[गिरीश्वर मिश्र]। समय बड़ा बलवान है और उसकी झोली में जो छिपा होता है वह भी अनुमान से परे होता है। हम सभी प्राय: भोक्ता और द्रष्टा की भूमिका में रहते हैं। कभी-कभी ज्ञाता और कर्ता का अभिमान हो जाता है। बुद्धि बल का पराक्रम विज्ञान और प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में सबसे प्रखर रूप में निखरकर सामने आता है और हम अपने किए पर गर्व और अभिमान भी महसूस करते हैं। यह सृष्टि में अपने अस्तित्व को लेकर व्यक्ति को कई तरह के भ्रम में भी डाल देता है। वह स्वयं को नियंता मानने की भूलकर चेतना के संकेतों को अनसुना करने लगता है। तभी कुछ ऐसा घटता है जो सभी गतिविधियों पर ‘ब्रेक’ लगा देता है। जीवन यकायक ठहर सा जाता है।

सन दो हजार बीस ऐसी ही घटना का साक्षी बना जब सारा विश्व कोविड के अदृश्य विषाणु के विकट प्रभाव से सकते में आ गया। भस्मासुर की भांति अपने संपर्क से लाखों का जीवन संहार करता हुआ यह उपद्रवी अमीर-गरीब, विकसित-अविकसित, नस्ल, धर्म और जाति जैसे पैमाने का कोई भेदभाव किए बिना सबको लीलता रहा।आर्थिक गतिविधि, शिक्षा, आजीविका और नागरिक जीवन सभी अव्यवस्थित रहे। भारत ने सतर्कता बरतते हुए जो कदम उठाए उससे सघन जनसंख्या के बावजूद तुलनात्मक रूप से जीवन-हानि कम हुई, परंतु सामान्य जनजीवन और अन्य गतिविधियों में ठहराव ने असंतोष को जन्म दिया। फिर भी भारत ने धैर्यपूर्वक इसका सामना किया। विस्थापन, आजीविका और आर्थिक कठिनाइयों से उबरने की यथाशक्ति कोशिश हुई।

अनेक विकसित देशों में विषाणु ने मचाई भयंकर तबाही 

विषाणु से लड़ाई के बीच मनुष्य की लिप्सा और प्रगति की पोल भी खुलती गई। सत्य से डर इतना कि विषाणु के चीनी उद्भव की कथा से पर्दा न उठ सका। स्पेन, इटली, ब्रिटेन, अमेरिका, फ्रांस और ब्राजील आदि अनेक विकसित देशों में तो विषाणु ने भयंकर तबाही मचाई। इससे जनजीवन और अर्थव्यवस्था पर घातक असर पड़ा। हम निरुपाय और बेबस होकर किसी चमत्कार की इच्छा लिए जटिल चुनौतियों का ही मुकाबला करते रहे। लॉकडाउन, पृथकवास, शारीरिक दूरी, सैनिटाइजेशन और मास्क ने स्वच्छता, खानपान और जीवन जीने की एक नई संहिता शुरू की। वैश्वीकरण का स्याह चेहरा जैसे इस महामारी ने उजागर किया उससे वैश्विक जीवन व्यवस्था में मानवीय हस्तक्षेप के खतरों, सीमाओं और जटिलताओं की नई समझ उभरी जो स्थानीयता की प्रासंगिकता की महत्ता बताती है। इस दौर में सामान्य आचरण, जीवन शैली और नैतिकता को लेकर जरूरी सवाल खड़े हुए और कई बदलावों को मजबूरी में ही सही फौरी तौर पर अपनाया गया। हालांकि इन सवालों पर संजीदगी से विचार की जरूरत है।

साल 2020 के चुनौतीपूर्ण समय में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी राष्ट्र का संबल बढ़ाते रहे

भारतवर्ष के लिए भी बीता साल भारी उठापटक वाला रहा। दिल्ली में शाहीन बाग आंदोलन और उसके बाद दंगे। जम्मू-कश्मीर के हालात। मध्य प्रदेश में सत्ता परिवर्तन। राजस्थान में राजनीतिक प्रहसन। अयोध्या में चिरप्रतीक्षित राम मंदिर का शिलान्यास, कोरोना के बीच बिहार चुनाव, गलवन में चीन से संघर्ष, राफेल का आगमन और वर्षांत में किसानों के आंदोलन के रूप में कई अहम घटनाक्रमों का साक्षी बना यह साल। ऐसे चुनौतीपूर्ण समय में भी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी राष्ट्र का संबल बढ़ाते रहे। उन्होंने आत्मनिर्भरता और स्वदेशी की ओर उन्मुख होने का आह्वान किया। तीन दशकों के बाद आई नई शिक्षा नीति भी मानव पूंजी के दृष्टिकोण से साल की बड़ी उपलब्धि रही। युवाओं की प्रतिभा विकास के लिए ऐसे परिवर्तन आवश्यक हैं।

