डॉ. अजय खेमरिया। नीति आयोग की एक ताजा रिपोर्ट बताती है कि देश में 22 से 25 राज्यों में गरीबी और भूखमरी तेजी से बढ़ी है। प्रतिष्ठित मेडिकल जर्नल ‘द लांसेट’ ने भी एक हालिया रिपोर्ट में भारत में सुपोषण अभियान की विफलता का जिक्र किया है। असल में गरीबी की कोख से ही कुपोषण जन्म लेता है और यह एक त्रसदपूर्ण तथ्य है कि भारत में 72 वर्षो से गरीबी उन्मूलन के अधिकतर प्रकल्प जमीनी स्तर पर भ्रष्टाचार के चलते असफल साबित हुए हैं। देश में 68 फीसद कुपोषण से ग्रस्त बच्चे पांच साल की आयु तक आते आते मौत के मुंह में समा रहे हैं। सबसे ज्यादा बुरे हालात बिहार, मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश, राजस्थान, असम, छत्तीसगढ़ और ओड़िशा जैसे राज्यों की है। संयोग से नीति आयोग की रिपोर्ट में जिस गरीबी और भूखमरी की चर्चा की गई है, वे राज्य भी यही हैं। इन राज्यों में लगभग 20 करोड़ लोगों की भयावह गरीबी की श्रेणी में पहचान की गई है। यानी समाजवादी विकास मॉडल के दौर में जिन ‘बीमारू’ राज्यों को लेकर भारत की चिंताएं प्रबल थीं, नवउदारवाद और वैश्वीकरण के दौर में यह आज भी कमोबेश उसी अनुपात में हमारे लिए चुनौती बनी हुई है।

सवाल यह है कि लाखों करोड़ रुपये खर्चने के बावजूद भारत गरीबी और भूख के विरुद्ध लड़ाई में क्यों कामयाब नहीं हो रहा है? असल में नीति निर्माण और जमीनी स्तर पर क्रियान्वयन का सरकारी मॉडल भारत की विविधता और सामाजिकी के साथ तादात्म्य स्थापित करने में सफल नहीं है, क्योंकि हर सरकारी मिशन भयंकर भ्रष्टाचार की चपेट में है। नजीर के तौर पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने आठ मार्च 2018 को राष्ट्रीय पोषण मिशन राजस्थान से आरंभ किया था। 9,046 करोड़ के बजट प्राविधान वाले इस पोषण मिशन से 718 जिलों के दस करोड़ चिन्हित लोगों को मूलत: गरीबी और कुपोषण से 2020 तक बाहर लाया जाना था।

केंद्र सरकार के ताजा आधिकारिक आंकड़े बताते हैं कि सरकार द्वारा मार्च 2019 तक जारी 4,238 करोड़ में से महज 1,283 करोड़ की राशि ही राज्य खर्च कर पाए हैं। पोषण मिशन के लिए जिस मिशनरी मानसिकता की आवश्यकता होती है उसे नोडल एजेंसियों में लागू करने या जनभागीदारी की दिशा में कोई काम नहीं कर पाई हैं। अन्य सरकारी योजनाओं की तरह इस मिशन में भी अफसरों ने ऐसे कड़े नियम कायदे बनाए कि आबंटित राशि खातों में ही ब्याज बढ़ाती रही। पोषण मिशन में ‘व्यवहार परिवर्तन’ और मौजूदा सरकारी महकमों के मध्य समेकन का समन्वय और समीक्षा के बुनियादी काम होने थे। जमीनी स्तर पर ये काम इसलिए नहीं हो पाए, क्योंकि क्रियान्वयन एजेंसियों की लापरवाही और अकर्मण्यता केंद्रित कार्य संस्कृति में कोई बदलाव लाने को तैयार नही है। कुपोषण जैसे दंश को मिटाया जाना इसलिए संभव नहीं है क्योंकि यह एक सामाजिक समस्या भी है। कई जनजातियां आज भी अपने लोकव्यवहार में बदलाव को स्वीकार करने को तैयार नहीं है। एक बड़े आदिवासी वर्ग में आज कुपोषण सबसे बड़ी समस्या है।

जाहिर है व्यवहार परिवर्तन के जिस बड़े लक्ष्य को इस मिशन में लक्षित किया गया है वह अफसरी अंदाज और सरकारी अमले के खानापूर्ति प्रयास से नहीं, बल्कि व्यापक जनभागीदारी और मिशनरी भावना से ही हासिल हो सकेगा। कुपोषण उन्मूलन का काम स्वास्थ्य और परिवार कल्याण, समाज कल्याण और शिक्षा जैसे सरकारी महकमों के साथ सीधा जुड़ा है। इसलिए इस एक बुनियादी तथ्य पर अभी तक काम नहीं हो पा रहा है कि ये सभी महकमे कैसे समेकित रूप में लक्ष्य के लिए एकीकृत होकर काम करें। मसलन मध्य प्रदेश और राजस्थान में चिन्हित आदिवासी परिवारों की महिलाओं को पोषण हेतु एक हजार रुपये मासिक दिए जाते हैं। ट्राइबल विभाग से जारी होने वाली यह राशि पांच-सात महीनों में हितग्राहियों तक आ पाती है। इसमें निगरानी का काम आंगनबाड़ी कार्यकर्ताओं को करना होता है, नतीजन ये राशि खजाने से निकल भी रही है और कोई काम भी नहीं कर पा रही है। ऐसे ही तमाम कागजी अवरोधक इस कलंक से लड़ने में सबसे बड़े दुश्मन साबित हो रहे हैं।

कुपोषित महिलाओं और बच्चों को क्लिनिकल उपचार स्वास्थ्य महकमा उपलब्ध कराता है जो अपने मैकेनिज्म पर चलता है। महिला बाल विकास की अपनी कार्य पद्धति है, समाज कल्याण और आदिमजाति कल्याण के अपने अलग सरकारी नियम कायदे हैं। स्वास्थ्य महकमा इंद्रधनुष, समाज कल्याण जैसे अभियानों में सर्वे करते हैं और कुपोषण के अलग अलग आंकड़े सार्वजनिक करते हैं। महिला बाल विकास इन्हें खारिज करता है और वह कुपोषित बच्चों को पोषण पुनर्वास केंद्र में भर्ती कराता है जो स्वास्थ्य महकमे द्वारा संचालित है। दोनों में टकराव होता रहता है। जाहिर है निचले स्तर समन्वय की कमी है।

पोषण अभियान जैसे मिशन इसीलिए समयबद्ध अवधि में न पूर्ण हो सकते हैं न ही उद्देश्य हासिल कर सकते हैं। ऐसे में आंगनबाड़ी को क्रियान्वयन इकाई के रूप में अधिमान्य कर सरकारी निगरानी से ज्यादा स्थानीय जनभागीदारी को बढ़ावा मिले। यह बगैर जनभागीदारी के संभव नहीं है। आंगनबाड़ी में सभी सरकारी मुलाजिमों के बच्चों के पंजीयन और उपस्थिति को अनिवार्य किए जाने से भी एक आस्थामूलक माहौल बनेगा, क्योंकि आज इन केंद्रों को समाज में कमजोर वर्गो के बच्चों के एक वक्त के भोजन का जरिया माना जाता है। सरकार को पोषण आहार वितरण की मौजूदा प्रक्रिया के स्थान पर डीबीटीएल यानी बैंक खाते में सीधे रकम हस्तांतरण के तहत सीधी सहायता के विकल्प पर भी विचार करना होगा, क्योंकि सर्वाधिक भ्रष्टाचार यहीं हो रहा है।

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