डॉ. संजय वर्मा। अमेरिकी स्पेस एजेंसी नासा के मार्स रोवर र्पिसवरेंस की मंगल तक की उड़ान और इस ग्रह पर उतरने की उसकी उपलब्धि चंद्रमा पर इंसानी कदमों की छाप से कम महत्वपूर्ण नहीं है। इस साल 18 फरवरी को जब यह रोवर मंगल ग्रह पर उतरा था, तो नासा ने कहा था कि इस बार उसका यह अभियान कई नई जमीनें तोड़ने वाला साबित होगा। इसकी वजह है पहली बार पृथ्वी से बाहर दूसरी दुनिया में एक उड़ान को संचालित करवाना। यह एक मुश्किल काम था, क्योंकि पृथ्वी से औसतन करीब 23 करोड़ किमी दूर मंगल पर निर्देश भेजकर किसी विमान या हेलीकॉप्टर की उड़ान को संचालित करना कोई हंसी-खेल नहीं है। सूर्य की परिक्रमा करते वक्त मंगल और पृथ्वी के बीच की दूरी कभी साढ़े नौ करोड़ किमी हो जाती है तो कभी यह घटकर साढ़े पांच करोड़ किमी रह जाती है।

मंगल ग्रह पर किसी विमान का हवा में उड़ना मुश्किल इसलिए है, क्योंकि वहां का वायुमंडल काफी विरल है। पृथ्वी के वायुमंडल के केवल एक फीसद वायुमंडल में टेकऑफ या उठान पाने के लिए मशीनों को बहुत ज्यादा जोर लगाना पड़ता है। नासा ने इसका तरीका ऐसे निकाला कि उसने इंजेन्युइटी या इनजेनिटी नामक इस हेलीकॉप्टर (रोटरक्राफ्ट) को बहुत छोटा और हल्का बनाया, लेकिन उसके ब्लेडों (पंखों) को ढाई हजार चक्कर प्रति मिनट की दर से घूमने की शक्ति दी। पंखों को ताकत देने वाले दो रोटर्स वाले इस 1.8 किलोग्राम वजनी हेलीकॉप्टर ने सोमवार को नासा के जेट प्रोपल्शन लेबोरेटरी में बैठे विज्ञानियों इंजीनियरों के भेजे निर्देशों के मुताबिक 40 सेकेंड की अपनी उड़ान पूरी कर ली। तय किए गए कार्यक्रम के मुताबिक इस हेलीकॉप्टर को हवा में 10 फीट की ऊंचाई तक जाना था और आधा मिनट से कुछ अधिक समय तक हवा में स्थिर रहने के बाद अपने चारों पैरों की सहायता से मंगल की सतह पर वापस लैंड करना था। जेपीएल के इंजीनियरों के अनुसार मंगल से आई तस्वीरों और डाटा से साबित होता है कि हेलीकॉप्टर ने ठीक उसी तरह उड़ान भरी जैसा तय किया गया था।

नासा को उम्मीद है कि इस सफलता से सुदूर अंतरिक्ष की दुनिया की ओर ज्यादा मालूमात हासिल करने के तौर-तरीकों में भारी तब्दीली आ सकती है। साथ ही, मंगल ग्रह के अलावा सौरमंडल के दूसरे ग्रहों-उपग्रहों की करीबी पड़ताल में पहले से ज्यादा सटीकता आ सकती है। अब मुमकिन है कि शुक्र ग्रह और शनि के चंद्रमा टाइटन की खोजबीन के काम में ऐसे ही हेलीकॉप्टरों या ड्रोन्स का इस्तेमाल किया जाए। यदि मंगल तक इंसान की यात्रा संभव हुई तो हो सकता है कि वहां पहुंचकर अंतरिक्षयात्री हेलीकॉप्टरों की मदद से उसकी सतह का जायजा लें। उल्लेखनीय है कि नासा ने पहले से ही शनि ग्रह से सबसे बड़े चंद्रमा (उपग्रह) टाइटन के लिए एक हेलीकॉप्टर मिशन को मंजूरी दे रखी है। योजना है कि ‘ड्रैगनफ्लाइ’ नामक इस मिशन को आगामी दशक के मध्य में टाइटन पर उतार दिया जाएगा और तब वहां इसकी उड़ान संचालित की जाएगी। सवाल है कि आखिर पृथ्वी के अलावा दूसरी दुनिया की जमीनों पर हेलीकॉप्टरों की उड़ान की जरूरत क्यों पड़ गई है, जबकि यह काम बेहद जटिल या मुश्किल है।

