गिरीश्वर मिश्र। हम सबको इससे अवगत होना चाहिए कि बहुत दिन नहीं हुए जब भारत भूमि में बड़े प्रयोजन के लिए छोटे प्रयोजन या हित का त्याग करने की एक परंपरा थी। इस परंपरा के तहत कुल के लिए निजी सुख, गांव के लिए कुल, जनपद के लिए गांव और देश के लिए सब कुछ न्योछावर कर दिया जाता था। इसके लिए कोई विषाद न होता था। देश के लिए कुछ कर गुजरने की भावना क्या-क्या करा सकती है, इसकी एक अनोखी मिसाल हैं नेताजी सुभाष चंद्र बोस। उनके लिए देश की स्वाधीनता के लक्ष्य के आगे सब कुछ छोटा पड़ता गया। उन्होंने उसकी राह में आने वाली हर मुश्किल को पार किया, बिना इसकी परवाह किए कि उसके लिए क्या-क्या खोना पड़ सकता है? अत्यंत मेधावी सुभाष बाबू स्वामी विवेकानंद के विचारों से विशेष रूप से प्रभावित थे। जलियांवाला बाग नरसंहार से वह इतने विचलित हुए कि ब्रिटेन में अपना अध्ययन-प्रशिक्षण बीच में ही छोड़कर भारत लौट आए। उनके जीवन की दिशा ही बदल गई। सुभाष बाबू को स्वाधीनता से कम कुछ भी उन्हें स्वीकार्य न था। वह भगत सिंह और उनके साथियों की फांसी को लेकर भी बड़े व्यथित थे। वह जब यूरोप गए तो उन्होंने सांस्कृतिक-राजनीतिक संबंध विस्तृत करने के लिए विभिन्न यूरोपीय राजधानियों में केंद्र खोले। 1936 में वह यूरोप से लौटे। 1937 के कांग्रेस के हरिपुरा अधिवेशन में सुभाष बाबू को अध्यक्ष चुना गया। अगले अधिवेशन में वह गांधी जी समर्थित पट्टाभि सीतारमैया के विरुद्ध चुनाव लड़कर अध्यक्ष बने। द्वितीय विश्व युद्ध की छाया में सुभाष बाबू प्रस्ताव लाए कि अंग्रेज सरकार छह महीने में भारत को भारतीयों के हवाले करे, अन्यथा उसके खिलाफ विद्रोह होगा। चूंकि गांधीजी इस विचार के समर्थन में नहीं थे तो उन्होंने कांग्रेस अध्यक्ष पद से इस्तीफा दे दिया। उन्हें लगा कि अंग्रेजों से मुक्ति के लिए कड़ाई से लडऩा होगा। इस उद्देश्य से उन्होंने फारवर्ड ब्लाक बनाया। सुभाष बाबू को नजरबंद होना पड़ा, परंतु वह देश की स्वाधीनता को लेकर व्याकुल थे। एक दिन सरकारी अमले को चकमा देकर वह देश की मुक्ति के लिए अंतरराष्ट्रीय मुहिम पर निकल पड़े। यह देश के एक सच्चे सिपाही का एक जोखिम और अनिश्चय भरा बड़ा महत्वाकांक्षी कदम था।

नेताजी छिपते-छिपाते अफगानिस्तान होते हुए मास्को पहुंचे और समर्थन पाने की कोशिश की, मगर बात नहीं बनी। फिर अप्रैल में जर्मनी पहुंचे और जर्मनी एवं जापान का समर्थन पाने का यत्न किया और सफलता भी पाई। जनवरी 1942 से रडियो बर्लिन जर्मन समर्थित आजाद हिंद रेडियो से अंग्रेजी, बांग्ला, तमिल, तेलुगु, गुजराती और पश्तो में रेडियो ब्राडकास्ट शुरू हुआ। 1941 में रेडियो जर्मनी से सुभाष बाबू ने भारतीयों के नाम अपना प्रसिद्ध संदेश दिया था-तुम मुझे खून दो, मैं तुम्हें आजादी दूंगा। दक्षिण पूर्व एशिया पर जापानी आक्रमण के एक साल बाद वह मई 1943 में टोकियो पहुंचे और पूर्वी एशिया में भारतीय स्वतंत्रता संग्राम की कमान संभाली। पूर्वी एशिया में जापानी समर्थन से कामचलाऊ भारत सरकार भी गठित की, जिसे सात देशों की मान्यता भी मिली। फिर वह रंगून एवं सिंगापुर पहुंचे और आजाद हिंद फौज स्थापित की और भारत की ओर कूच किया। इस फौज ने अंडमान निकोबार को स्वतंत्र कराया।

1944 में नेताजी ने रंगून को मुख्यालय बनाया। छह जुलाई 1944 के ऐतिहासिक रेडियो प्रसारण में नेता जी ने कहा था कि जब तक आखिरी ब्रिटिश भारत से बाहर नहीं फेंक दिया जाता और जब तक दिल्ली में वायसराय हाउस पर हमारा तिरंगा शान से नहीं लहराता, तब तक यह लड़ाई जारी रहेगी। शौर्य और अदम्य पराक्रम से भरी नेताजी की गाथा बहुत रोमांचक है, जिसकी वास्तविकता मिथकीय कथा सरीखी लगती है, पर नियति को कुछ और ही मंजूर था। भारतीय सेना जापानी सेना के हवाई समर्थन के अभाव में हार गई। आजाद हिंद फौज का अस्तित्व जापान की हार के साथ काल कवलित हो गया। अगस्त 1945 में जापान ने समर्पण कर दिया। बदलते घटनाक्रम के बीच खबर आई कि 18 अगस्त, 1945 को वायु दुर्घटना में इस उत्कट स्वतंत्रता सेनानी की इहलीला शांत हुई। यद्यपि बहुतों को इस पर विश्वास नहीं हुआ और उनके बचे होने की कहानियां हवा में तैरती रहीं, पर इतना तो सबको लगता है कि स्वतंत्रता के धर्मयुद्ध में देश की स्वाधीनता के विराट प्रयोजन के लिए नेताजी एक-एक कर सब कुछ समर्पित करते गए। वह सही अर्थों में सच्चे नेता थे, जो सबको साथ लेकर चलने के लिए उद्यत थे और निस्पृह रूप से खुद चलकर राह दिखाते थे। उनका अपना कुछ न था, पर वे समूचे भारत के थे। इससे बेहतर और कुछ नहीं कि आज जब देश नेताजी की 125वीं जयंती मना रहा है, तब केंद्र सरकार ने इंडिया गेट पर उनकी भव्य प्रतिमा स्थापित करने का निर्णय लिया।

यह हैरानी की बात है कि कुछ लोगों को यह फैसला रास नहीं आया और वे इस या उस बहाने केंद्र सरकार के फैसले की आलोचना कर रहे हैं। इससे यही पता चलता है कि राजनीति किस तरह खांचों में बंट गई है और उसके चलते महापुरुषों को भी उचित सम्मान देने के फैसले का विरोध होने लगा है। जब सवाल इस पर होना चाहिए कि आखिर नेता जी को अभी तक वांछित सम्मान क्यों नहीं दिया गया, तब दुर्भाग्य से यह सवाल उठ रहा है कि इंडिया गेट पर नेताजी की प्रतिमा स्थापित करने का फैसला कितना सही है? वास्तव में ऐसे ही लोग अमर जवान ज्योति को राष्ट्रीय युद्ध स्मारक की लौ के साथ विलीन करने के फैसले का विरोध कर रहे हैं।

(लेखक पूर्व कुलपति एवं पूर्व प्रोफेसर हैं)