अभिषेक कुमार सिंह। उत्तर प्रदेश के प्रयागराज में इलाहाबाद विश्वविद्यालय की कुलपति प्रो. संगीता श्रीवास्तव ने जिलाधिकारी को पत्र लिखकर उनके घर की तरफ नजदीकी मस्जिद से सुबह होने वाली अजान से नींद टूटने की समस्या का उल्लेख किया तो इस पर एक सकारात्मक जवाब मस्जिद की ओर से आया। प्रयागराज के कानपुर रोड स्थित लाल मस्जिद के मुतवल्ली रहमान ने कुलपति की परेशानी का समाधान करते हुए उनकी ओर के लाउडस्पीकर की दिशा बदल दी और आवाज भी 50 फीसद घटा दी।

आम तौर पर ऐसे मामलों में अक्सर तीखी धार्मिक प्रतिक्रिया होती रही है और शोर को समस्या न मानकर उन मांगों को मजहबी रंग दिया जाता रहा है। यह अच्छा है कि इस बार ऐसा कुछ नहीं हुआ, लेकिन यह मामला अजान तक नहीं रुकना चाहिए। हर किस्म के धार्मिक जुलूसों के मामलों में भी यह होना चाहिए। शोर या कहें कि ध्वनि प्रदूषण हमारे देश में कितनी बड़ी समस्या है, इस पर हमारी नजर इसलिए नहीं जाती है, क्योंकि हममें से ज्यादातर भारतीय इसके आदी हो चुके हैं। उन्हें यह स्वाभाविक लगता है। इसमें हर किस्म का शोर शामिल है। जैसे-सार्वजनिक जगहों पर तेज म्यूजिक बजाना, सड़कों पर वाहनों के हॉर्न बेवजह बजाना, अस्पतालों से लेकर लाइब्रेरी तक में लोगों को तेज आवाज में बातें करते देखना और कुछ न हो सके तो लाउडस्पीकर लगाकर तेज आवाज में धार्मिक आह्वान करना।

पहले भी उठ चुकी है आवाज : करीब चार साल पहले 2017 में बॉलीवुड के मशहूर गायक सोनू निगम ने भी कुछ ऐसी ही बातें अपने ट्विटर अकाउंट पर लिखी थीं, लेकिन तब देखते ही देखते उन्हें तमाम धर्मगुरुओं ने उनके विवादित बयानों के लिए घेर लिया था। सोनू निगम ने लिखा था- मस्जिदों में रोज सुबह अजान के रूप में होने वाले शोर से हर रोज उनकी नींद खराब होती है। हालांकि उन्होंने यह भी साफ किया था कि उन्हें मंदिरों और गुरुद्वारों में तेज आवाज में भक्ति गीत-संगीत बजाकर लोगों की सुबह की नींद खराब करने पर भी एतराज है।

धर्म के नाम पर किए जाने वाले हंगामे या शोर की ये तो बहुत छोटी-सी मिसालें हैं, लेकिन उल्लेखनीय है कि अब अक्सर हर धर्म-समुदाय से जुड़े धाíमक जलसे-जुलूस में इतना आडंबर, हंगामा और शोर होता है कि उसकी कोई सीमा नहीं बची है। उस पर लगाम लगाने वाली हर कोशिश बेमानी ही साबित होती रही है। देखा जा रहा है कि पिछले कुछ वर्षो में विभिन्न धाíमक आयोजनों पर डीजे और लाउडस्पीकरों से होने वाला शोर बहुत ज्यादा बढ़ गया है। और मामला धाíमक होने के कारण ऐसे शोर को प्रतिबंधित करने की कोशिश को सही नजरिये से नहीं देखा जाता है। ऐसे में यदि कोई कानूनी कार्रवाई होती है तो बात काफी ज्यादा बिगड़ने के हालात पैदा हो जाते हैं।

शोर की वजह : देखा जाए तो इसकी असली वजह हमारी जड़ हो चुकी मानसिकता है, जो किसी भी आयोजन में लोगों को शोर मचाने के लिए प्रेरित करती है। लोग यह स्वीकार ही नहीं कर पाते हैं कि हंगामा मचाए बगैर शांतिपूर्ण ढंग से भी कोई आयोजन हो सकता है। कभी लोग त्योहारों के नाम पर शोर मचाने की छूट चाहते हैं तो कभी जलसा या रैली करने के नाम पर। विभिन्न त्योहारों और नववर्ष या बर्थ-डे आदि की पार्टयिों में रात-रात भर लाउडस्पीकर अथवा दूसरे आधुनिक साउंड सिस्टम के जरिये शोर मचाया जाता है। अक्सर यह कहकर ऐसे शोर को संरक्षण दिया जाता है कि खुशी के मौके पर इसकी छूट मिलनी ही चाहिए। इसके लिए लोग सारे नियमों-कायदों का सरेआम उल्लंघन करते हैं और गिरफ्तारी या जुर्माना सहना अपनी शान समझते हैं, पर ऐसा करते वक्त वे यह भूल जाते हैं कि यदि उन्हें अपने आयोजन में शोर मचाने की छूट है तो कुछ लोगों को शांति से अपने घर में रहने की आजादी भी इस देश के कानून ने दी है।