इसकी एक बड़ी वजह है मंगल पर अब तक भेजे गए रोबोटयानों (रोवर्स) का प्रदर्शन। वैसे तो मंगल पर रोबोटिक अभियान या रोवर भेजने का सिलसिला इसलिए शुरू हुआ था, क्योंकि उनके बारे में यह राय बनी थी कि वे अंतरिक्ष यानों के मुकाबले पराए ग्रह पर ज्यादा खोजबीन कर सकते हैं। वे सतह के नजदीक जाकर वहां की सटीक तस्वीरें ले सकते हैं। जरूरत पड़ने पर उस ग्रह की सतह पर इसमें लगे उपकरणों से ड्रिल करके भूगर्भीय अध्ययन के लिए मिट्टी आदि उठाकर उसकी जांच कर सकते हैं। इसके अतिरिक्त उनमें लगे स्पेक्ट्रोमीटर्स और माइक्रोस्कोपिक इमेजर्स ऐसी तस्वीरें ले सकते हैं जो किसी अंतरिक्षयान से लेना संभव नहीं होता।

वर्ष 1997 में नासा ने जब मंगल पर अपना यान मार्स पाथफाइंडर भेजा तो इसके जरिये वहां की सतह पर सबसे पहला रोवर सोजर्नर उतारा। सोजर्नर ने उस वक्त के हिसाब से अच्छा काम किया जिससे उत्साहित होकर नासा ने वर्ष 2003 में स्पिरिट और अपॉच्र्युनिटी और वर्ष 2012 में एक और उन्नत रोवर क्यूरियोसिटी मंगल पर भेजा। इनमें से अपॉच्र्युनिटी रोवर में लगाए गए मोबाइल मौसम स्टेशनों के बारे में दावा है कि वे अब भी मंगल के वायुमंडल की लगातार जानकारी दे रहे हैं। नासा का सबसे नया रोवर र्पिसविरेंस है जो इसी साल मंगल पर पहुंचा है। हालांकि इन रोबोटिक यानों से मंगल की काफी जानकारी मिली है, लेकिन विज्ञानी महसूस कर रहे हैं कि मंगल पर जीवन की संभावना तलाशने और अन्य वैज्ञानिक परीक्षणों के लिहाज से रोबोटिक यानों की अपनी सीमाएं हैं। सतह पर उनकी चाल धीमी है और उसमें भी अभी अनेक प्रकार की बाधाएं हैं।

मिसाल के तौर पर इस साल 18 फरवरी को मंगल पर पहुंच चुका रोवर र्पिसविरेंस लाल ग्रह पर 19 दिनों में महज आधे घंटे तक ही चल पाया है और सिर्फ साढ़े छह मीटर की दूरी तय की है। नासा का कहना है कि इस गति से तो र्पिसविरेंस करीब दो वर्ष की अवधि में मंगल सतह पर करीब 15 किमी तक का सफर ही तय कर सकेगा। इस मामले में वर्ष 2004 में मंगल पर पहुंचे रोवर अपॉच्र्युनिटी ने कुछ हद तक संतुष्ट किया है। रोवर स्पिरिट के समान इसका कार्यकाल सिर्फ 90 सोल्स (मंगल ग्रह के दिनों की संख्या जो पृथ्वी के 92.5 दिनों के बराबर है) तक तय था, लेकिन यह 2018 के अंत तक 14 साल और 46 दिनों सक्रिय रहा। 10 जून 2018 को जब इसने आखिरी बार नासा से संपर्क किया, तो यह उस वक्त तक 45 किमी की दूरी तय कर चुका था। हालांकि स्पिरिट भी वर्ष 2009 में एक चट्टान में अटकने के पूर्व तक काम करता रहा और वर्ष 2010 में उसका संचार अंतिम रूप से बंद हो गया। इस तरह धीमी चाल और अन्य समस्याओं के मद्देनजर विज्ञानियों की राय थी कि किसी तरह चंद्रमा और मंगल आदि ग्रहों पर रोवरक्राफ्ट्स या हेलीकॉप्टर उड़ाए जा सकें तो वे वहां के काफी बड़े इलाके का अनुसंधान कर सकेंगे और उनके किसी चट्टान आदि में अटक जाने की आशंका भी नहीं रहेगी।

