[पीयूष तिवारी]  सड़क दुर्घटनाओं में हताहतों की संख्या के मामले में हम दुनिया में शीर्ष पर हैं। इस समस्या को अगर किसी महामारी की संज्ञा दी जाए तो अतिशयोक्ति नहीं होगी। एक सरकारी अध्ययन के मुताबिक इन हादसों में मारे जाने वाले ज्यादातर लोग 15 से 45 वर्ष के बीच होते हैं। इसका सीधा सा मतलब है कि यह समाज और राष्ट्र के सबसे उत्पादक मानव संसाधन हैं। इनमें से ज्यादातर गरीब परिवारों की रोजी-रोटी का आसरा होते हैं। इनकी असमय मौत या जिंदगी भर के लिए दिव्यांग होने की स्थिति में तुरंत इनका परिवार आर्थिक रूप से कई पीढ़ी पीछे चला जाता है।

दो सवाल सामने आए हैं

नया मोटर वाहन (संशोधन) अधिनियम 2019 (एमवीएए) एक सितंबर, 2019 को पूरे भारत में लागू हुआ। हालांकि, इसके लागू होने के तुरंत बाद, दो सवाल सामने आए हैं। पहला यह कि खराब सड़कों और सार्वजनिक परिवहन का क्या होगा? दूसरा यह कि क्या अकेले जुर्माना भरने से भारत में सड़क दुर्घटना से होने वाली मौतों को कम किया जा सकता है? दोनों प्रश्न अत्यंत प्रासंगिक और पूरी तरह से वैध हैं। लेकिन एमवीएए के संदर्भ में दोनों प्रश्न कुछ गलत धारणाओं से प्रेरित हैं।

गलत धारणा से प्रेरित

पहली गलत धारणा यह है कि संशोधन केवल जुर्माने को बढ़ाने के उद्देश्य से किया गया है। यह धारणा सच्चाई से कोसों दूर है। एमवीएए तीन दशक पुराने कानून में एक व्यापक संशोधन है। इसमें ड्राइवर लाइसेंसिंग और प्रशिक्षण प्रणाली में सुधार से लेकर सड़क उपयोगकर्ताओं की सुरक्षा, दोषपूर्ण वाहनों को वापस लेने, गड्ढों और खराब सड़कों के लिए ठेकेदारों और इंजीनियरों को जिम्मेदार ठहराने जैसे कई महत्वपूर्ण सुधार शामिल किए गए हैं। यह सुप्रीम कोर्ट द्वारा स्थापित गुड समैरिटन लॉ को कानूनी समर्थन भी प्रदान करता है। अकेले दंड से समस्या का समाधान नहीं हो सकता है, लेकिन जब दंड को अन्य संरचनात्मक सुधारों के साथ जोड़ा जाता है तो सड़क दुर्घटना से संबंधित मृत्यु दर में भारी कमी आती है।

वियतनाम है उदाहरण

उदाहरण के लिए वियतनाम को लें। यहां 2007 में हेलमेट कानून लागू होने के बाद मोटरसाइकिल से होने वाली मौतों की संख्या में उल्लेखनीय कमी देखी गई। अपने पहले ही साल में इस हेलमेट कानून ने दस हजार गंभीर सिर की चोटों और सात सौ मौतों को रोका। वहीं थाईलैंड और मलेशिया में भी इसी तरह के उपायों से क्रमश: 21 फीसद और 30 फीसद की कमी देखी गई है।

दूसरी गलत धारणा

दक्षिण कोरिया में जमरुाने में 100 फीसद वृद्धि और अन्य नियमों के साथ 2001 में सीटबेल्ट कानून के लागू होने के बाद सीटबेल्ट का उपयोग 23 फीसद से बढ़कर 98 फीसद हो गया। दूसरी गलत धारणा यह है कि सरकार को कानून लागू करने से पहले शहरों में प्रवर्तन तंत्र, सार्वजनिक परिवहन और सड़क बुनियादी ढांचे को दुरुस्त करना चाहिए था। वे कर सकते थे, लेकिन किस ढांचे या कानून के तहत? इनमें से किसी भी क्षेत्र के लिए कोई मानक दिशानिर्देश नहीं हैं, या सड़क के निर्माण के लिए आइआरसी कोड की तरह, कोई कानूनी समर्थन नहीं है। इन मामलों के लिए उन्हें राज्य सरकारों की तरफ निहारना पड़ता है। संशोधित कानून में इन क्षेत्रों में सुधार किए जाने के प्रावधान शामिल किए गए हैं।

सुधार में सक्षम

पहली बार, राज्य सरकारें सड़कों की घटिया इंजीनियरिंग के लिए ठेकेदारों और इंजीनियरों को नये कानून की धारा 198 ए के तहत आरोपित कर सकती हैं। जनता अब इस कानून के तहत सड़कों पर गड्ढों और अन्य दोषों के लिए कानूनी कार्रवाई की मांग कर सकती है। इसी तरह, भ्रष्टाचार को खत्म करने के उद्देश्य से इस कानून की धारा 136ए इलेक्ट्रॉनिक प्रवर्तन के लिए नियम प्रदान करेगी। एक बार फिर से यह नागरिकों को प्रवर्तन में पारदर्शिता लाने का अधिकार देता है। दूर-दराज के क्षेत्रों में भी एमवीएए के माध्यम से सुधार संभव है। यह मंजिल के आखिरी छोर तक सुधार में सक्षम है।

सक्षम प्रणाली की आवश्यकता

अधिक प्रतिस्पर्धा पैदा करेगा, जिससे सेवाओं की गुणवत्ता में सुधार होगा। यह समझना महत्वपूर्ण है कि सड़क परिवहन और सुरक्षा प्रणाली में चुनौतियों से निपटने के लिए हमें एक सक्षम प्रणाली की आवश्यकता है। और वे रातोंरात नहीं बदल सकती। लेकिन भारत में मोटराइज्ड रोड ट्रांसपोर्ट शुरू होने के बाद पहली बार, सड़क-उपयोगकर्ता के जीवन को कानून के केंद्र में रखा गया है, न कि सिर्फ मशीन के।

 [लेखक- सेवा लाइफ फाउंडेशन के संस्थापक और सीईओ हैं]