[ क्लॉड अर्पी ]: किसी रक्षा विशेषज्ञ से पूछेंगे कि राफेल में आखिर क्या खामी है तो जवाब यही मिलेगा कि इसमें कोई गड़बड़ नहीं है। दोष है तो राजनीति का जिसमें सब कुछ यहां तक कि झूठ भी जायज है। दुर्भाग्यवश राफेल लड़ाकू विमान भारत की चुनावी राजनीति के भंवर में फंस गया है। क्या भारत अपनी रक्षा जरूरतों के लिए सोवियत शैली वाले निस्तेज सार्वजनिक उपक्रमों पर ही भरोसा करता रहे या फिर दमदार निजी क्षेत्र की भागीदारी वाले मिश्रित ढांचे को अपनाए जो ‘मेक इन इंडिया’ के लक्ष्यों को भी पूरा करने में मददगार होगा? इस बहस ने देश के समक्ष एक अहम प्रश्न खड़ा किया है। इसे समझने के लिए कैलेंडर को कुछ पीछे पलटना पड़ेगा। संप्रग सरकार ने भारतीय रक्षा खरीद के लिए बेहद जटिल ढांचा बना दिया था।

मोदी सरकार में रक्षा मंत्री रहे मनोहर पर्रीकर ने कहा था कि खुद उनके लिए इसके कुछ पहलुओं को समझना मुश्किल था। आज इसकी तपिश वायुसेना महसूस कर रही है। उसके स्क्वाड्रन तेजी से घट रहे हैं और उनमें पर्याप्त बढ़ोतरी अटकी हुई है। इसने एक ऐसे देश के समक्ष सुरक्षा के मोर्चे पर बड़ा खतरा उत्पन्न कर दिया है जो चीन और पाकिस्तान जैसे पड़ोसियों के चलते दोहरी चुनौती से जूझ रहा है। अफसोस है कि आज अधिकांश नेताओं को देश की कोई परवाह ही नहीं। चूंकि देश में जल्द ही चुनाव होने हैं इसलिए राफेल सौदे को लेकर सियासी रस्साकशी जारी है। इस ‘सौदे’ के सफर पर गौर करें तो पाएंगे कि 126 मीडियम मल्टी रोल कॉम्बैट एयरक्राफ्ट यानी एमएमआरसीए की जरूरत को लेकर 2001 में एक पत्रक जारी हुआ, मगर इसके लिए अभिरुचि पत्र 2007 में जाकर प्रकाशित हुआ। इसके बाद ‘जटिलताओं’ ने दस्तक दी और पांच साल बाद यह प्रक्रिया जनवरी 2012 में पूरी हुई।

आखिरकार अमेरिका के एफ-16 और एफ-ए-18, रूसी मिग 35, यूरोपियन यूरोफाइटर, स्वीडिश साब ग्र्रिपेन को छोड़कर दासौ निर्मित राफेल को चुना गया। इस तरह राफेल विमानों की आपूर्ति के लिए दासौ के चयन में 11 साल लग गए। दुनिया में इतना जटिल रक्षा खरीद तंत्र वाला भारत इकलौता देश है। इसकी तुलना में मिस्न को 2015 में 24 राफेल विमान खरीदने में केवल तीन महीने लगे। जिन 126 राफेल विमानों की खरीद पर सहमति बनी उनमें से 18 दासौ द्वारा फ्रांस में बनाए जाने थे। शेष 108 तकनीकी हस्तांतरण के तहत भारत में एचएएल द्वारा तैयार किए जाने थे। बीते कुछ दिनों से हम जिस ‘अनिवार्य’ ऑफसेट प्रावधान को लेकर सरकार पर ‘चोर’ होने का आरोप सुन रहे हैं उसे मोदी सरकार ने नहीं, बल्कि संप्रग सरकार ने ही रक्षा खरीद नीति में जोड़ा था। इसमें विदेशी कंपनी के लिए यह अनिवार्य कर दिया गया था कि वह भारत से किए गए सौदे की रकम का एक निश्चित हिस्सा भारत में ही निवेश करेगी।

फरवरी 2013 में बेंगलुरु में एक रक्षा आयोजन के दौरान जब यह चर्चा हुई कि भारत में 108 राफेल विमान बनाने के लिए दासौ ने रिलायंस इंडस्ट्रीज से साझेदारी की है तो तत्कालीन रक्षा मंत्री एके एंटनी ने स्पष्ट किया कि रक्षा क्षेत्र में वह किसी भी निजी कंपनी की भागीदारी नहीं चाहते। तब यही लगा कि रक्षा मंत्री अभी भी सोवियत दौर में जी रहे हैं जिसमें रक्षा उद्योग पर सरकार का ही नियंत्रण होना चाहिए। यदि बोइंग, दासौ, लॉकहीड मार्टिन, साब और थेल्स अपने-अपने देशों के हितों की पूर्ति कर सकती हैं तो भी फिर भारत में टाटा या रिलायंस या कोई अन्य कंपनी ऐसा क्यों नहीं कर सकती?

