[ संजय गुप्त ]: राज्यसभा उपसभापति चुनाव में सत्तापक्ष और विपक्ष के बीच दिलचस्प और साथ ही कांटे के मुकाबले के आसार थे, लेकिन इसमें जिस तरह राजग प्रत्याशी के रूप में जद-यू सांसद हरिवंश नारायण सिंह को कहीं अधिक आसान जीत मिली वह विपक्ष के लिए एक बड़ा झटका है। इसलिए और भी, क्योंकि आगामी विधानसभा चुनावों और साथ ही आम चुनाव के पहले इस नतीजे ने भाजपा के खिलाफ विपक्ष की एकजुटता की कोशिशों की हवा निकाल दी। चूंकि 1977 के उपरांत पहली बार यानी लगभग 40 साल बाद उपसभापति का पद किसी गैर-कांग्रेसी दल के सांसद को मिला है इसलिए इससे कांग्रेस के घटते राजनीतिक असर का भी पता चलता है।

राज्यसभा उपसभापति चुनाव में हरिवंश की जीत हाल के समय में विपक्ष के लिए दूसरा आघात है, क्योंकि कुछ दिन पहले लोकसभा में मोदी सरकार के विरुद्ध आए विपक्ष के अविश्वास प्रस्ताव को भी पराजय का सामना करना पड़ा था और वह भी तब जब उस समय भाजपा की सहयोगी शिवसेना ने मतदान में हिस्सा लेने से इन्कार कर दिया था। इसी शिवसेना ने राज्यसभा उपसभापति चुनाव में हरिवंश के पक्ष में मतदान किया। राज्यसभा में सत्तापक्ष की यह जीत इसलिए अधिक उल्लेखनीय है, क्योंकि इस सदन का गणित भाजपा के पक्ष में नहीं है।

हरिवंश की जीत भाजपा के लिए एक अन्य लिहाज से भी महत्वपूर्ण है। चूंकि अभी हाल तक कई अहम मसलों पर जद-यू के रुख को लेकर असमंजस की स्थिति थी इसलिए मीडिया में ऐसी अटकलें लगने लगी थीं कि नीतीश कुमार भाजपा से संतुष्ट नहीं हैं, लेकिन हरिवंश के राज्यसभा उपसभापति बनने के बाद यह कहा जा सकता है कि भाजपा ने जदयू के साथ अपनी प्रगाढ़ता बढ़ा ली है। हालांकि कुछ लोग यह कह सकते हैैं कि अब भाजपा के साथ बने रहना नीतीश कुमार की मजबूरी है, क्योंकि वह उससे फिर अलग होकर अपनी राजनीतिक साख नहीं बनाए रह सकते।

ध्यान रहे नीतीश कुमार ने पिछले लोकसभा चुनाव के पहले मोदी विरोधी रुख जाहिर करते हुए भाजपा से नाता तोड़ लिया था। प्रतिकूल नतीजों के बाद उन्होंने बिहार विधानसभा चुनाव राजद और कांग्रेस के साथ मिलकर लड़ा। उन्हें सफलता तो मिली, लेकिन राजद नेताओं की मनमानी और उनके भ्रष्टाचार के कारण उन्हें महागठबंधन से नाता तोड़ना पड़ा। उन्होंने फिर से भाजपा का साथ पकड़ा। यह वही नीतीश कुमार हैैं जिन्होंने एक समय पटना आए नरेंद्र मोदी समेत अन्य भाजपा नेताओं के भोज को रद कर किया था। तब मोदी गुजरात के मुख्यमंत्री थे।

भाजपा के साथ दोबारा जुड़ने के बाद यह माना जा रहा था कि जदयू के प्रतिनिधियों को केंद्रीय कैबिनेट में जगह मिलेगी, लेकिन ऐसा नहीं हुआ। देखना है कि राज्यसभा उपसभापति का पद हासिल करने के बाद जदयू और भाजपा के बीच आपसी समझ-बूझ कितनी बढ़ती है? जो भी हो, यह उल्लेखनीय है कि जद-यू सांसद के तौर पर हरिवंश ने उल्लेखनीय सफलता हासिल की। वह पहली बार राज्यसभा सदस्य बने और फिर राज्यसभा उपसभापति बन गए।

ग्रामीण परिवेश में पले-बढ़े हरिवंश ने पहले पत्रकारिता में एक मुकाम हासिल किया और अब राजनीति में भी। यह तो समय बताएगा कि पत्रकारिता का उनका व्यापक अनुभव राज्यसभा के सुगम संचालन में कितना काम आएगा, लेकिन यह अच्छा है कि उन्हें अपनी चुनौतियों का भान है। प्रधानमंत्री ने उनकी चुनौतियों का उल्लेख यह कहकर किया कि उपसभापति के रूप में उनकी भूमिका अंपायर की होगी। यह अच्छा संकेत है कि उन्हें उनके प्रतिद्वंद्वी बीके हरिप्रसाद और कांग्रेस के वरिष्ठ नेता गुलाम नबी आजाद के साथ-साथ अन्य विपक्षी नेताओं ने भी बधाई दी।

