[ ब्रिगेडियर आरपी सिंह ]: पाकिस्तानी चुनावों में पूर्व क्रिकेटर इमरान खान ही मैन ऑफ द मैच बनकर उभरे हैं। शासन अनुभव के मामले में शून्य प्लेबॉय की छवि वाले इमरान ही अब पाकिस्तान की कमान संभालने वाले हैं। क्रिकेट में 22 गज की पट्टी से पाकिस्तान का प्रधानमंत्री बनने के बीच उन्हें 22 वर्षों का फासला तय करना पड़ा। उनकी जीत में कई पहलुओं ने अहम भूमिका निभाई। जिस देश में नेता, फौजी और नौकरशाह भ्रष्टाचार के लिए कुख्यात हों वहां उनकी स्वच्छ छवि ने अंतर पैदा किया। पाकिस्तान की मुख्य पार्टियां वंशवादी हैं जिन पर उन्होंने चुनाव अभियान के दौरान तीखे वार किए। उनका क्रिकेटर होना भी उनके पक्ष में गया, क्योंकि पाकिस्तान के सभी वर्गों के बीच उनकी करिश्माई छवि है। आतंकियों और कट्टरपंथियों से हमदर्दी भी अहम रही जिससे उन्हें तालिबानी खान की उपाधि मिल गई।

इमरान की परोपकारी वाली छवि भी है, क्योंकि उन्होंने अपनी दिवंगत मां की स्मृति में पाकिस्तान का पहला कैंसर अस्पताल भी बनाया। वंचित वर्ग के युवाओं के लिए भी वह एक निजी विश्वविद्यालय चलाते हैं। इन सबसे बढ़कर सेना का वरदहस्त इमरान के लिए निर्णायक साबित हुआ, क्योंकि नवाज शरीफ की फौज के साथ अदावत के बाद सेना को एक सियासी मोहरे की तलाश थी और इमरान के रूप में उसे वह प्यादा मिल भी गया। जैसे आज इमरान पाकिस्तानी फौज के दुलारे बने हुए हैं कुछ वैसी ही शुरुआत 1980 के दशक में शरीफ की भी हुई थी।

सेना की सरपरस्ती में ही शरीफ का सियासी सफर आगे बढ़ा, लेकिन बाद में जनरलों से उनका टकराव होता गया। पहले दो कार्यकालों में उन्होंने जनरल आसिफ नवाज जंजुआ और जहांगीर कारामत को बर्खास्त किया और अब्दुल वहीद कक्कड़ के साथ उनके गंभीर मतभेद हो गए। उन्होंने जिन परवेज मुशर्रफ की नियुक्ति की उनके साथ भी उनकी पटरी नहीं बैठ पाई। फिर उन्हीं मुशर्रफ ने 1999 में सैन्य तख्तापलट के जरिये शरीफ को गद्दी से बेदखल किया।

वर्ष 2013 में शरीफ ने अपना तीसरा कार्यकाल इस वादे के साथ शुरू किया कि वह पूर्व तानाशाह मुशर्रफ को इंसाफ के कठघरे में खड़ा करेंगे। फौज के शीर्ष दिग्गजों ने उनकी इस मुहिम को न केवल मुशर्रफ को राष्ट्रद्रोह के मामले में खींचने की कोशिश के तौर पर देखा, बल्कि सेना पर नागरिक सरकार की श्रेष्ठता साबित करने का प्रयास भी माना। ऐसे में आइएसआइ ने शरीफ के मुख्य प्रतिद्वंद्वी इमरान को मोर्चे पर लगाया कि वह 2013 के चुनावों में कथित धांधली को लेकर विरोध प्रदर्शन कराएं। इमरान की पार्टी पीटीआइ ने 2014 में धरना शुरू किया जिसके चलते कई महीनों तक राजधानी इस्लामाबाद की रफ्तार रुक गई।

पीटीआइ इतनी बड़ी भीड़ नहीं जुटा पाई जो शरीफ को इस्तीफा देने पर मजबूर कर पाती। आखिरकार मामला अदालत में जाकर खत्म हुआ जहां चुनाव में धांधली का कोई साक्ष्य नहीं मिला। धरना तो फुस्स हो गया, लेकिन सेना शरीफ पर दबाव बनाने में सफल रही कि वह मुशर्रफ को लेकर नरम हो जाएं। हमेशा समर्पण की मुद्रा में रहने वाली न्यायपालिका ने निरंकुश तानाशाह रहे मुशर्रफ को पाकिस्तान से बाहर जाने की इजाजत दे दी जो आज तक भगोड़े बने हुए हैं।

सेना इतने पर ही शांत नहीं बैठी और उसने शरीफ को उस मोर्चे पर घेरने की तैयारी की जो शायद न्यायिक जांच के दायरे में ही नहीं आता। पाकिस्तानी नेता और अभिजात्य वर्ग के लोग अपने राजसी ठाठ-बाट और लंदन या दुबई जैसी आलीशान जगहों पर अपनी संपत्ति का प्रदर्शन करने में संकोच नहीं करते। बेनजीर भुट्टो का सरे में एक विला, पेरिस के पास एक कैसल और दुबई में संपत्तियां थीं। वहीं लंदन और दुबई में मुशर्रफ की आलीशान संपत्तियां हैं, लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने सेना के दबाव में आय से अधिक विदेशी संपत्ति मामले में शरीफ पर ही शिकंजा कसा। सुप्रीम कोर्ट ने बिना किसी स्पष्ट कारण के संयुक्त जांच दल में दो सेवारत ब्रिगेडियरों को भी नियुक्त कर दिया जिन्हें न्यायिक या जांच का कोई तजुर्बा था और न ही नागरिक कानूनों की जानकारी। इसका नतीजा यही निकला कि शरीफ और करिश्माई छवि वाली उनकी बेटी मरयम को जेल जाना पड़ा।