रिलायंस और दासौ के बीच साझेदारी नरेंद्र मोदी के सत्ता में आने से पहले की बात है। पहले यह अनुबंध मुकेश अंबानी के साथ हो रहा था, लेकिन बाद में अनिल अंबानी के साथ हुआ। तमाम कारणों से एमएमआरसीए प्रारूप कारगर नहीं था और कांग्रेस यह जानती थी। दासौ और एचएएल के बीच असहमतियां बढ़ती गईं। तकनीकी हस्तांतरण पर भी पेंच फंस गया, क्योंकि दासौ एचएएल द्वारा भारत में बनाए जाने वाले 108 राफेल विमानों की ‘पूरी जिम्मेदारी’ लेने को तैयार नहीं थी। मामला अधर में लटक गया, लेकिन पीएम मोदी के दखल से गतिरोध दूर हुआ। 9 अप्रैल, 2015 को भारत ने एलान किया कि वह सीधे तौर पर ही 36 विमान खरीदने के लिए तैयार है। यह बहुत व्यावहारिक कदम था। यह कदम इसलिए उठाया गया ताकि वायु सेना की परिचालन संबंधी आवश्यकताओं को पूरा किया जा सके।

कुछ साल पहले एचएएल के पूर्व चेयरमैन ने मुझे बताया था कि ‘एचएएल बेहद एकीकृत कंपनी है। यहां छोटी से छोटी चीज से लेकर विमान के इंजन तक बनाए जाते हैं। दुनिया में कोई और कंपनी ऐसा नहीं करती। यहां तक कि बोइंग विमानों का 60 से 70 फीसद हिस्सा दूसरे वेंडरों द्वारा तैयार होता है। जगुआर के लिए जब मैं इंजन फ्यूल पंप पुर्जों के लिए कोशिश कर रहा था तो यह क्षमताओं के पैमाने पर हमारे लिए संभव नहीं हुआ।’ उनका यह भी कहना था कि ‘हमारी दिलचस्पी केवल स्वदेशीकरण में है, लेकिन उच्च तकनीक वाले उत्पादों के मामले में यह लक्ष्य बहुत मुश्किल है।’ ऐसे में एचएएल में 108 राफेल विमान तैयार करना किसी दु:स्वप्न से कम नहीं होता। यह एक लंबी खिंचने वाली कष्टदायी कवायद होती। इसे देखते हुए ही मोदी ने समझदारी भरा फैसला लिया। भले ही यह उनकी महत्वाकांक्षी ‘मेक इन इंडिया’ मुहिम के लिए अस्थाई रूप से झटका हो।

विमानन विशेषज्ञ मार्शल बीके पांडेय बताते हैैं कि दासौ को एचएएल के गुणवत्ता मानकों को लेकर भरोसा नहीं था। वह ऐसी कंपनी के साथ साझेदारी कर अपनी प्रतिष्ठा दांव पर लगाने का जोखिम नहीं ले सकती थी जो समय सीमा को लेकर प्रतिबद्ध न हो। साफ है कि मामले को पूरी तरह समझे बिना और साक्ष्यों के अभाव में कांग्र्रेस रोजाना ‘चोर-चोर’ का शोर मचा रही है। इससे एक गंभीर प्रश्न खड़ा होता है कि क्या राष्ट्रीय सुरक्षा के अहम मसलों की ऐसी छीछालेदर की जा सकती है? लगता है कि चुनावों के लिए राष्ट्रीय हितों की तिलांजलि दी जा सकती है। मौजूदा स्थिति चीन और पाकिस्तान को मुस्कराने का अवसर ही दे रही होगी। अफसोस इसका है कि राफेल विवाद भविष्य के रक्षा सौदों पर भी ग्र्रहण लगा सकता है। भारत ने अप्रैल में 114 नए जेट खरीदने की प्रक्रिया शुरू की है जिसमें कुछ विमान राफेल की ही तरह सीधे खरीदे जाएंगे और शेष नई ‘रणनीतिक साझेदारी’ के तहत विदेशी कंपनी और भारतीय साझेदार द्वारा संयुक्त उपक्रम के जरिये भारत में बनाए जाएंगे। कहीं राफेल सौदे पर मची रार इस सौदे पर भी ग्र्रहण न लगा दे?

राफेल मामले में इस तथ्य की भी अनदेखी की जा रही है कि फ्रांस भारत का सबसे भरोसेमंद साझेदार रहा है। पोखरण परमाणु परीक्षण के समय वह तब भारत के साथ खड़ा रहा जब दूसरे उसे निशाना बना रहे थे। राफेल विवाद के चलते नुकसान भारत की रक्षा तैयारियों और वायु सेना को ही होगा। कभी-कभी मुझे इस पर संदेह होता है कि लोकतंत्र अच्छी व्यवस्था है भी या नहीं? जो भी हो, मौजूदा कांग्रेस अध्यक्ष के परनाना लोकतंत्र की ऐसी गत देखकर जरूर दुखी होते।

[ लेखक रक्षा एवं सामरिक मामलों के विशेषज्ञ हैं ]