[ संजय गुप्त ]: समस्त देशवासियों को 71वें गणतंत्र दिवस की बधाई। यह सचमुच बधाई का भी अवसर है और इस पर गौर करने का भी कि इस गणतंत्र दिवस पर नए भारत की एक नई तस्वीर देखने को मिल रही है। गणतंत्र दिवस अन्य अनेक बातों के साथ संविधान की याद प्रमुखता से दिलाता है। दुर्भाग्य से इसी संविधान का हिस्सा बना था अनुच्छेद 370। इसे हटाए जाने के बाद ही देश इससे अवगत हो पाया कि वास्तव में इस संवैधानिक प्रावधान के जरिये शेख अब्दुल्ला को जम्मू-कश्मीर एक तरह से तोहफे में दे दिया गया, क्योंकि नेहरू ऐसा ही चाहते थे।

कश्मीर अलगाव पैदा करने वाला था अनुच्छेद 370, केंद्रीय कानून लागू नहीं हो पा रहे थे

बीते सात दशकों में देश को यही बताया गया कि इसे हटाना बहुत मुश्किल है और यह तो एक तरह से स्थाई प्रावधान ही है। इस तरह की दलीलें इसके बावजूद दी जाती रहीं कि अनुच्छेद 370 का सहारा लेकर कश्मीरी आवाम में अलगाव की भावना भरी जा रही है। चूंकि सारा जोर अलगाव पैदा करने वाले अनुच्छेद 370 को उपयोगी बताने का था इसलिए इसकी अनदेखी की जाती रही कि कैसे वहां संसद से पारित तमाम महत्वपूर्ण कानून लागू नहीं हो पा रहे और किस तरह वहां के दलितों के अधिकारों को कुचला जा रहा।

अनुच्छेद 370 को हटाने के फैसले को सुप्रीम कोर्ट में दी गई चुनौती

यह आश्चर्यजनक है कि अनुच्छेद 370 के अलगाववाद का पर्याय और संविधान की मूल भावना के खिलाफ साबित होने के बावजूद सुप्रीम कोर्ट में उसे हटाने के केंद्र सरकार के फैसले को चुनौती दी गई। क्या इस रवैये को संविधानसम्मत कहा जा सकता है? यह तो गनीमत रही कि अनुच्छेद 370 को अस्थाई दर्जा दिया गया, अन्यथा उसे हटाना और कठिन होता।

अनुच्छेद 370 हटने के बाद कश्मीर जुड़ा देश की मुख्यधारा से

आज गणतंत्र दिवस के अवसर पर हम भारतवासी यह कह सकते हैं कि जम्मू-कश्मीर वैसे ही भारत का अभिन्न अंग है जैसे देश के अन्य राज्य। मोदी सरकार अनुच्छेद 370 हटाने के बाद इस कोशिश में है कि कश्मीर न केवल देश की मुख्यधारा से जुड़े, बल्कि वहां की समस्याओं का तेजी से निराकरण भी हो। इसके लिए वह अपने मंत्रियों को जम्मू-कश्मीर के अलग-अलग जिलों में भेज रही है। पता नहीं क्यों विपक्ष को ऐसे तौर-तरीके रास नहीं आ रहे हैं। वह यह देखने से इन्कार कर रहा है कि 5 अगस्त यानी अनुच्छेद 370 हटने के बाद से वहां एक भी नागरिक की मौत नहीं हुई है। क्या यह उल्लेखनीय नहीं? विपक्ष के ऐसे नकारात्मक रवैये के कारण ही आम जनता से उसे अहमियत नहीं दे रही है। कुछ ऐसी ही स्थिति नागरिकता संशोधन कानून यानी सीएए के मामले में भी है।

विपक्ष के तमाम दुष्प्रचार के बाद भी मोदी सरकार सीएए के अमल के प्रति अडिग

विपक्ष के तमाम दुष्प्रचार के बाद भी सरकार सीएए के अमल के प्रति अडिग है। उसे अडिग रहना भी चाहिए, क्योंकि यह कानून शरणार्थी रूप में रह रहे उन अल्पसंख्यकों को राहत देने के लिए है जो बांग्लादेश, पाकिस्तान और अफगानिस्तान से प्रताड़ित होकर भारत आए थे। आखिर इन प्रताड़ित लोगों को राहत क्यों नहीं मिलनी चाहिए? क्या यह सच नहीं कि नेहरू, पटेल सरीखे संविधान निर्माताओं और खुद गांधी जी ने यह कहा था कि पाकिस्तान के अल्पसंख्यक जब चाहें भारत आ सकते हैं?

