रिजवान अंसारी। राजस्थान के कोटा के जेके लोन अस्पताल में 100 से ज्यादा नवजात की मौत ने पूरे देश को हिलाकर रख दिया है। इन मौतों के बाद अशोक गहलोत सरकार कटघरे में आ गई है। कहने की जरूरत नहीं कि देश में हर बीमारी का इलाज मौजूद है और बच्चों को बचाया भी जाता है, लेकिन इस अस्पताल में बच्चों की मौत के लिए बीमारी से ज्यादा वहां की बदइंतजामी जिम्मेदार है। नेशनल कमिशन फॉर प्रॉटेक्शन ऑफ चाइल्ड राइट्स द्वारा अस्पताल का दौरा करने पर पाया गया कि अस्पताल की खिड़कियों में शीशे नहीं हैं और दरवाजे टूटे हुए हैं। दूसरी ओर अस्पताल का रखरखाव भी सही नहीं पाया गया। शर्मनाक बात तो यह है कि अस्पताल परिसर में सुअर घूम रहे थे। जाहिर है अस्पताल की इन बदइंतजामियों की बच्चों की मृत्यु में बहुत बड़ी भूमिका है।

इन सबसे ज्यादा जिम्मेदार वहां का शासन-प्रशासन है जिसकी जवाबदेही अभी तक तय नहीं हो सकी है। सबसे शर्मनाक यह है कि नौनिहालों की मौत पर जमकर राजनीति हो रही है। मुख्यमंत्री अशोक गहलोत का असंवेदनशील बयान हैरान कर देने वाला है। उनके मुताबिक बच्चों की मौत का यह आंकड़ा सामान्य है। गौरतलब है कि यह वही अशोक गहलोत हैं जिन्होंने उत्तर प्रदेश के गोरखपुर अस्पताल में दो साल पहले बच्चों की मौत को वहां के सिस्टम की नाकामी का नतीजा बताया था। यह वही अशोक गहलोत हैं जो सूबे में बेहतर स्वास्थ्य सुविधा के वादे के साथ सत्ता तक पहुंचे हैं, लेकिन इस पूरे घटनाक्रम के बाद उनका रवैया हैरान कर देने वाला है। इससे पता चलता है कि सत्ता मिल जाने के बाद सियासतदानों के तेवर किस कदर बदल जाते हैं।

 

राजस्थान में स्वास्थ्य स्थिति का जायजा लें तो 2018 में राज्य सरकार द्वारा विधानसभा में दी गई जानकारी के मुताबिक 20 फीसद बच्चों का वजन कम या बहुत कम है। वर्ष 2015 में यह आंकड़ा लगभग 25 फीसद था। राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण 2015-16 के अनुसार राजस्थान में पांच साल से कम आयु के 35.7 फीसद बच्चों का वजन कम पाया गया और 38.4 फीसद बच्चे कुपोषित थे। इन सबसे अहम यह कि पिछले ही साल जून में नीति आयोग द्वारा जारी स्वास्थ्य सूचकांक में 21 राज्यों में राजस्थान को 16वां स्थान मिला था। इससे इतर राजस्थान में शिशु मृत्यु दर राष्ट्रीय औसत से कहीं ज्यादा है। वहां प्रति हजार 38 बच्चे अपनी जान गंवा देते हैं, जो कि राष्ट्रीय औसत 33 से अधिक है। देश के कुल शिशु मृत्यु में राजस्थान का हिस्सा आठ फीसद है। यूनिसेफ द्वारा जारी ‘एवरी चाइल्ड अलाइव रिपोर्ट’ के मुताबिक देश में प्रत्येक वर्ष जन्म लेने वाले 26 लाख बच्चे एक महीने की जिंदगी भी नहीं जी पाते हैं। इन 26 लाख बच्चों में दस लाख बच्चे तो ऐसे हैं जो जन्म लेने के दिन ही अपनी जान गंवा देते हैं।

राजस्थान में एक सरकारी एलोपैथिक डॉक्टर पर औसतन 10,976 लोगों के उपचार का भार है, जबकि विश्व स्वास्थ्य संगठन के मानक के अनुसार यह अनुपात प्रति डॉक्टर एक हजार लोग होना चाहिए। एक संसदीय समिति की रिपोर्ट के मुताबिक भारत में दस हजार की आबादी पर केवल पांच डॉक्टर ही उपलब्ध हैं, जबकि नॉर्वे में प्रति दस हजार लोगों पर 218 डॉक्टर हैं, वहीं ब्राजील में 93 हैं। भारत के अस्पतालों में मरीजों के लिए उपलब्ध बेडों की संख्या भी संतोषजनक नहीं है। प्रति हजार लोगों पर ब्राजील में जहां बेडों की संख्या 2.3 है, वहीं पड़ोसी देश श्रीलंका में 3.6 हैं, जबकि भारत में बेडों की उपलब्धता केवल 0.7 है। लिहाजा डॉक्टर, नर्स और बेड की बात करें तो आबादी के लिहाज से इनकी संख्या बेहद कम है। एक अध्ययन के अनुसार भारत के अस्पतालों में चार लाख डॉक्टर, 40 लाख नर्स और 7 लाख बिस्तरों की कमी है। एक रिपोर्ट के मुताबिक देश में बच्चों के डॉक्टर की संख्या मात्र 25 हजार है, जबकि जरूरत दो लाख से ज्यादा की है। विडंबना तो यह है कि आर्थिक समीक्षा में राजस्थान के 70 फीसद प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों में सिर्फ एक डॉक्टर होना दर्ज है, जबकि देश भर में ऐसे केंद्रों की संख्या 15 हजार है। देशभर में 1500 ऐसे भी प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र हैं, जहां एक भी डॉक्टर की उपलब्धता नहीं है।

यह तो हो गई अस्पतालों में इंतजाम की कमी की बात, लेकिन मंतरी-संतरी के उन शर्मनाक तर्को का क्या जो वे इन दुखदायी घटनाओं पर दे रहे हैं? मुख्यमंत्री अशोक गहलोत का यह कहना कि भाजपा सरकार में हर साल एक हजार बच्चे मरते थे, लेकिन हमारी सरकार में 900 मरे हैं, यकीनन एक ओछा बयान है। क्या हमारे सियासी दल और उसके अगुआ अब बच्चों की मौत पर भी प्रतियोगिता करेंगे? इससे पहले बेटियों के साथ दुष्कर्म पर भी ऐसा ही घटिया तर्क दिया जा चुका है। यकीनन इससे नेताओं की मानसिकता का पता चलता है कि वे देश की जनता की भावनाओं के साथ किस कदर खिलवाड़ करने को हमेशा आतुर रहते हैं। इससे पता चलता है कि वे देश के विकास के लिए कितने गंभीर हैं।

समझना होगा कि एक भी बच्चे की मृत्यु हमारे सामने एक बहुत बड़ी चुनौती है और यह बच्चों के जीने के संवैधानिक हक के खिलाफ है। यकीनन नीति-नियंताओं को अपनी ‘राजनीतिक इच्छाशक्ति’ को और भी प्रबल बनाने की जरूरत है, लेकिन सवाल है कि क्या निहित स्वार्थो के नक्कारखाने में यह आवाज सुनी जाएगी?

(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं)

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