[ संजय गुप्त ]: देश जैसे-जैसे आम चुनाव की ओर बढ़ रहा है वैसे-वैसे मोदी सरकार पर विपक्ष के सियासी हमले तेज होते चले जा रहे हैं। हमले करने में कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी कुछ ज्यादा ही आगे हैैं। शायद उन्हें यह लगने लगा है कि लगातार कुछ भी बोलते रहने से मोदी की राह रोकने में आसानी होगी। एक अर्से से राफेल सौदे को घोटाला बताने में जुटे राहुल ने नोटबंदी की दूसरी वर्षगांठ पर भी यह कहकर सरकार को कोसा कि नोटबंदी एक क्रूर साजिश थी। उन्होंने राफेल सौदे वाला अपना यह पुराना जुमला भी उछाला कि दरअसल नोटबंदी प्रधानमंत्री के चहेतों को अपना कालाधन सफेद करने की सुविधा के लिए लागू की गई थी। चुनावी माहौल में विपक्षी नेताओं से सरकार के प्रति नरमी की उम्मीद नहीं की जा सकती, लेकिन इसका यह मतलब नहीं कि वे उलटे-सीधे और तथ्यों से परे जाकर आरोप लगाएं। चूंकि राहुल ऐसा ही कर रहे हैैं इसलिए भाजपा भी उन्हें उन्हीं की भाषा में जवाब दे रही है।

जब राहुल ने पूछा कि क्या नोटबंदी के वक्त कोई सूट-बूट वाला लाइन में दिखा था तो उन्हें भाजपा की ओर से यही कटाक्ष भरा जवाब मिला कि वह तो खुद लाइन में लगे देखे गए थे। सरकार की अलोचना करना राहुल का लोकतांत्रिक अधिकार है, लेकिन बेहतर होगा कि वह घिसे-पिटे आरोप लगाने से आगे बढ़ें। इसमें संदेह है कि वह कुछ तार्किक और तथ्यों के हिसाब से बोलेंगे। चूंकि यह लगभग तय है कि आने वाले समय में राहुल के साथ अन्य विपक्षी नेता सरकार पर हमले जारी रखेंगे इसलिए सत्तापक्ष के लिए भी जरूरी है कि वह अपने पर लगे आरोपों का माकूल जवाब दे। यह अच्छा हुआ कि नोेटबंदी पर राहुल और अन्य विपक्षी नेताओं की निंदा-आलोचना का खुद वित्त मंत्री अरुण जेटली ने जवाब दिया। उन्होंने बताया कि नोटबंदी का मकसद क्या था और सरकार किस तरह उसे हासिल करने में समर्थ रही? देखना यह है कि जनता किसकी बातों पर भरोसा करती है- विपक्ष की या सत्तापक्ष की?

नोटबंदी की अप्रत्याशित घोषणा से पूरा देश स्तब्ध रह गया था। शुरुआती कुछ दिनों में तो किसी को समझ ही नहीं आ रहा था कि आगे क्या और कैसे होगा? इसका कारण यह भी था कि सरकार हर दूसरे-तीसरे दिन नियम-निर्देश बदल रही थी। तमाम कठिनाइयों के बाद भी आम जनता उत्साहित थी, क्योंकि उसे लग रहा था कि कालेधन वालों को सही सबक मिला। पता नहीं क्यों विपक्ष इसकी अनदेखी कर रहा है कि भाजपा को नोेटबंदी का राजनीतिक लाभ भी मिला।

नोटबंदी के बाद हुए उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनाव में भाजपा को उम्मीद से कहीं अधिक अप्रत्याशित बहुमत मिला। पहले यह माना जा रहा था कि नोटों की शक्ल में एक बड़ी मात्रा में कालाधन बैैंकों में आएगा ही नहीं, लेकिन नोटबंदी के पचास दिनों में करीब-करीब सारा पैसा बैंकों में जमा हो गया। इस पर वित्त मंत्री का कहना है कि सरकार की मंशा लोगों का पैसा जब्त करने की नहीं थी। सरकार की मंशा जो भी हो, इसकी अनदेखी नहीं की जा सकती कि नोटबंदी ने तात्कालिक तौर पर अर्थव्यवस्था पर गहरा असर डाला। नोटबंदी के चलते अर्थव्यवस्था करीब डेढ़-दो प्रतिशत सिमट गई। दैनिक वेतन भोगी वर्ग को कहीं अधिक कठिनाइयों का सामना करना पड़ा, क्योंकि छोटे उद्योग-धंधों को कारोबार करना कठिन होे गया।

