[ बद्री नारायण ]: उत्तर भारत के गांवों में अध्ययनों के दौरान हमें कुछ रोचक परिदृश्य देखने को मिलते हैं। इनमें से एक तो यही है कि आजादी मिले हुए इतने वर्ष बीत जाने के बाद भी इन गांवों में अधिकांश लोग जनतंत्र शब्द से परिचित नहीं हैं। अगर आप उनसे यह पूछें कि जनतंत्र शब्द से आप क्या समझते हैं तो उनमें से अधिकांश लोगों ने जनतंत्र शब्द सुना भी नहीं होता। इनमें गांव से बाहर पढ़ने वाले युवाओं को छोड़ दें तो महिलाएं, अधेड़ और वृद्ध प्राय: ऐसे शब्दों से परिचित नहीं होते। यह कैसी विडंबना है कि आजादी के बाद भारतीय राज्य जिस अवधारणा पर खड़ा है, जो जनतंत्र की अवधारणा हमेशा चुनावों के माध्यम से जीवंत होती रहती है जिस जनतंत्र के महापर्व में अधिकतर लोग वोट डालते हैं उसी अवधारणा, उसके मूल्य, उसकी प्रवृत्ति से अधिकांश लोग परिचित नहीं होते हैं। यह तो सत्य है कि भारतीय समाज में जनतंत्र की अवधारणा पश्चिमी समाज से आई है, लेकिन इसका तात्पर्य यह बिल्कुल नहीं है कि हमारे समाज में जनतांत्रिक मूल्य या अवधारणा रही ही नहीं है।

हमारे गांव के लोग भले ही जनतंत्र की अवधारणा से परिचित नहीं हों, किंतु वे ‘इज्जत’ की अवधारणा और उसमें निहित मूल्यों को बेहतर ढंग से समझते हैं। उनमें ‘बराबरी’ पाने की आकांक्षा बलवती रहती है। वे हक, हुकूक एवं अपने अधिकार जैसी अवधारणाओं एवं मूल्यों के लिए कई बार लड़ते दिखते हैं। इज्जत जो आदर एवं सम्मान जैसे जनतांत्रिक भावों से बनती है उसे हमारे समाज की निरक्षर जनता भी बखूबी समझती है। गांवों में कई लोग तो यह कहते हुए सुने जाते हैं कि धन, दौलत सब होने पर भी इज्जत नहीं तो वहां क्या रहना। मान-सम्मान में आने वाली कमी ग्र्रामीण समाज में ऐसी हानि मानी जाती है जिसकी भरपाई संभव नहीं होती। ‘बराबरी’ जो दूसरा महत्वपूर्ण जनतांत्रिक भाव है, की चाहत एवं आकांक्षा ग्राम समाजों में बढ़ती जा रही है। उपेक्षित एवं हाशिये पर बसे समूहों में बराबरी का भाव लगातार विकसित होता जा रहा है।

इलाहाबाद के पास एक गांव है साहबपुर। पिछले कई वर्षों से हमारी टीम द्वारा वहां सतत शोध कार्य किए जा रहे हैं। इन अध्ययनों से यह निष्कर्ष निकलता है कि दलितों एवं उपेक्षित समूहों में आजादी के बाद बराबरी की धारणा मजबूत हुई है। किसी भी अपमान बोध परक कार्य से वे ‘आहत’ होते हैं। यह ‘आहत भाव’ प्रतिरोध के भाव में बदलता है, किंतु यह प्रतिरोध का भाव मात्र प्रतिरोध के लिए नही होता वरन् समाहन, स्वीकार्यता एवं समरसता पाने की चाह, इच्छा एवं अंतर्निहित आकांक्षा के कारण होता है। बराबरी की यही चाह जातीय पदानुक्रमों से मुक्त होकर मानवीय बराबरी पाने की दिशा में एक कदम है जो जनतंत्र की मूल आत्मा है।

उत्तर प्रदेश में 1980 के बाद विकसित हुआ दलित आंदोलन उपेक्षितों में बराबरी पाने की इसी चाह का परिणाम है। इसके भी पूर्व महाराष्ट्र और अखिल भारतीय स्तर पर बाबा साहब भीमराव आंबेडकर के आंदोलन, उनके द्वारा जातिवाद के विनाश की मांग इसी बराबरी के भाव का नतीजा है। आंबेडकर से भी पहले कबीर, रविदास, जगजीवन दास, श्री नारायण गुरु का आंदोलन इसी बराबरी के भाव को पाने की चाह के प्रतीक हैं। वह आज भी उप्र, बिहार, झारखंड, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ, राजस्थान और देश के अन्य भागों में पिछड़ों एवं दलितों में ‘पंथ’ एवं समाज सुधार आंदोलनों का रूप लेकर उनमें ‘बराबरी’ की चाह पैदा कर रही है। उत्तर प्रदेश में स्वामी अछूतानंद का आंदोलन आंबेडकर के पूर्व ही दलित जागरण के कार्य में लगा था।

