[ विवेक काटजू ]: करीब डेढ़ साल की कशमकश और कई दौर की वार्ता के बाद आखिरकार अमेरिका और तालिबान के बीच समझौते पर हस्ताक्षर हो ही गए। गत शनिवार को कतर की राजधानी दोहा में हुए समझौते पर अमेरिका की ओर से जालमेई खलीलजाद ने हस्ताक्षर किए। वहीं तालिबान की तरफ से यह काम उसके राजनीतिक कार्यालय के मुखिया मुल्ला अब्दुल गनी बरादर ने किया। खलीलजाद खुद अफगानी मूल के अमेरिकी नागरिक हैं। वह अफगानिस्तान में राजदूत भी रह चुके हैं। हालांकि इस बहुप्रचारित समझौते से अफगानिस्तान में शांति और स्थिरता की राह कुछ खुलती दिख रही है, लेकिन वास्तव में यह अमेरिकी सेनाओं को स्वदेश बुलाने का एक जरिया ही अधिक है।

तालिबान ने दिखाई प्रतिबद्धता, अपनी जमीन पर किसी आतंकी गुट को घुसने नहीं देंगे

तालिबान ने केवल इतनी प्रतिबद्धता दिखाई है कि वह अपनी नियंत्रित भूमि पर किसी भी ऐसे अंतरराष्ट्रीय आतंकी गुट को घुसने नहीं देंगे जिससे अमेरिका और उसके साथी देशों को कोई खतरा उत्पन्न हो। इस समझौते के मूल में दो उद्देश्य हैं। जहां तालिबान की प्रमुख मांग यह थी कि अफगानिस्तान से सभी अंतरराष्ट्रीय सेनाएं बाहर चली जाएं वहीं अमेरिका यह मांग करता आ रहा था कि अफगानिस्तान से उसे कोई खतरा न रहे। यदि ये दो उद्देश्य पूरे हुए तभी यह करार सफल माना जाएगा।

तालिबान अफगानिस्तान के राजनीतिक भविष्य के लिए सभी पक्षों से बातचीत के लिए तैयार

समझौते में तालिबान इस पर भी सहमत हुआ है कि अफगानिस्तान के राजनीतिक भविष्य के लिए वह सभी अफगानी पक्षों से बातचीत के लिए तैयार है। यह बातचीत 10 मार्च से शुरू होगी। इसमें कुछ खार्का ंखचने के बाद ही वह पूर्ण युद्धविराम पर मुहर लगाएगा। इस वार्ता के लिए अमेरिका ने सही माहौल बनाना भी शुरू कर दिया है। इसी कड़ी में उसने आश्वासन दिया है कि उसकी कोशिश होगी कि वार्ता से पहले अफगान सरकार की गिरफ्त में पांच हजार तालिबानी और तालिबान की कैद में एक हजार अफगानी सैनिकों की रिहाई हो सके।

अमेरिका अफगान सरकार को भविष्य में हरसंभव सहायता देना जारी रखेगा

जिस दिन यह समझौता हुआ उसी दिन काबुल में अफगान सरकार और अमेरिका के बीच एक संयुक्त बयान जारी हुआ। इसमें अफगान सरकार ने अमेरिका और तालिबान के बीच समझौते की पुष्टि की। अमेरिका ने स्पष्ट किया कि वह अफगान सरकार को भविष्य में हरसंभव सहायता देना जारी रखेगा। इसमें सामरिक मदद भी शामिल होगी। इससे भी महत्वपूर्ण अमेरिका की ऐसी मंशा है कि वह अफगानिस्तान और पाकिस्तान के बीच बातचीत में भी मदद करेगा ताकि दोनों देशों की भूमि से एक दूसरे के लिए कोई खतरा उत्पन्न न हो। एक लिहाज से यह बयान अफगान सरकार की प्रतिष्ठा कायम रखने लिए दिया गया प्रतीत होता है। ऐसा इसलिए, क्योंकि अमेरिका द्वारा तालिबान के साथ समझौता करने से तालिबान की अंतरराष्ट्रीय स्वीकार्यता बढ़ी है।

समझौते की राह में मुश्किलें कायम हैं

अब इस समझौते पर संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद की मुहर लगवाने की कोशिश होगी। भले ही यह समझौता हो गया हो, लेकिन इसकी राह में बड़ी मुश्किलें अभी भी कायम हैं। मिसाल के तौर पर समझौते की स्याही अभी सूखी भी नहीं कि अफगान सरकार ने कहा कि उसने तालिबान बंदियों को छोड़ने का कोई आश्वासन नहीं दिया। इस सूरत में क्या 10 मार्च से विधिवत बातचीत शुरू हो पाएगी?

