[ बद्री नारायण ]: नागरिकता संशोधन कानून के विरोध के बीच दलित-मुस्लिम एकता की पहल नए सिरे से होती दिख रही है। दलित एवं मुस्लिम सामाजिक समूहों के बीच राजनीतिक गठबंधन की कोशिश नई नहीं है। दलित राजनीति के एक अनोखे व्यक्तित्व जोगेंद्र नाथ मंडल ने ऐसा ही प्रयास आजादी के पहले किया था। मंडल पूर्वी बंगाल के लोकप्रिय दलित नेता के रूप में आजादी के पूर्व उभरे थे। वह अंग्रेजों के विरुद्ध चल रहे आजादी के आंदोलन में भी सक्रिय रहे। वह आंबेडकर द्वारा स्थापित शेड्यूल्ड कास्ट फेडरेशन में सक्रिय थे। बाद में वह मुस्लिम लीग में शामिल हो गए।

पूर्वी बंगाल के लोकप्रिय दलित नेता जोगेंद्र नाथ मंडल जिन्ना के करीबी थे

वह मोहम्मद अली जिन्ना के बहुत करीबी थे। आजादी के बाद जब भारत का विभाजन हुआ तो वह संयुक्त पाकिस्तान के कानून मंत्री बने। कुछ समय बाद ही वह वहां की व्यवस्था एवं शासन पद्धति में कुछ खास समूहों और विशेष कर दलितों के लिए उपेक्षा की प्रवृत्ति का अहसास करने पर पाकिस्तान छोड़कर भारत लौट आए।

मंडल ने संविधान सभा के चुनावों में दलित-मुस्लिम गठबंधन बनाने का सफल प्रयास किया था

जोगेंद्र नाथ मंडल ने संविधान सभा के चुनावों में दलित-मुस्लिम गठबंधन बनाने का सफल प्रयास किया था। बाबा साहब भीमराव आंबेडकर जब संविधान सभा का चुनाव नहीं जीत पाए तो जोगेंद्र नाथ मंडल ने उन्हें बंगाल के दलित आबादी वाले चुनाव क्षेत्र से चुनाव लड़ने का आमंत्रण दिया। आंबेडकर ने इसे स्वीकार किया। इस प्रकार आंबेडकर दलित-मुस्लिम गठजोड़ की बदौलत ही संविधान सभा में पहुंच पाए।

मुस्लिमों और दलितों का समर्थन कांग्रेस को मिलता रहा

हालांकि आजादी के बाद दलित एवं मुस्लिम अलग-अलग कांग्रेस को चुनावी समर्थन देते रहे, किंतु इसे दलित-मुस्लिम गठजोड़ बनाने के मौजूदा प्रयासों के रूप में नहीं देखा जा सकता। कांग्रेस में दलित एवं मुस्लिम समाज के अपने-अपने प्रतिनिधि थे। उन नेताओं की प्रतीकात्मक शक्ति से दलितों एवं मुस्लिमों का एक बड़ा वर्ग कांग्रेस को वोट देता रहा। आंबेडकर द्वारा बनाई गई रिपब्लिकन पार्टी को भी मुसलमानों के एक छोटे वर्ग का समर्थन मिलता रहा, किंतु समग्र रूप से मुस्लिमों और दलितों का समर्थन कांग्रेस को छोड़कर शायद ही किसी को मिला हो।

आज अनेक नेता दलित-मुस्लिम गठबंधन बनाने का प्रयास कर रहे हैैं

आज के अनेक दलित एवं मुस्लिम नेता भारतीय चुनावी राजनीति में दलित-मुस्लिम गठबंधन बनाने का प्रयास कर रहे हैैं। बसपा नेता मायावती ने 2017 के उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में दलित-मुस्लिम गठजोड़ बनाने की कोशिश की। उन्होंने उस चुनाव में बड़ी संख्या में मुस्लिम उम्मीदवारों को चुनाव मैदान में उतारा, फिर भी बसपा अच्छा प्रदर्शन नहीं कर पाई। उनका शायद यह मानना रहा होगा कि मुस्लिम समाज के उम्मीदवारों को ज्यादा टिकट देकर उन्हें चुनावी रूप से अपने साथ लाया जा सकता है, लेकिन उनका यह राजनीतिक अनुमान गलत साबित हुआ।

दलित-मुस्लिम गठबंधन बनाने में मायावती ने की समझने में भूल

उन्होंने यह समझने में भूल की कि सामाजिक समूह ‘नीर-क्षीर’ की तरह जब चाहे, जैसे चाहे नहीं मिल जाते। इसके लिए आधार तल पर सामाजिक सहभागिता, सामाजिक भाईचारा एवं राजनीतिक गोलबंदी बनाने की कोशिश करनी पड़ती है। जिस प्रकार मायावती ने अगड़ी एवं दलित जातियों में सामाजिक इंजीनियरिंग करते हुए सामाजिक भाईचारा बनाने का सघन प्रयास किया था वैसा दलित एवं मुस्लिम गठजोड़ बनाने के लिए नहीं कर पाईं।