यह तय है कि इन संतों और समाज सुधारकों में से तमाम जनतंत्र शब्द एवं उसकी अवधारणा से परिचित नही रहे होगें, फिर भी जिन्हें आज हम जनतांत्रिक मूल्य कहते हैं, उनकी लड़ाई और चेतना फैलाने का काम वे भारत में जनतंत्र की अवधारणा एवं राजसत्ता आने के पूर्व से ही कर रहे थे। ग्रामीण जन भले ही ‘अधिकार’ शब्द से बाद में चलकर परिचित हुए हों, पर ‘हक एवं हुकूक’ की चाह उनमें औपनिवेशिक सत्ता के आने से पूर्व ही विकसित हो गई थी। हक की लड़ाइयों के अनेक प्रमाण हमारी जनश्रुतियों में आज भी मौजूद हैं। मध्यकाल एवं भक्तिकाल के अनेक संत, नाथपंथी विचारों एवं भावों में हक की अनुगूंज भी है। अनेक लोकगीत जो हमारी लोक परंपरा में जीवंत हैं उनमें ‘हक’ की लड़ाई के पद चिन्ह हमें बार-बार दिखाई पड़ते हैं। अर्थात अधिकार, जो बाद में चलकर अत्यंत औपचारिक एवं संगठित रूप लेता है, वह वस्तुत: पहले से ही जनता के अंतर्मन में विद्यमान ‘हक’ की आकांक्षा का ही परिणाम है।

भले ही हमारे समाज में संगठित एवं औपचारिक रूप से जनतंत्र की अवधारणा न रही हो, पर जो नियामक तत्व मिलकर जनतंत्र का स्वरूप रचते हैं, वे अनौपचारिक रूप से भारतीय जीवन का हिस्सा रहे हैं। भारतीय समाज विशेषकर ग्रामीण समाज जिसे हम सामंतवादी समाज मानते आए है, उनके लोकजीवन के दैनंदिन पक्ष में वे भाव गहरे पैठे रहे हैं जिन्हें आज हम जनतांत्रिक भाव कहते हैं। अगर आप चाहें तो यह कह सकते हैं कि भारतीय समाज जिसे हम सामंतवादी समाज मानकर मात्र आलोचना करते रहे हैं, उसमें ही अनेक काल खंडों से एक प्रकार की जनतांत्रिक चेतना विकसित हो रही थी।

औपचारिक रूप से जनतंत्र विरोधी माने जाने वाले इस सामंती समाज में अनौपचारिक रूप से एवं सूक्ष्म स्तरों पर जनतंत्र जैसी ही चेतना मौजूद रही है या यूं कहें वह मानवीय चेतना एवं भारतीय समाज में गहराई तक पैठ बनाए रही है। इस प्रकार भारतीय समाज में जनतांत्रिक चेतना एक विघटित चेतना के रूप में नहीं आई है। उसका यहां मात्र पैरासुिटंग नही हुआ है, बल्कि भारतीय समाज के आधारभूत घटकों में ऐसी चेतना पुंज मौजूद है जो जनतंत्र की आधारभूत चेतना है।

प्राचीन काल में वैशाली के लिक्षिवियों में मौजूद गणतांत्रिक चेतना रही हो या मौर्य साम्राज्य की व्यवहारवाद पर टिकी न्याय चेतना इन सभी ने मिलकर जनता के मन में ऐसे चेतनापुंजों को जन्म दिया जिसने सामंतवाद की क्रूरता के बीच भी जनता को जीने की, टकराने की, प्रतिरोध करने की जनतांत्रिक जैसी आकांक्षाओं को जन्म दिया। यह ठीक है कि अनेक असमानताएं जातीय पदानुक्रम के आधार पर सामाजिक मूल्यों का निर्माण भी इसी समाज में हुआ, पर इसी समाज में इन्हीं कारणों से महात्मा बुद्ध, महावीर, कबीर, रविदास, श्रीनारायण गुरु, धरनीदास, अछूतानंद जैसे चेतना पुंज पैदा हुए जिन्होने ‘एकताभाव’ जैसे जनतांत्रिक भाव को रचा।

महात्मा बुद्ध शायद इसीलिए अपने एक संदेश में कहते हैं कि मानवीयता के समुद्र में हमें बूंद की तरह समाहित हो जाना होगा। हमें अपनी समस्त अस्मितापरक चेतनाओं, जिन्हें वे अभिसंज्ञा कहते हैं का अंतत: लोप करना होगा। मुझे लगता है कि प्रत्येक जनतांत्रिक विचार बोध का अंतिम लक्ष्य वही है जिसकी ओर महात्मा बुद्ध ने इशारा किया है।

[ लेखक गोविंद बल्लभ पंत सामाजिक विज्ञान संस्थान, इलाहाबाद के निदेशक हैं ]