सुदूर ग्रह पर जीवन सूत्रों की संभावनाओं को लेकर निरंतर पड़ताल: अमेरिकी अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन नासा के अलावा चीन और संयुक्त अरब अमीरात के मार्स मिशन भी इस साल मंगल तक पहुंचने में कामयाब रहे हैं। नासा का रोवर मंगल की सतह पर उतर चुका है, इससे हेलीकॉप्टर की उड़ान भी कराई जा चुकी है, जबकि अमीरात का प्रोब-होप मंगल ग्रह की परिक्रमा करते हुए उसका अवलोकन करेगा। खास बात यह है कि पिछले साल जुलाई में प्रक्षेपित किए गए ये तीनों ही मिशन अपनी खूबियों के कारण काफी विशेष हैं। जैसे यूएई की बात करें तो अरब जगत और पश्चिम एशिया ही नहीं, किसी भी मुस्लिम देश की तरफ से मंगल पर भेजा गया यह पहला मिशन है। ब्रिटिश दासता से आजादी की 50वीं वर्षगांठ मना रहे संयुक्त अरब अमीरात के लिए यह जश्न का भी एक अवसर है। चीन के बहुउद्देशीय मिशन तिआनवेन-1 में भारतीय मंगलयान की तरह एक र्ऑिबटर, एक लैंडर और एक रोवर शामिल है जो मंगल की सतह, उसके नीचे और ऊपर यानी वातावरण के बारे में और जानकारी जुटाएंगे।

उम्मीद की जा रही है कि इससे अंतरिक्ष में जीवन के लिए जरूरी पानी और जीवनदायी गैसों की मौजूदगी का कोई नया सूत्र मिल सकता है। इन हालिया मंगल अभियानों से इस चर्चा को भी बल मिला है कि दुनिया में कोरोना वायरस के उत्पात के मद्देनजर विज्ञानी इस प्रयास में हैं कि किसी तरह पृथ्वी से बाहर इंसानी बस्तियां बसाने का कोई जुगाड़ हो सके, ताकि भविष्य में धरती पर मानव प्रजाति के भविष्य को लेकर कोई संकट या महाविनाश जैसी स्थितियां पैदा होती हैं तो कुछ इंसानों को मंगल के सुरक्षित माहौल में भेज दिया जाए और पृथ्वी पर हालात सुधरने के बाद वे यहां वापस आकर जीवन का सिलसिला नए सिरे से शुरू कर सकें।

मंगल पर जीवन की संभावनाओं की खोज के जरिये वैज्ञानिक यह साबित करना चाहते हैं कि मंगल अब तक के अनुमानों के विपरीत एक सूखा और बंजर ग्रह नहीं है। इसका एक मजबूत आधार मंगल की सतह पर मौजूद पानी है, जिसके बहने के संकेत मिलते रहे हैं। इस संबंध में वर्ष 2015 में अमेरिकी स्पेस एजेंसी नासा के प्लैनटरी साइंस डायरेक्टर जिम ग्रीन ने नासा के अंतरिक्ष यान ‘मार्स रीकॉनिसेंस र्ऑिबटर’ से लिए गए चित्रों व प्रेक्षणों के आधार पर यह दावा किया था कि मंगल की एक सतह पर ऊपर से नीचे की ओर बहती हुई धाराओं के प्रमाण हैं। करीब पांच मीटर चौड़ी और सौ मीटर तक लंबी इन जलधाराओं के बारे में अनुमान है कि मंगल पर तापमान या फिर र्सिदयों में ये गायब हो जाती हैं और तापमान बढ़ने पर यानी र्गिमयों में एक बार फिर प्रकट हो जाती हैं।

‘नेचुरल जियोसाइंस’ नामक जर्नल में प्रकाशित एक अध्ययन में एरिजोना विश्वविद्यालय के खगोल वैज्ञानिक अल्फ्रेड मैकइवेन ने कहा कि यह खोज साबित करती है कि मंगल ग्रह के वातावरण में पानी की अहम भूमिका है। यानी कभी इस ग्रह पर पानी अवश्य था। यह भी हो सकता है कि मंगल की अंदरूनी संरचनाओं में पानी अब भी मौजूद हो। हालांकि मंगल को लेकर अभी तक हमारी जो समझ बनी है, उसमें वहां मानव के बसावट का कोई प्रबंध हो पाना दूर की कौड़ी लगता है। इसके अलावा मौजूदा रॉकेटों की जो गति है, उनसे यदि किसी इंसान को वहां भेजा जाएगा तो एकतरफा रास्ते में ही मोटे तौर पर सात महीने का लंबा अरसा निकल जाएगा। खाने-पीने, ऑक्सीजन और सुदूर अंतरिक्ष यात्रा के सारे जोखिम उठाने के बाद अगर किसी तरह से कोई इंसान मंगल तक पहुंच भी गया तो वहां उसके जीवित बचे रहने की कोई संभावना बनेगी, इसे लेकर अभी तो कोई आश्वस्ति नहीं मिली है। ऐसे में फिलहाल अमेरिका, चीन और संयुक्त अरब अमीरात के मंगल अभियानों को भावनात्मक और विज्ञान संबंधी महत्व से जरूर जोड़ा जा सकता है।

[असिस्टेंट प्रोफेसर, बेनेट यूनिवर्सिटी, ग्रेटर नोएडा]