[ शंकर शरण ]: पाकिस्तानी प्रधानमंत्री इमरान खान समेत कई अन्य पाकिस्तानी नेता यह मान रहे हैैं कि अब दुनिया में उन्हें कोई नहीं पूछ रहा। हर कहीं उन पर संदेह किया जाता है। उन्हें आतंकवाद को प्रश्रय देने वाला देश समझा जाता है। अब मुस्लिम देश भी पाकिस्तान के साथ नहीं हैं और दूर भागते हैैं। अब तो गुलाम कश्मीर में भी ‘कश्मीर बनेगा हिंदुस्तान’ जैसे नारों के साथ इमरान खान के खिलाफ प्रदर्शन हो रहा। पाकिस्तान की यह विडंबना विचारणीय है। उसके नेता सार्वजनिक मंचों से अपनी दुर्गति पर रो रहे हैं। ऐसा वे सहानुभूति पाने के लिए नहीं कर रहे, क्योंकि उन्हें मालूम है कि अंतरराष्ट्रीय राजनीति भावुकता से नहीं, ठोस हितों से चलती है।

पाकिस्तान का कश्मीर पर अकेला पड़ना

मुस्लिम देश भी अपनी-अपनी जरूरत के अनुसार बोलते रहे हैं। यदि पहले कई बार उन्होंने उम्मत की बात की तो उसमें उनकी शासकीय मजबूरियां भी थीं। अब तो वह बात ही छोड़ी जा रही है। पाकिस्तान का कश्मीर पर अकेला पड़ना उसी का संकेत है। दो पीढ़ी पहले भारत के भी कुछ मुस्लिम नेता पाकिस्तान को अपना आदर्श, मार्गदर्शक आदि बताते थे। अब वे उलट गए हैं या फिर मौन हैं। इसलिए विचार करना चाहिए कि कभी भारत का ही एक हिस्सा आज इतना गिर कैसे गया? यह यकायक नहीं हुआ है।

पाकिस्तान एक हारी हुई लड़ाई लड़ रहा है

प्रसिद्ध विद्वान नीरद सी चौधरी ने शुरू में ही कह दिया था कि पाकिस्तान एक हारी हुई लड़ाई लड़ रहा है। उन्होंने अपनी चर्चित पुस्तक ‘कांटिनेंट ऑफ सर्सी’ में कहा था कि पाकिस्तान ‘एक विनष्ट उद्देश्य के लिए लड़ते रहने पर विवश है, अन्यथा वह नष्ट हो जाएगा।’ यह उद्देश्य विनष्ट इसलिए है कि अब कोई देश पूरी दुनिया पर इस्लामी राज कायम करने का लक्ष्य नहीं रखता और न ही अपना पूरा कामकाज शरीयत कानूनों से चलाता है, किंतु यदि पाकिस्तान इस्लाम से मुंह मोड़ ले तो उसकी जनता अपने सहज भारतीय समाज के प्रति गुरुत्वाकर्षण शक्ति से स्वत: खिंच जाएगी। इस्लाम की अपनी केंद्रीय पहचान हटाते ही यह अस्वाभाविक विलगाव जाता रहेगा। अत: पाक को अपना अस्तित्व बचाने के लिए इस्लाम की जद्दोजहद करना जरूरी है।

50 वर्ष बाद भी पाकिस्तानी अनिश्चतता के माहौल में

सर वीएस नायपॉल ने पाकिस्तान भ्रमण के दौरान वही पाया जो नीरद सी चौधरी ने उसके बारे में लिखा था। अपनी प्रसिद्ध पुस्तकों ‘अमंग द बिलीवर्स’ और ‘बियोंड बिलीफ’ में नायपॉल ने पाकिस्तानी विडंबना को प्रत्यक्ष रूप से पेश किया। उनका आकलन इस अर्थ में भी प्रमाणिक है कि उन्होंने तीन और मुस्लिम देशों की इसी तरह विस्तृत पड़ताल कर तुलनात्मक अवलोकन किया था। वस्तुत: अनेक पाकिस्तानी लेखकों ने भी समय-समय पर सच्चाई महसूस की है। प्रसिद्ध पत्रकार और फ्राइडे टाइम्स के संपादक नजम सेठी ने दो दशक पहले कहा था, ‘पचास वर्ष बाद भी पाकिस्तानी यह तय नहीं कर पाए हैं कि एक राष्ट्र के रूप में वे कौन हैं, किसमें विश्वास रखते हैं और किस दिशा में जाना चाहते हैं? क्या हम दक्षिण एशिया के अंग हैं या मध्य पूर्व के? क्या हम सऊदी अरब या ईरान जैसे कट्टर इस्लामी हैं या जॉर्डन और मिस्न जैसे उदार मुस्लिम राज्य? यदि दोनों में से कोई हमारे लिए ठीक नहीं तो हम क्या हैं?