विपक्ष एनपीआर और एनआरसी का भी विरोध कर रही है

विपक्ष ने सीएए के साथ ही राष्ट्रीय जनसंख्या रजिस्टर यानी एनपीआर और प्रस्तावित राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर अर्थात एनआरसी का विरोध करना भी शुरू कर दिया है। एनपीआर हर दस वर्ष में जनगणना के तहत की जाने वाली कवायद है। आखिर इस संविधानसम्मत प्रक्रिया के विरोध का क्या औचित्य? हास्यास्पद यह है कि एनपीआर तैयार करने का विरोध करने वाले खुद को संविधान का हितैषी बता रहे हैं। यह संविधान का हवाला देकर जनता को गुमराह करने के अलावा और कुछ नहीं।

विपक्षी दलों का सीएए के खिलाफ विरोध करना संविधानसम्मत आचरण नहीं है

विपक्षी दल सीएए के खिलाफ विधानसभाओं में प्रस्ताव पारित करने का काम यह जानते भी हुए कर रहे हैं कि वे संसद से पारित कानून को लागू करने से इन्कार नहीं कर सकते। कुल मिलाकर संविधान की दुहाई देकर उसकी धज्जियां उड़ाने वाले ही सरकार पर यह दोष मढ़ रहे हैं कि वह संविधान के खिलाफ काम कर रही है। विपक्षी दल एक ओर इस कानून के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट भी जा पहुंचे हैं और दूसरी ओर दुष्प्रचार का सहारा लेकर उसका सड़क पर विरोध भी कर रहे हैं। क्या यह संविधानसम्मत आचरण है?

लोकतांत्रिक देश में अपने नागरिकों की पहचान करना गैर-संवैधानिक कैसे है

जहां तक प्रस्तावित एनआरसी की बात है, जिम्मेदार देश वही है जो यह सुनिश्चित करे कि उसके यहां रह रहे लोगों में कौन उसके नागरिक हैं और कौन नहीं? अगर मोदी सरकार भी यह करना चाहती है तो इसमें गलत क्या है? क्या यह वही काम नहीं जो कांग्रेस शासन के समय करने की पहल की गई थी? आखिर अपने नागरिकों की पहचान पुख्ता करना गैर-संवैधानिक कैसे है? क्या दुनिया के जिन देशों ने यह काम किया है वे लोकतांत्रिक देश नहीं?

सेक्युलरिज्म और समाजवाद का घोर दुरुपयोग

इन दिनों संविधान की प्रस्तावना का जिक्र खूब हो रहा है और इस दौरान संविधान की प्रस्तावना में दर्ज सेक्युलरिज्म को बढ़चढ़कर रेखांकित किया जा रहा है। इसमें हर्ज नहीं, लेकिन क्या इसकी अनदेखी कर दी जाए कि संविधान की प्रस्तावना में सेक्युलरिज्म और समाजवाद जैसे शब्द आपातकाल के दौरान थोपे गए? सेक्युलरिज्म शब्द का जैसा घोर दुरुपयोग किया गया है उसकी दूसरी मिसाल मिलनी मुश्किल है। इसी तरह यह भी जगजाहिर है कि समाजवाद के नाम पर परिवारवाद की राजनीति को पोषित किया गया। क्या राजनीतिक दलों को प्राइवेट लिमिटेड कंपनियों की तरह चलाना संविधान की भावना के अनुरूप है?

सेक्युलरिज्म के नाम पर मुसलमानों को बरगलाया जा रहा है

यह देखना दयनीय है कि सेक्युलरिज्म के नाम पर लोगों और खासकर मुसलमानों को बरगलाने का काम किया जा रहा है। इसके लिए हर तरह के छल-कपट का सहारा लिया जा रहा है। दुर्भाग्य यह है कि इस छल-कपट में मीडिया का भी एक हिस्सा शामिल है। यह समझ आता है कि विदेशी मीडिया दुराग्रह से ग्रस्त है, लेकिन आखिर इसका क्या मतलब कि भारतीय मीडिया का भी एक हिस्सा इस हद तक दुराग्रही हो जाए कि झूठ का सहारा लेने से बाज न आए?

संविधान की आड़ में संविधान को चोट पहुंचाना

यह विडंबना ही है कि जो दल संविधान के दिशा निर्देशक तत्वों में शामिल समान नागरिक संहिता का विरोध करने में आगे रहते हैं वही भाजपा पर यह तोहमत मढ़ने में सक्रिय रहते हैं कि वह इस संहिता की बात कर संविधान तोड़ने और देश को हिंदू राष्ट्र बनाने का काम कर रही? इन्हीं दलों ने तीन तलाक को बनाए रखने की पुरजोर वकालत की थी। यह हैरान करता है कि असहमति के नाम पर हिंसा करने और भड़काऊ बयान देने वाले भी संविधान की आड़ लेने में सफल हैं। इससे भी हैरानी की बात यह है कि प्रणब मुखर्जी जैसे नेता इस विध्वंसक असहमति को लोकतंत्र को मजबूत करने वाला काम करार दे रहे हैं। ऐसी दलीलें तो संविधान की आड़ में संविधान को चोट पहुंचाने वालों को बल ही प्रदान करेंगी।

[ लेखक दैनिक जागरण के प्रधान संपादक हैं ]