समझौते की राह में राजनीतिक पेच भी है

इसमें एक राजनीतिक पेच भी है और वह यह कि हाल में अफगान चुनाव आयोग ने अशरफ गनी को दोबारा राष्ट्रपति निर्वाचित घोषित किया है, मगर उनके मुख्य प्रतिद्वंद्वी अब्दुल्ला अब्दुल्ला ने हार स्वीकार नहीं की। उन्होंने तो समांतर सरकार गठित करने तक की बात की है। इस हालात में तालिबान से वार्ता के लिए सभी पक्षों को साथ लाने में मुश्किल होगी। 

राष्ट्रपति गनी गैर-तालिबान पक्ष का नेतृत्व करना चाहते हैं

गनी चाहते हैं कि वह गैर-तालिबान पक्ष का नेतृत्व करें, लेकिन क्या अन्य समूह उनके नेतृत्व को स्वीकार करेंगे। तालिबान के साथ भी यह आशंका जुड़ी हुई है कि वह हिंसा कम तो कर देगा, लेकिन कोई गारंटी नहीं कि वह उसे पूरी तरह बंद करेगा।

भारत अफगानिस्तान के आंतरिक मामलों में कभी नहीं करेगा हस्तक्षेप- विदेश सचिव

दोहा में इस समझौते पर हस्ताक्षर के मौके पर कतर में भारतीय राजदूत भी उपस्थित थे। उसी दिन विदेश सचिव काबुल में थे जहां उन्होंने राष्ट्रपति गनी, डॉ. अब्दुल्ला अब्दुल्ला और अन्य अफगान नेताओं से बातचीत की। इस दौरान विदेश सचिव ने आश्वासन दिया कि भारत अपनी परंपरागत नीतियों को आगे बढ़ाएगा। यानी वह अफगानिस्तान को सहायता देता रहेगा और उसके आंतरिक मामलों में कभी हस्तक्षेप नहीं करेगा। जहां तक समझौते का सवाल है तो भारत सरकार ने इस पहलू पर जरूर गौर किया कि अफगानिस्तान का प्रत्येक राजनीतिक पक्ष इस करार के पक्ष में हो।

क्या भारत तालिबान से बातचीत करेगा?

अब सवाल यह है क्या भारत तालिबान से बातचीत करेगा? एक सवाल यह भी उठ रहा है कि क्या भारत को तालिबान से पहले ही संबंध स्थापित कर लेने चाहिए थे? यह समझना आवश्यक है कि राजनयिक दृष्टि से बातचीत करना या संबंध स्थापित करने से दूसरे पक्ष की नीतियों या विचारधारा को वैधानिकता नहीं मिलती। 1990 के दशक में भारत ने तत्कालीन अफगान राष्ट्रपति बुरहानुद्दीन रब्बानी की सरकार का समर्थन किया था। तब भारत के साथ ईरान और रूस भी रब्बानी सरकार के साथ थे, लेकिन 2020 उस दौर से बहुत अलग है।

भारत सरकार को भी तालिबानी पहल पर लचीला रवैया अपना चाहिए

कई वर्षों से विश्व की बड़ी शक्तियों ने तालिबान से संबंधों की पींगें बढ़ाई हैं। इनमें चीन और यूरोपीय संघ के देश भी शामिल हैं। यहां तक कि ईरान और रूस ने भी अपने द्वार तालिबान के लिए खोले। इसके साथ-साथ अफगान सरकार का भी यह प्रयास रहा कि तालिबान उससे बातचीत करने के लिए राजी हो। वहीं तालिबान अफगान सरकार की इन कोशिशों को यह कहते हुए नकारता रहा कि वह अमेरिका की पिट्ठू है। इस बदलते घटनाक्रम में बेहतर होता कि भारत सरकार भी कुछ लचीला एवं व्यावहारिक रवैया अपनाकर बातचीत की तालिबानी पहल पर सकारात्मक रुख दिखाती।

तालिबान का भारत को संदेश, पाकिस्तान का पिट्ठू कतई न समझें

इसमें संदेह नहीं कि पाक और तालिबान के संबंध बहुत घनिष्ठ हैं और तालिबान इस्लामाबाद पर निर्भर भी है, लेकिन उन्होंने भारतीयों को यह संदेश देने की कोशिश भी की है कि उन्हें पाकिस्तान का पिट्ठू कतई न समझें।

भारत को अफगानिस्तान की बदलती सूरत पर कड़ी नजर रखनी होगी

भारत को अफगानिस्तान की बदलती सूरत पर कड़ी नजर रखनी होगी। वहां के घटनाक्रम से भारत के सामरिक समीकरणों पर भी असर पड़ सकता है, हालांकि ऐसी आशंका कम ही है। ऐसी स्थिति में भारत के लिए बेहतर यही होगा कि वह अफगानिस्तान में सभी राजनीतिक पक्षों के साथ सार्थक संवाद एवं सहायता जारी रखे। अफगानिस्तान में भारत जो भी सहायता कर रहा है, उसका वहां बहुत सकारात्मक प्रभाव है। इन गतिविधियों को और धार देकर आगे बढ़ाने की दरकार है।

( लेखक विदेश मंत्रालय में सचिव रहे हैं )