इस्लाम की कौन सी व्याख्या स्वीकार करें

इस्लाम की कौन सी व्याख्या हम स्वीकार करें? कायदे आजम जिन्ना और अल्लामा इकबाल की अलग-अलग व्याख्याएं थीं। फिर जमाते इस्लामी, सिपह-ए-सहाबा, जमात-ए-उलेमा-ए-इस्लाम और अन्य इस्लामी पार्टियों की मुख्तलिफ इस्लामी धारा जिसे वे तेज करते रहते हैं। इस पर कोई सहमति नहीं है। इतना तनाव, हिंसा और उलझन है कि इसने पाकिस्तान को गंभीर चोट पहुंचानी शुरू कर दी है। इसने पहचान के संकट का रूप ले लिया है।’

पाकिस्तान को खतरा है या इस्लामी मतवाद को

इन शब्दों में पाकिस्तान की हारी हुई लड़ाई लड़ते रहने की ही करुण कहानी थी, किंतु यह बात तत्कालीन पाकिस्तान सरकार को इतनी नागवार लगी कि सेठी को कैद कर लिया गया। तब पाकिस्तान में कोई सैनिक या तालिबानी सत्ता नहीं, बल्कि नवाज शरीफ की निर्वाचित सरकार थी। सभी प्रसंग वही विडंबना दिखाते हैं जो अपने जन्म से ही पाकिस्तान के गले पड़ी हुई है। वह अपने लोगों की विवेकशील आवाज सुनकर भी असहज होने लगता है। डरता है कि उसके अस्तित्व को खतरा न हो जाए, पर क्या यह पाकिस्तान को खतरा है या इस्लामी मतवाद को? इसका उत्तर आज नहीं तो कल पाकिस्तानी लोग ढूंढ लेंगे, लेकिन अभी वहां नेताओं की हायतौबा दिखाती है कि भारत से अपनी अलग और ऊंची पहचान बनाने का उनका सपना बुरी तरह चकनाचूर हो चुका है।

पाकिस्तान को हर बार मुंह की खानी पड़ी

भारत और पाकिस्तान में बाकी सब चीजें समान हैं, सिवाय एक मजहबी पहचान के। ऐसे में इस तार्किक निष्कर्ष से कैसे बचा जा सकता है कि किस चीज ने उन्हें बेचारा बना दिया और अपनी ही नजरों में गिरा दिया? उन्होंने अपनी मूल धरती, उसकी गौरवशाली संस्कृति, इतिहास, धर्म, साहित्य और समाज से घृणा करने को अपनी टेक बना लिया। अपनी संतानों को बताया कि भारत न केवल काफिर हीन हिंदू देश है, बल्कि स्थाई रूप से शत्रु-देश है। जबकि भारत ने कभी पाकिस्तान पर हमला नहीं किया उलटे पाक ने ही चार बार हमला किया। हर बार उसे मुंह की खानी पड़ी। वह पिछले तीन दशकों से जिहादी आतंकियों का इस्तेमाल कर भारत को ‘हजार घाव देने’ वाला परोक्ष और कुटिल युद्ध चला रहा है।

पाक आज खिन्न और हताश है

भारतीय सभ्यता की महान विरासत से दूर होकर खुद को नीचा दिखाने की योजना उसने स्वयं बनाई थी। किसी ने उसे इसके लिए मजबूर नहीं किया था। अरब के मुस्लिम देशों ने भी नहीं। यदि पाक आज खिन्न और हताश है तो उसे कौन रास्ता दिखा सकता है? क्या इसमें भारत की कोई भूमिका हो सकती है? यह सच है कि सभी अपना रास्ता स्वयं ढूंढते हैं, मगर सहानुभूति रखने वाले मदद तो करते ही हैं। फिर पाकिस्तान तो हाल तक पूर्णत: भारत ही था। कुछ समय से वह वितृष्ण ‘एनआरआइ’ देश जैसा है। यानी ऐसे भारतीय, जो भारत में नहीं रहते। उन्हें भारत एक ही संदेश दे सकता है जो इसका राष्ट्रीय ध्येय-वाक्य भी है: सत्यमेव जयते।

पाकिस्तान सत्य और असत्य का विवेकशील परीक्षण करे

पाकिस्तान सत्य और असत्य का विवेकशील परीक्षण करे। जो भी चीज असत्य लगे, उसका त्याग करे। भारत से घृणा ही अंतत: उसके लिए आत्महीनता में बदल गई है। इस सत्य पर आत्मचिंतन करना पाक के लिए अपरिहार्य हो चुका है। विशेषकर मुस्लिम देशों की बदलती हुई स्थिति में, जो इस्लामी जिद को चुपचाप त्याग करते हुए दूसरों के साथ सहज सामंजस्यपूर्ण नीति बनाने की ओर बढ़ रहे हैं। यह अनायास भी हो रहा है और सोचा-समझा भी। दोनों प्रक्रियाएं चल रही हैं। जैसा बेल्जियन भारतविद् कोएनराड एल्स्ट ने अभी कहा, ‘मुस्लिम दुनिया बाहर संख्यात्मक/संस्थानिक विस्तार और अंदर इस्लाम से मोहभंग से बढ़ते खालीपन के बीच प्रतियोगिता से गुजर रही है।’ पाकिस्तानी नेताओं के बयान इस मोहभंग का भी संकेत है। इसलिए भी भारत के लोगों को उनसे सही संवाद करना चाहिए।

( लेखक राजनीति शास्त्र के प्राध्यापक एवं वरिष्ठ स्तंभकार हैं )