एक साइलेंट किलर है शोर : कुछ साल पहले विश्व स्वास्थ्य संगठन अपनी एक रिपोर्ट में बता चुका है कि शहरों में सुरक्षित शोर का स्तर 45 डेसिबल है। रिपोर्ट में यह उल्लेख भी किया गया था कि भारत के शहरों में यह स्तर औसतन 90 डेसिबल से ज्यादा है। मुंबई को तो एक दफा दुनिया का तीसरा सबसे अधिक ध्वनि प्रदूषण वाला शहर बताया गया था और इसके ठीक बाद दिल्ली का नंबर था। अन्य महानगरों और छोटे शहरों में भी यह शोर कम नहीं है। इंसान की बनाई मशीनें, मोटर वाहन, ट्रेनें, हवाई जहाज और निर्माण कार्यो में विस्फोटकों के इस्तेमाल से असहनीय ध्वनियां वातावरण में फैल रही हैं। उन्हें रोकने को लेकर कोई उपाय कारगर साबित नहीं हो रहा है। शोर को समस्या नहीं मानने की एक अहम वजह है कि आम तौर पर लोग ध्वनि प्रदूषण को वायु प्रदूषण की तरह ही सेहत के लिए नुकसानदेह नहीं मानते। उन्हें वायु प्रदूषण के खतरे तो साफ दिखते हैं, लेकिन ध्वनि प्रदूषण के छिपे खतरों की तरफ उनका ध्यान तक नहीं जाता है। जबकि शोर एक बहुत बड़ा साइलेंट किलर है। सीमा से ज्यादा शोर लोगों को सिर्फ बहरा नहीं बनाता, बल्कि उच्च रक्तचाप, नींद में खलल और कई अन्य मानसिक विकार भी पैदा कर डालता है। इससे शांत प्रवृत्ति के लोगों का व्यवहार भी हिंसक हो जाता है। यहां तक कि गर्भस्थ शिशुओं को भी बाहरी शोर काफी ज्यादा नुकसान पहुंचाता है। समयपूर्व प्रसव के लिए कई बार बाहरी शोर ही जिम्मेदार होता है।

कहने को तो हमारे देश में पिछले कुछ दशकों में ऐसे प्रदूषण रोकने के लिए कुछ कायदे-कानून बनाए गए हैं, पर हमारी सरकारें नियम-कानून बनाकर ही अपने कर्तव्य की इतिश्री मान लेती हैं। इसलिए आजादी के बाद इस स्थिति में कोई खास सुधार नहीं हो पाया है। वर्ष 2012 में केंद्रीय पर्यावरण मंत्रलय के तत्वावधान में ध्वनि प्रदूषण को नियंत्रित करने के लिए अधिसूचना जारी की गई थी, जिसके तहत 25 बड़े शहरों में ध्वनि प्रदूषण की निगरानी के लिए एक नेटवर्क बनाने की बात कही गई थी। इस नेटवर्क में हर शहर में 10-10 निगरानी केंद्र बनाए गए, जो यह देखते हैं कि कहां कितना प्रदूषण है। फिर यदि अभी तक हमारे पास राजधानी दिल्ली को छोड़कर किसी भी शहर के बारे में अधिकृत आंकड़े नहीं हैं, क्योंकि देश में शोर को मापने की कोई व्यवस्था ठीक ढंग से काम कर ही नहीं रही है।

एक-दूसरे के पूरक हैं शहर और शोर : दिल्ली जैसे शहरों में शोर की मात्र कहीं ज्यादा है, जहां ध्वनि प्रदूषण की रोकथाम करने वाले कई कानून पिछले एक दशक से ज्यादा समय से अस्तित्व में हैं। आवासीय इलाकों में ध्वनि की मात्र अधिकतम 55 डेसिबल, व्यापारिक इलकों में 65 डेसिबल और औद्योगिक क्षेत्रों में 75 डेसिबल होनी चाहिए, लेकिन हर जगह यह करीब 25 डेसिबल अधिक है। इस कारण कभी-कभी नौबत रोड रेज जैसी घटनाओं की भी आ जाती है। बहरहाल शांति का महत्व जानते हुए भी यह लापरवाही घातक है कि हम शोर को अपनी राष्ट्रीय पहचान बनने की छूट दे रहे हैं। ध्यान रखना होगा कि सिर्फ कानून ये हालात नहीं बदल सकते। लोगों की मानसिकता बदले बगैर शोर जैसी समस्या से निजात पाना नामुमकिन ही है।

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