राज्यसभा उपसभापति के चुनाव में भाजपा को इसलिए कहीं अधिक आसानी हुई, क्योंकि जहां अन्नाद्रमुक, टीआरएस और बीजद ने सत्तापक्ष का साथ दिया वहीं विपक्ष और खासकर कांग्रेस के रणनीतिकार पीडीपी और आम आदमी पार्टी का समर्थन नहीं हासिल कर सके। अन्नाद्रमुक, टीआरएस और बीजद ने हरिवंश की जीत में सहायक बनकर यह संकेत भी दिया कि आने वाले दिनों और खासकर लोकसभा चुनाव के दौरान या उसके बाद राजग का कुनबा बढ़ सकता है।

ध्यान रहे पिछले दिनों टीआरएस प्रमुख और तेलंगाना के मुख्यमंत्री के चंद्रशेखर राव यह संकेत दे चुके हैैं कि वह महागठबंधन के बजाय राजग के साथ जा सकते हैैं। राज्यसभा उपसभापति चुनाव में विपक्ष के प्रत्याशी बीके हरिप्रसाद की हार कांग्रेस के लिए इसलिए कहीं बड़ा झटका है, क्योंकि बीते कुछ समय से वह भाजपा के खिलाफ बनने वाले महागठबंधन का नेतृत्व करती दिख रही है।

कर्नाटक में पराजय के बाद भाजपा को सत्ता में आने से रोकने के लिए जद-एस को समर्थन देने के बाद कांग्रेस 2019 में मोदी की राह रोकने के लिए विपक्ष को एकजुट करने की कोशिश में है। इसके लिए राहुल गांधी भी सक्रिय हैैं और सोनिया गांधी भी। नि:संदेह राहुल गांधी राष्ट्रीय नेता हैं, लेकिन इसलिए नहीं कि कांग्रेस की पहचान देश के सबसे पुराने राष्ट्रीय दल के रूप में है। ऐसा इसलिए अधिक है, क्योंकि वह गांधी परिवार के सदस्य के तौर पर अपनी पार्टी के अध्यक्ष हैं।

इसकी अनदेखी नहीं की जा सकती कि राज्यसभा उपसभापति के चुनाव में अपने प्रत्याशी की हार के लिए राहुल गांधी की रणनीति को ही ज्यादा जिम्मेदार माना जा रहा है। इस पर आश्चर्य नहीं कि इस हार को व्यक्तिगत तौर पर उनके लिए कहीं ज्यादा बड़े झटके के तौर पर देखा गया। बहुत दिन नहीं हुए जब कांग्रेस ने पीएम पद के लिए राहुल की दावेदारी वापस ले ली थी। उसे ऐसा इसलिए करना पड़ा था, क्योंकि राहुल की यह दावेदारी विपक्षी एकजुटता में बाधक बन रही थी।

राज्यसभा उपसभापति चुनाव नतीजे से यह साफ है कि सभी विपक्षी दल कांग्रेस का नेतृत्व स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं। कई दल तो ऐसे हैैं जो इसके स्पष्ट संकेत भी दे रहे हैैं। जहां ममता बनर्जी खुद पीएम पद के लिए दावेदारी पेश करती दिख रही हैैं वहीं बसपा प्रमुख मायावती मध्यप्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ में अपनी शर्तों पर ही कांग्रेस से समझौता करना चाह रही हैं। बसपा के अलावा रालोद के साथ अपना तालमेल पक्का कर रहे सपा नेता अखिलेश ने भी यह कहकर कांग्रेस की मुसीबत बढ़ाई है कि उत्तर प्रदेश में आगामी लोकसभा चुनाव में कांग्रेस ज्यादा सीटों पर लड़ने की दावेदार नहीं। उनका यह भी मानना है कि उत्तर प्रदेश में कांग्रेस सबसे कमजोर कड़ी है और यहां उसका कोई नेता ही नहीं। यह एक हद तक सही भी है।

हालांकि क्षेत्रीय दलों के नेताओं के ऐसे बयानों के बाद भी यह तय है कि कांग्रेस राजग के खिलाफ महागठबंधन बनाने की कोशिश जारी रखेगी, लेकिन वह यह देखे तो बेहतर कि क्षेत्रीय दलों के पीछे खड़े होने से उसकी ताकत बढ़ नहीं रही और कई राज्य ऐसे हैैं जहां वह तीसरे-चौथे नंबर का दल बनकर रह गई है।

[ लेखक दैनिक जागरण के प्रधान संपादक हैं ]