[ प्रदीप सिंह ]: पिछले दो दिनों में दो ऐसी खबरें आई हैं जो मौजूदा राजनीतिक स्थिति और साल 2019 के लोकसभा चुनाव के राजनीतिक समीकरणों और चुनौतियों का संकेत देती हैं। पहली खबर तमिलनाडु से है। तमिल फिल्मों के सुपर स्टार रजनीकांत के मुताबिक ‘यदि एक व्यक्ति से मुकाबले के लिए दस लोग एक हो रहे हों तो अंदाजा लगा लीजिए कि ताकतवर कौन है?’ रजनीकांत की यह टिप्पणी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के खिलाफ संभावित महागठबंधन की तैयारियों पर थी। दूसरी खबर एक अंग्रेजी समाचार वेबसाइट की है। जिसमें कांग्रेस के सूत्रों के हवाले से कहा गया है कि पार्टी में बहुत से ऐसे लोग हैं जिनका मानना है कि राहुल गांधी को प्रधानमंत्री के रूप में पेश करने की बजाय दूसरे मनमोहन सिंह की तलाश करना चाहिए। दूसरे मनमोहन सिंह की खोज से जो नाम उभर कर आया वह रिजर्व बैंक के पूर्व गवर्नर रघुराम राजन का है। इन दोनों खबर से कई निष्कर्ष निकाले जा सकते हैं। रजनीकांत ने जो कहा वह संकेत है कि वे मोदी को उनके प्रतिद्वंद्वियों से ज्यादा ताकतवर समझते हैं। यह भी कि उन्हें मोदी से कोई परहेज नहीं है।

यह बात स्पष्ट है कि विपक्षी दलों को लगता है कि इकट्ठा हुए बिना वे मोदी और भाजपा को चुनौती नहीं दे सकते। जीत-हार तो बाद में पहले मोदी को चुनौती तो मिले। आज की स्थिति की बात करें तो मोदी के पक्ष में टीना (कोई विकल्प नहीं) फैक्टर काम करता नजर आ रहा है। विपक्ष की पहली समस्या मोदी के मुकाबले का विकल्प खड़ा करने की है, जो कम से कम लड़ता हुआ तो दिखे।

कांग्रेस में रघुराम राजन के नाम के बारे में चर्चा से जाहिर होता है कि मौजूदा राजनीतिक दलों में ऐसा कोई नेता नहीं है जो विपक्षी चुनौती का नेतृत्व कर सके। इतिहासकार रामचंद्र गुहा ने करीब साल भर पहले सुझाव दिया था कि कांग्रेस को चाहिए कि बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार को कांग्रेस में शामिल करके उन्हें प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित कर दे। वंशवादी राजनीति पर चलने वाली पार्टी में न तो ऐसा संभव है और न ही हो पाया। नीतीश कुमार अब राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन के साथ हैं। विपक्ष में नेतृत्व की कमी ऐसी कमी पहले कभी नहीं रही है।

देश के पहले प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू के खिलाफ एक से एक दिग्गज नेता थे परंतु उस समय देश में नेहरू की लोकप्रियता और विश्वसनीयता के सामने कोई टिकता नहीं था। 1967 में जब कांग्रेस थोड़ा कमजोर हुई तो विपक्ष को लगा कि उसके लिए मौका है। करीब दस राज्यों में संयुक्त विधायक दल की सरकारें बन गईं। ये सरकारें कांग्रेस विधायक दल को तोड़कर बनी थीं इसलिए ज्यादा समय तक टिकी नहीं। 1969 में कांग्रेस में विभाजन हो गया। कांग्रेस सिंडीकेट और इंडीकेट, दो धड़ों में बट गई। साल 1971 में इंदिरा गांधी ने मध्यावधि चुनाव की घोषणा की तो विपक्षी दलों को लगा कि सब एक होकर लड़ें तो कांग्रेस को हराने का सबसे अच्छा मौका है। उस समय भी कई कद्दावर राष्ट्रीय नेताओं के होने के बावजूद विपक्ष ने प्रधानमंत्री पद के लिए किसी का नाम पेश नहीं किया। कहा गया कि चुनाव के बाद तय कर लेंगे। विपक्ष के गठबंधन को ‘ग्रैंड एलायंस’ का नाम दिया गया, लेकिन चुनाव नतीजा आया तो इंदिरा गांधी भारी बहुमत से जीतीं।

