्रतीत होता है कि मानों कुछ लोग सच्चाई सामने आने की आशंका से डरे हुए हैं। तमाम कारणों से आंकड़े बेहद अहम हैं। मिसाल के तौर पर केंद्र सरकार और कई राज्य सरकारों ने धार्मिक एवं भाषाई अल्पसंख्यकों की स्थिति सुधारने के लिए तमाम योजनाएं एवं कल्याणकारी कार्यक्रम तैयार किए हैैं। इन योजनाओं में शिक्षा, रोजगार, कौशल विकास और स्वरोजगार के लिए वित्तीय सहायता तक शामिल होती हैं। इन योजनाओं का दायरा काफी हद तक जनसांख्यिकी पर निर्भर करता है और इस कारण दशकीय जनगणना अनिवार्य हो जाती है। जनगणना के आंकड़े केवल संघ सरकार द्वारा ही उपयोग नहीं होते, बल्कि प्रत्येक स्तर पर सरकारों और संस्थानों के काम आते हैं।

छद्म धर्मनिरपेक्षतावादी केवल मुस्लिमों को ही अल्पसंख्यक मानते हैं, जबकि हकीकत कुछ और है

छद्म धर्मनिरपेक्षतावादी केवल मुस्लिमों को ही भारत में अल्पसंख्यक मानते हैं, जबकि हकीकत कुछ और ही है। भारत की आबादी में हिंदू लगभग 80 फीसद हैं। यानी मोटे तौर पर 133 करोड़ लोगों में हिंदुओं की संख्या लगभग सौ करोड़ है। इसका भी एक दूसरा पहलू है और वह यह कि देश के 28 में से छह राज्यों और कुछ केंद्रशासित प्रदेशों में हिंदू अल्पसंख्यक हैं। वहीं यदि देश में मुस्लिम आबादी की बात करें तो आजादी के समय यह 3.5 करोड़ थी जो अब 17.5 करोड़ हो गई है। इसके अलावा हमें भाषाई अल्पसंख्यकों को भी देखना होगा जिनका संविधान के अनुसार धार्मिक अल्पसंख्यकों जैसा ही दर्जा है।

भाषाई अल्पसंख्यकों को भी धार्मिक अल्पसंख्यकों के समान संरक्षण

अनुच्छेद 29 और 30 के अनुसार हमारे राष्ट्रनिर्माताओं की मंशा स्पष्ट थी कि वे भाषाई अल्पसंख्यकों को भी धार्मिक अल्पसंख्यकों के समान संरक्षण चाहते थे और इसके निर्धारण का दायित्व राज्य को सौंपा गया। इन प्रावधानों के अनुसार हिंदी भाषी हरियाणा में किसी कन्नडिगा को भी वैसे ही संरक्षण मिलेगा जैसे हिंदू बहुल हरियाणा में किसी मोहम्मद इकबाल को।

वास्तविक आंकड़ों के उजागर होने को लेकर सशंकित हैं छद्म धर्मनिरपेक्षतावादी

अगर छद्म धर्मनिरपेक्षतावादी दुनिया भर की सरकारों द्वारा कराई जाने वाली जनगणना जैसी कवायद के विरोध में हैं तो इससे यही आशंका बलवती होती है कि वे वास्तविक आंकड़ों के उजागर होने को लेकर सशंकित हैं। दस वर्षों के दौरान देश में ईसाई, बौद्ध, जैन और पारसियों की तुलना में मुस्लिमों की आबादी में इजाफा इस दुष्प्रचार की हवा निकाल देगा कि भारत में मुस्लिम तबके का उत्पीड़न हो रहा है।

मुस्लिमों के हमदर्द भारतीयों को छद्म निरपेक्षतावादियों के झांसे में नहीं आना चाहिए

ऐसे में मुस्लिमों के हमदर्द भारतीयों को इन छद्म निरपेक्षतावादियों के झांसे में नहीं आना चाहिए। उन्हें एनपीआर-जनगणना को बाधित करने के उनके मंसूबों पर पानी फेरना होगा। यदि ऐसी प्रवृत्तियां उभरती हैं तो देश का शासन-प्रशासन चलाना मुश्किल हो जाएगा।

( लेखक लोकतांत्रिक मामलों के जानकार एवं वरिष्ठ स्तंभकार हैं )