कथित सेक्युलर प्रवृत्ति अपने प्रखर रूप में भारतीय राजनीति पर हैं हावी

आज का आदमी आधुनिक मानस वाला है जो विज्ञान, विकास और ठोस भौतिक सत्ता पर ही भरोसा करता है। उसका नजरिया सिर्फ चित्र पर केंद्रित है, उसकी उस पृष्ठभूमि पर नहीं, जिस पर उसका वजूद टिका होता है। वह नितांत निरपेक्ष दृष्टि वाला होता गया है। उसे आपसी रिश्तों को समझने-आंकने की फुर्सत नहीं। कथित सेक्युलर प्रवृत्ति अपने प्रखर रूप में भारतीय राजनीति पर हावी है। आज कोई भी दल चाहे वह वाम, दक्षिण और मध्य मार्ग वाला हो, एक ही तरह से पेश आ रहा है। उनका आचरण सत्ता की चेतना की साधना में लगा है। सत्ता के सूत्र पर कब्जा कायम रखने के लिए हर तिकड़म आजमाई जा रही है। विचार के स्तर पर घोर विरोध हो या घोषित नीति कितनी भी भिन्न हो, कुछ भी सत्ता की साझेदारी में बाधक नहीं बनता है।

देश सिर्फ भौगोलिक सीमाओं तक ही नहीं होता सीमित

एक दौर वह भी था जब स्वहित त्याग कर जनहित के उद्देश्य से ही राजनीति में आने का प्रयोजन हुआ करता था। स्वतंत्रता संग्राम के लिए हमारा संघर्ष इसका जीवंत उदाहरण है, जहां विचार भिन्न होते हुए भी सबका उद्देश्य एक ही था कि देश को अंग्रेजों से मुक्ति दिलाई जाए। अब स्थिति विपरीत है। स्वहित पहले और राष्ट्रहित (यदि है तब भी) बाद में। बदलते दौर में देश को सशक्त बनाने के लिए जन-गण के मन को सजीव बनाना और क्षुद्र एवं संकुचित विचार त्याग कर देशहित को केंद्र में लाना होगा। राजनीति का यही धर्म होना चाहिए। यह भी स्मरणीय है कि देश सिर्फ भौगोलिक सीमाओं तक सीमित नहीं होता। उसके साथ प्रीति भी होनी चाहिए।

अंग्रेजों ने भारत का भरपूर शोषण और दोहन किया

यह प्रमाणित है कि हम पर थोपी गई शिक्षा और दृष्टि अंग्रेजों की औपनिवेशिक उद्देश्यों की पूर्ति का उपाय थी। अंग्रेजों ने भारत का भरपूर शोषण और दोहन किया। उनकी विश्व दृष्टि के परिणाम देश को स्वतंत्रता मिलने के समय साक्षरता, शिक्षा और अर्थव्यवस्था में व्याप्त घोर विसंगतियों में देखे जा सकते हैं। स्वतंत्रता का अवसर वैकल्पिक व्यवस्था शुरू करने का पड़ाव था, परंतु राजनीतिक स्वराज के अतिरिक्त अन्य क्षेत्रों में परिवर्तन का विवेक कठिन साबित हुआ। फलत: स्वाधीन होने पर भी अंग्रेजी तौर-तरीके हावी रहे। उदासीनता, अज्ञान और अकर्मण्यता की यथास्थिति कायम रही। अंग्रेजी वर्चस्व वाली शिक्षा नीति ने ज्ञान-विज्ञान परिदृश्य को विकृत कर नई खाई बना दी। ज्ञान का प्रवाह पश्चिम से होने लगा। हम यूरोप और अमेरिका पर अधिकाधिक निर्भर होते गए।

वास्तव में शिक्षा का लक्ष्य राष्ट्र के मानस का निर्माण होता है। शिक्षा देशकाल और संस्कृति से विलग नहीं होनी चाहिए। संभवत: औपनिवेशिक दृष्टि की औपनिवेशिकता ही दिखनी बंद हो गई। वहीं उसकी अस्वाभाविकता भी बहुतों के लिए स्वाभाविक और स्वीकार्य हो गई मानों वही एक विकल्प हो। अंग्रेजी के ऐसे चहुंओर वर्चस्व के बीच शिक्षा में स्वराज अभी भी प्रतीक्षित है। अनुकरण और पुनरुत्पादन की जगह मौलिकता और सृजनात्मकता के लिए भारत केंद्रित ज्ञान और शिक्षा व्यवस्था ही विकल्प हो सकती है। आशा है कि नए वर्ष में यह स्वप्न संकल्प का रूप लेगा।

(लेखक पूर्व कुलपति और शिक्षाशास्त्री हैं)

[लेखक के निजी विचार हैं]