फिर सेना ने पीएमएल-एन और पीपीपी के नेताओं का पीटीआइ में दलबदल कराया ताकि इमरान की पार्टी की जीतने की संभावनाएं बढ़ सकें। स्थानीय मीडिया को भी चुनाव से पहले हो रही धांधलियों की रिपोर्टिंग करने से रोका गया। कुछ मामलों में मीडिया को इमरान और पीटीआइ की सकारात्मक छवि पेश करने और पीएमएल-एन को नकारात्मक दिखाने के लिए भी कहा गया। ऐसी तिकड़मों ने इमरान को लोकप्रिय बनाने के साथ ही ‘नया पाकिस्तान’ बनाने के उनके नारे को भी मान्यता दिलाई। चुनाव जीतने के लिए उन्होंने कई समझौते भी किए। प्रगतिशील और उदार छवि वाले इमरान ने खुद को ऐसा रूढ़िवादी बना लिया जो ईशनिंदा जैसे कठोर कानून का हिमायती बन बैठा। भारत और अफगानिस्तान में पाकिस्तानी सेना की शह पर हिंसक संघर्ष छेड़े आतंकियों की आलोचना करने के बजाय उन्होंने इसे जायज ठहराया।

प्रधानमंत्री के रूप में इमरान के सामने घरेलू और अंतरराष्ट्रीय मोर्चे पर तमाम चुनौतियां होंगी। आरोप हैं कि चुनाव आयोग ने मतगणना के दौरान राजनीतिक दलों के प्रतिनिधियों को वहां मौजूद नहीं रहने दिया। विपक्षी दलों ने वैसे ही विरोध-प्रदर्शन की धमकी दी है जैसे 2014 में इमरान ने किए थे। इससे राजनीतिक अस्थिरता बढ़ेगी। पाक अर्थव्यवस्था बहुत बुरी स्थिति में है और कानून एवं व्यवस्था के हालात बदतर हैं जहां आतंकियों का ही बोलबाला है। वहीं मोदी के नेतृत्व में भारत सैन्य एवं कूटनीतिक ताकत बढ़ाकर पाकिस्तान पर आतंक की नीति को छोड़ने के लिए दबाव बढ़ा रहा है। सीपीईसी की आड़ में चीन पाक को अपनी जागीर बनाने में जुटा है। पूर्व पत्नी रेहाम खान के आरोपों से भी इमरान को शर्मिंदगी उठानी पड़ रही है।

इमरान भले ही दावा करें कि पाकिस्तान में लोकतंत्र की जीत हुई है, लेकिन असल विजेता तो सेना ही बनी है। जनरलों ने अपने हितों को पोषित करने वाले शख्स को गद्दी पर बिठाया है और इमरान जब तक ऐसा करते रहेंगे तभी तक उनके दिन अच्छे रहेंगे। जिस दिन वह सेना को चुनौती देंगे तो उनका हश्र भी वही होगा जैसा अतीत में भुट्टो और शरीफ का हुआ। जिस दिन कठपुतली प्रधानमंत्री अपने पंख पसारने लगे तो उन्हें तुरंत कतर दिया जाता है। सेना उन्हें दो संकेत पहले ही दे चुकी है। एक तो सुरक्षा कारणों का हवाला देकर शपथ ग्रहण समारोह में विदेशी मेहमानों को बुलाने के इमरान के प्रस्ताव को किनारे लगा दिया गया।

दूसरा खैबर-पख्तूनवा सरकार के हेलीकॉप्टरों के दुरुपयोग को लेकर इमरान को नेशनल अकाउंटेबिलिटी बोर्ड के समक्ष पेशी का समन मिल चुका है। यह उन्हें यही याद दिलाने के लिए है कि असल मुखिया कौन है। भारत के साथ संबंधों के मामले में यथास्थिति ही रहेगी, क्योंकि भारत नीति पाकिस्तानी फौज निर्धारित करती है।

मोदी अगर रिश्ते सुधारना चाहते हैं तो उन्हें अमेरिका और चीन के माफिक सेना से संपर्क भिड़ाना होगा। पूर्व सेना प्रमुख जनरल बिक्रम सिंह इसके लिए सबसे उपयुक्त होंगे, क्योंकि पाकिस्तानी सेनाप्रमुख कमर जावेद बाजवा कांगो में संयुक्त राष्ट्र मिशन के दौरान उनके नेतृत्व में काम कर चुके हैं। उसमें बिक्रम सिंह मेजर जनरल थे तो बाजवा ब्रिगेडियर।

[ लेखक सेवानिवृत्त सैन्य अधिकारी हैं ]