1977 में इमरजेंसी के खिलाफ गुस्सा और जयप्रकाश नारायण के प्रभाव के कारण विपक्षी दल मिले परंतु उनके दिल नहीं मिले। नतीजा यह हुआ कि 1979 में पहले पार्टी टूटी फिर सरकार गई। उसके बाद कांग्रेस के इस वर्चस्व को वीपी सिंह के नेतृत्व में विपक्ष ने 1989 में तोड़ा। विपक्ष में बड़े-बड़े नेता होने के बावजूद उसे कांग्रेस को हराने के लिए एक बागी कांग्रेसी की जरूरत पड़ी। उस दौरान जार्ज फर्नांडीज से पूछा गया कि वीपी सिंह न होते तो आप लोग क्या करते? जार्ज का जवाब था कि वीपी सिंह न होते तो हमें एक वीपी सिंह का आविष्कार करना पड़ता, लेकिन वीपी सिंह की अति महत्वाकांक्षा उन्हें ही नहीं पूरे जनता दल और उसकी सरकार को ले डूबी। सरकार 11 महीने में भूतपूर्व हो गई। उसके बाद से राष्ट्रीय राजनीति में गठबंधन की राजनीति का दौर शुरू हो गया। पहले न-नुकुर करने के बाद कांग्रेस को भी समझ में आ गया कि गठबंधन मजबूरी भी है और जरूरी भी। 1984 के बाद 2014 में पहली बार किसी पार्टी को लोकसभा में स्पष्ट बहुमत मिला। नरेंद्र मोदी उसके अगुआ थे।

अब लौटकर वर्तमान में आते हैं। आज की राजनीतिक परिस्थिति काफी कुछ 1971 से मेल खाती है। तब इंदिरा गांधी के खिलाफ महागठबंधन बना था अब नरेंद्र मोदी के खिलाफ बनाने की तैयारी है, लेकिन दोनों परिस्थितियों में कई अंतर भी हैं। उस समय कांग्रेस दो फाड़ हो चुकी थी। जबकि भारतीय जनता पार्टी सांगठनिक और जनाधार की दृष्टि से इतनी ताकतवर कभी नहीं थी। अब आप इस पर बहस कर सकते हैं कि मोदी की लोकप्रियता और विश्वसनीयता नेहरू जैसी (बहुत से लोगों को यह तुलना बुरी लगेगी) है या इंदिरा गांधी जैसी, लेकिन एक बात तो निर्विवाद रूप से कही जा सकती है कि 2019 में मोदी की लोकप्रियता और विश्वसनीयता के मुकाबले खड़ा हो सकने वाला कोई नेता नहीं है। इसके साथ ही यह बात भी सही है कि लोकप्रिय नेता भी चुनाव हारते हैं। इसके लिए जरूरी है एक विश्वसनीय नेतृत्व, संगठन और वैकल्पिक विमर्श। 2014 में मोदी इन तीनों खूबियों के साथ चुनाव मैदान में थे। अगर ये तीनों चीजें न हों तो भी लोकप्रिय नेता को हराया जा सकता है परंंतु ऐसी जीत केवल जन आंदोलन की कोख से पैदा होती है।

मोदी और भाजपा के विरोध में बनने वाले गठबंधन की सबसे बड़ी कमी यह है कि उसके पास क्षेत्रीय स्तर के तो कद्दावर नेता हैं, लेकिन राष्ट्रीय कद का कोई नेता नहीं है। दूसरी कमजोरी यह है कि कांग्रेस के अलावा किसी पार्टी का अपने प्रदेश के बाहर कोई ऐसा जनाधार नहीं जिससे बाजी पलटने की बात छोड़िए, लड़ाई में भी ला सके। यह कांग्रेसी जानें कि राहुल गांधी कांग्रेस की ताकत हैं या कमजोरी, लेकिन कांग्रेस से बाहर उन्हें कोई नेता मानने को तैयार नहीं है। तीसरी कमजोरी यह है कि ममता बनर्जी और शरद पवार के हाथ खींचने के बाद चंद्र बाबू नायडू विपक्षी एकता के सूत्रधार बनना चाहते हैं।

22 नवंबर को उन्होंने दिल्ली में गैर भाजपा दलों के नेताओं की बैठक बुलाई है। नायडू 1990 के दशक में धर्मनिरपेक्ष राजनीति के पुरोधा माने जाते थे। दो बार भाजपा का हाथ थामने और छोड़ने के बाद अब वह अवसरवादी राजनीति के पुरोधा बन गए हैं। तब वह राजनीति के क्षितिज पर चढ़ते हुए सितारे थे। आज उनका सूरज डूब रहा है। जो खुद रोशनी की तलाश कर रहा है वह दूसरों को रोशनी क्या दिखाएगा? मान लीजिए कि विपक्षी दल एक हो भी गए तो 1977 और 1989 वाला सवाल फिर रहेगा कि दल तो मिले हैं, लेकिन दिल मिल रहे हैं क्या?

[ लेखक राजनीतिक विश्लेषक एवं वरिष्ठ स्तंभकार हैैं ]