[ गोपाल कृष्ण गांधी ]: कच्चा प्याज अगर चार टुकड़ों में छुरी से काटा या हथेली से तोड़ा जाए तो नमक-मिर्च के साथ रोटी का जो संग करता है, उसका क्या बयान करें! रूखी-सूखी हो रोटी या फिर गरम फुल्का, बाजरे के आटे के साथ मिले गेहूं के आटे से बनी हो या फिर मकई की हो, प्याज अगर उसको मिल जाए तो वाह...रोटी रोटी न रहकर कुछ और ही बन जाती है। वह एक पकवान नहीं, अनुभव बन जाती है। गेहूं में धरती की महक होती है, प्याज में जड़ी-बूटियों का सार। दोनों का मिश्रण खेती और बागवानी का पूरक बन जाता है और फिर उन पर नमक का छिड़काव...आह, कृषि पर खनिज की इनायत। ऊपर से लाल मिर्च की झीनी परत, आह-आह, इनायत पर मेहरबानी।

प्याज सबका दोस्त और हर थाली का बंधु होता है

अगर प्याज को सिरका मिल जाए तो फिर बात ही कुछ और हो जाती है। प्याज पर एक लालिमा आ जाती है, जैसे उसको कुछ शरम लगी हो खुद की खूबियों पर। और फिर वह कुछ नर्म होकर जल्द रोटी का स्पर्श चाहता है। प्याज पकने पर भी हर पकवान की जान बन जाता है। गरीब की रसोई में कच्चा-रूप, रईस की रसोई में पका हुआ प्याज। यानी प्याज सबका दोस्त है, हर थाली का बंधु। प्याज हर इंसान की जेब के अनुकूल होता है। उसे सस्ता भोजन कहा जा सकता है, लेकिन...सामान्य दिनों में।

प्याज के संकट का राजनीतिक प्रभाव

तब नहीं (जैसे अब) जब प्याज का दाम उछलता-कूदता आसमान तक पहुंच जाता है। असामयिक और भीषण वर्षा की वजह से खासकर कर्नाटक, महाराष्ट्र और गुजरात में जहां प्याज का भारी उत्पादन है, वहां उसकी उपज को इंतहा नुकसान पहुंचा है। यह संकट बार-बार आता है। 2013 में प्याज-समस्या आई थी। राजनीति परखने वाले कहेंगे, उस संकट का असर 2014 के चुनाव पर पड़ा था।

प्याज संकट बना मोदी सरकार के लिए चुनौती

मुझे यकीन है कि इस बार सरकार संकट को काबू में ले आएगी। हालांकि चुनौती जटिल है। ऐसे समय में हमारा, प्याज-रसिकों का, कर्तव्य क्या बनता है? प्याज के दाम जब तक सामान्य न हो जाएं, तब तक क्या हम प्याज से दूर रहें? नहीं! कम मात्रा में सही, अपनी आर्थिक क्षमता के मुताबिक, थोड़ा-बहुत प्याज अपनी रसोई में लाते रहें, प्याज-संस्कृति के, प्याज दुकानदार के और प्याज किसान के हित में। गलती उन दोनों की नहीं है। गलती मौसम की बेपरवाही की है। एक और जरूरी बात।

दास्तान-ए-प्याज के चार हिस्से- आसमान, किसान, दुकान, पकवान

प्याज के जमाखोरों को अपने किए का फायदा नहीं मिलने देना चाहिए। प्याज के दाम का न्यायपूर्ण हिस्सा प्याज किसान को जाना चाहिए। दास्तान-ए-प्याज के चार हिस्से हैं- आसमान, किसान, दुकान, पकवान। जब आसमान मेहरबान न हो और बारिश कम हो या फिर असामयिक या बहुत हो जाए तो यह नाजुक फसल बेकार हो जाती है, किसान लाचार हो जाता है, दुकान मायूस हो जाती है और पकवान फीके पड़ जाते हैं।

गरीब की थाली से दूर होता जा रहा प्याज

प्याज की मुसीबतें आज खबरों में हैं। समाधान नहीं मिल रहा, पर आज नहीं तो कल, मिलेगा जरूर। प्याज हमसे इतना जुड़ जो गया है। इस बीच में वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने कह दिया कि वह प्याज नहीं खातीं, न ही उनका परिवार। उनके कथन की आलोचना हुई है। उनके कथन में आहार का गर्व देखा गया। अपने खुद के और प्याज के रिश्ते के बारे में वह खामोश रहकर प्याज संकट पर मात्र अपना बयान रखतीं तो इस आलोचना से बची रहतीं। खैर! यह घटना भी प्याज संकट का एक हिस्सा है, लेकिन उससे दो सबक सीखने को मिलते हैं। हर एक की अपनी आहार-प्रणाली होती है।

प्याज-प्रियता पर मजाक उचित नहीं

हर एक की अपनी आहार पसंदगी-नापसंदगी होती है। हर एक को यह मुबारक। उनको लेकर हंसना या हंसी करना शोभनीय नहीं। जैन कंद-मूल नहीं खाते। प्याज ही नहीं, आलू, शलजम, चुकंदर भी नहीं। उनका मानना है कि जब यह पौधे जमीन से उखाड़े जाते हैं तब छोटे जीव-जंतुओं को हानि पहुंचती है। इतना ही नहीं, वे यह भी मानते हैं कि प्याज एक कली होने के नाते, उखाड़े जाने पर भी जीवित रहता है। इस विचार को हमें आदर भाव से लेना चाहिए। अगर किसी की प्याज-प्रियता पर मजाक उचित नहीं तो फिर वैसे ही किसी और की प्याज-अप्रियता का भी अपना स्थान है।

प्याज भारत की खुशहाली और उसकी गरीबी, दोनों का परिचायक

प्याज की किल्लत, उसकी कीमत, उसकी महक, उसका स्वाद, उसका दाम, उसकी चाहत, उसकी नापसंदगी, उसका परहेज, उसके निषेध, उसकी परंपराएं भारत के बहु-आयामी स्वरूप की परिचायक हैं। प्याज भारत की खुशहाली और उसकी गरीबी, दोनों का परिचायक है। प्याज दरअसल एक साज है, उसमें नाज न भी हो, हमें उसके चरित्र का अहसास होना चाहिए।

( लेखक पूर्व राजनयिक एवं राज्यपाल हैं )