चंद्रशेखर और ओवैसी ने भी  दलित-मुस्लिम गठजोड़ को विकसित नहीं कर पाए

इधर भीम सेना के नेता चंद्रशेखर आजाद ने दलित-मुस्लिम गठजोड़ बनाने के एजेंडे पर काम करना प्रारंभ किया है। उनके मुताबिक दलित-मुस्लिम गठजोड़ ही भारतीय राजनीति का भविष्य है। चंद्रशेखर के अलावा एआइएमआइएम के नेता असद्दुदीन ओवैसी ने भी अपने राजनीतिक विमर्श एवं चुनावी रणनीति में दलित-मुस्लिम गठजोड़ को महत्व देना प्रारंभ किया है। कहीं-कहीं उन्हें इस दिशा में आंशिक सफलता भी मिली है, फिर भी बड़े स्तर पर दलित-मुस्लिम गठजोड़ अभी तक विकसित नहीं हो पाया है।

दलित राजनीति दलित सामाजिक अस्मिता और मुस्लिम राजनीति धार्मिक अस्मिता से बंधी है

इसके कई कारण हैैं। एक तो दलित राजनीति दलित सामाजिक अस्मिता की अंत:शक्ति पर आधारित है। वहीं दूसरी ओर मुस्लिम राजनीति बहुत कुछ धार्मिक अस्मिता से बंधी है। दो विभिन्न अस्मितापरक विशिष्टता वाले समूहों में राजनीतिक गठबंधन बनने के लिए अस्मितापरक विमर्शों में परिवर्तन की जरूरत तो पड़ेगी ही। एक तथ्य यह भी है कि मुस्लिम राजनीति लंबे समय तक मुस्लिम समुदाय के उच्च वर्ग यथा अशराफ समूह के प्रभाव में रही है। अब धीरे-धीरे अजलाफ एवं पसमांदा समूह अपनी राजनीतिक शक्ति विकसित करने की दिशा में आगे बढ़ रहे हैं। जब इन मुस्लिम सामाजिक समूहों में एक राजनीतिक वर्ग उभर आएगा तो इनका दलित राजनीति के साथ सहज रिश्ता बन सकता है।

सांप्रदायिक दंगों के दौरान दलितों एवं मुस्लिमों का टकराव

दलितों एवं मुस्लिमों को कई सामाजिक अध्ययनों में कई जगह पर सांप्रदायिक दंगे के समय में आपस में टकराने वाले सामाजिक समूह के रूप में अंकित किया जाता है। हालांकि टकराहट, संघर्ष एवं दंगे के दिनों में इन दोनों समुदायों की ओर से अपने लिए सुरक्षा तलाशने के प्रयास की अनेक घटनाएं मिल जाती हैैं, लेकिन ऐसी घटनाएं हमारे राजनीतिक वृतांत के निर्माण में हाशिये पर ही रहती हैैं।

दलित-मुस्लिम गठजोड़ राष्ट्रीय स्तर पर विकसित होने की संभावना कम दिखती है

हमें यह भी देखना होगा कि अगर ऐसा गठजोड़ मात्र नेताओं का गठजोड़ होता है तो वह क्षणिक ही होगा और उसका प्रभाव क्षेत्र में भी कम होगा, किंतु यदि यह गठजोड़ दोनों समूहों की जनता का होता है तो वह भारतीय राजनीति का प्रभावी गठजोड़ साबित होकर उभरेगा। देखना यह भी है कि ऐसा गठजोड़ अखिल भारतीय स्वरूप ले पाता है या क्षेत्रीय स्तरों पर चुनावी रणनीति के एजेंडे में ही सीमित होकर रह जाता है? चूंकि ऐसा गठजोड़ विकसित करने का प्रयास कर रहे दलित एवं मुस्लिम आधारों वाले राजनीतिक दलों का प्रभाव क्षेत्र अभी क्षेत्रीय स्तरों पर ही सीमित है ऐसे में दलित-मुस्लिम गठजोड़ राष्ट्रीय स्तर पर विकसित होने की संभावना कम ही दिखती है। अगर यह गठजोड़ विकसित भी होता है तो यह क्षेत्रीय स्तर पर ही सीमित होकर रह जाएगा।

( लेखक गोविंद बल्लभ पंत सामाजिक विज्ञान संस्थान, प्रयागराज के निदेशक हैं )