आज यह कहा जा सकता है कि नोटबंदी के चलते जिनकी नौकरियां चली गई थीं वे उन्हें वापस मिल गईं और दैनिक मजदूरी का काम भी पहले जैसे ही चल निकला। यह तो एक प्रमाण है ही कि अर्थव्यवस्था की विकास दर आठ प्रतिशत के इर्द-गिर्द पहुंच गई है। इस सबके बाद भी यह नहीं कहा जा सकता कि रोजगार के उतने अवसर पैदा हो रहे हैैं जितने आवश्यक हैैं।

नोटबंदी के दौर में चाहे छोटा कारोबारी हो या बड़ा, सबने जिस तरह अपनी काली-सफेद नकदी बैैंकों में जमा कर दी उसके लिए बैैंक अधिकारी ही जिम्मेदार ठहराए जाने चाहिए। ऐसा लगता है कि सरकार इसका अनुमान ही नहीं लगा सकी कि बैैंक अधिकारी इस तरह मनमानी करने में सक्षम रहेंगे। भले ही कालेधन का एक बड़ा हिस्सा सोने और जमीन-जायदाद के रूप में रहा हो, लेकिन एक हिस्सा पांच सौ और हजार रुपये के नोटों के रूप में भी था। इन सब नोटों का बैैंकों में पहुंचना सरकार की अपेक्षा विपरीत तो था, लेकिन इसका एक परिणाम यह हुआ कि वह संदिग्ध खाताधारकों की पहचान करने में सफल रही।

आज सरकार यह दावा करने में समर्थ है कि संदिग्ध खाताधारकों के खिलाफ कार्रवाई हो रही है और जो लोग यह नहीं बता पा रहे कि उनके पास इतनी नकदी कहां से आई वे जुर्माना चुकाने के साथ टैक्स के दायरे में आ रहे हैैं। यह एक तथ्य है कि टैक्स देने वालों की संख्या में अच्छी-खासी वृद्धि हुई है। चूंकि नोटबंदी के बाद डिजिटल लेन-देन पर भी जोर दिया गया इसलिए सरकार को धन के प्रवाह की निगरानी करने में आसानी हो रही है। यह निगरानी कालेधन पर रोक लगाने का काम कर रही है।

नोटबंदी का एक और सकारात्मक असर करीब तीन लाख मुखौटा कंपनियों पर तालाबंदी के रूप में सामने आया। आम तौर पर इन कंपनियों के जरिये दो नंबर का काम होता था। दो नंबर की अर्थव्यवस्था काकुछ क्षेत्रों और खासकर रियल एस्टेट और सोने-चांदी के व्यापार में खासा चलन था। वैसे तो भारत एक गरीब देश है, लेकिन वह सोने का सबसे बड़ा आयातक है और यह किसी से छिपा नहीं कि सोने का अधिकांश कारोबार दो नंबर में ही होता है।

दो नंबर की इस अर्थव्यवस्था पर लगाम लगाने के लिए ऐसा कुछ करना आवश्यक था जिससे उसकी जड़ें हिल जाएं। नोटबंदी ने यही काम किया। यह बात और है कि अभी दो नंबर की इस अर्थव्यवस्था पर और प्रहार करने की जरूरत है। चुनावी वर्ष में मोदी सरकार शायद ही कोई ऐसा कदम उठाए जो दो नंबर की अर्थव्यवस्था की बची-खुची चूलें हिला सके, लेकिन इससे इन्कार नहीं कि नोटबंदी के बाद जो तमाम डाटा सरकार के पास आ चुका है उसके जरिये भविष्य में कोई भी सरकार दो नंबर की अर्थव्यवस्था पर अंकुश लगा सकती है।

यह बात सही है कि नोटबंदी से अर्थव्यवस्था को एक झटका लगा था, लेकिन बीते दो साल में वह पटरी पर आ गई है और जीएसटी से भी उबर रही है। जीएसटी का पूरा असर सामने आने में अभी कुछ समय और लग सकता है, लेकिन कम से कम आज के दिन यह नहीं कहा जा सकता कि अर्थव्यवस्था अभी भी नोटबंदी के प्रभाव में हैै। आने वाले समय में अर्थव्यवस्था के एक बार फिर तेजी से बढ़ने के आसार हैैं।

आगामी आम चुनाव के बाद कोई भी सत्ता में आए, इसमें संदेह नहीं कि नोटबंदी को लागू करने और जीएसटी पर अमल करने के जो फैसले मोदी सरकार ने लिए उनका लाभ देश को मिलता रहेगा। दरअसल इसी कारण यह कहना कठिन है कि नोटबंदी पर घिसे-पिटे आरोपों के सहारे सरकार को घेरने से विपक्ष को कोई राजनीतिक लाभ मिलेगा।

[ लेखक दैनिक जागरण के प्रधान संपादक हैं ]