मनु त्यागी। कांग्रेस पार्टी ने हाल ही में 'लड़की हूं, लड़ सकती हूंÓ नारे से उत्तर प्रदेश के चुनाव अभियान का आरंभ करते हुए एक 'पोस्टर गर्लÓ को प्रस्तुत किया। कुछ ही समय बाद पोस्टर गर्ल ने यह कहते हुए स्वयं को अलग कर लिया कि कांग्रेस उनके चेहरे का इस्तेमाल करना बंद करे और किसी दूसरे माडल को चुने। इस घटना के कई मायने निकाले जा सकते हैं। इसे देश में राजनीति को करवट लेने और महिलाओं की चुनावों के प्रति बढ़ती समझ के साथ स्वयं निर्णय लेने की क्षमता विस्तार के तौर पर देखा जाना चाहिए.......

आप क्या सचमुच राजनीति की पोस्टर गर्ल बनना चाहती हैं? अपनी पहचान आरक्षण की दुर्बल सीढ़ी पर चढ़कर ही बनाना चाहती हैं? 'अबला, बेचारगी की टिकुली आपके माथे पर लगाकर टिकट दिया जाए, आप ऐेसा ही चुनाव लडऩा चाहती हैं? या सेलिब्रिटी की पहचान से आकर्षण के जाल में वोट कस लेना चाहती हैं? एक और आखिरी सवाल, क्या वाकई आपको अच्छा फील हो रहा है जब एक पार्टी 40 प्रतिशत टिकट आरक्षण में आधी आबादी को तौल रही है?

ये जरूरी सवाल उन लोगों से हैं जो इस माहौल को गढऩे वाले हैं। या इस समाज से उनकी कन्नी कटी हुई है कि आज 'आधी आबादीÓ स्वाभिमान के साथ स्वालंबन के बूते खड़ा होना सीख चुकी है। उसे ऐसी बैसाखियों की आड़ में 'कोमलÓ समझने का समय नहीं रहा है।

नेताजी सुभाष चंद्र बोस का एक कथ्य है- धर्म का लाभ उठाकर वोट मांगना धर्म का अपमान है। आज के राजनीतिक परिप्रेक्ष्य में इस कथ्य को देखें तो कुछ ऐसा दिखता है- आधी आबादी की निर्बलता का लाभ उठाकर वोट मांगना नारी का अपमान है। दरअसल हाल ही में मतदाता दिवस था तो इस अवसर पर नेताजी सुभाष चंद्र बोस की यह पंक्ति इंटरनेट मीडिया पर सरपट लाइक हुई जा रही थी। नेताजी यदि आज जीवित होते तो यही सोचते कि आधी आबादी को राजनीतिक दलों ने कैसे सेंटीमेंट और सेलिब्रिटी की पुतली बनाकर चुनावी अखाड़े में उतार दिया है। कहां तो उन्होंने उस कठिन दौर में रानी झांसी रेजिमेंट खड़ी कर स्त्री के स्वाभिमान और स्वालंबन को जागृत किया था। निश्चित ही आज के राजनीतिक दलों में आधी आबादी को इस तरह से दयनीयता का पात्र बना हुआ देख नेताजी यही कथ्य गढ़ते और साथ ही ऐसा करने वालों को चेताते भी।

'अंडरएस्टिमेटÓ करना बंद कीजिए : आज जिन संस्कारों से देश पुष्पित और पल्लवित हो रहा है वहां टैलेंट देखा जाता है। उसी के बूते मुकाम हासिल होता है। 21वीं सदी के 22वें वर्ष में आप उन्हें 19 आंक कर 'अंडरएस्टिमेटÓ करें यानी उनके मूल्य को कम करके आंके, यह ठीक नहीं है। बात बात पर हम जिस अमेरिका का उदाहरण देते हैं वह कमला हैरिस को उपराष्ट्रपति बनाकर इतरा रहा है। भारत तो स्वाधीनता के 75वें वर्ष में प्रवेश करने पर अमृत महोत्सव मना रहा है, क्योंकि अब तक वह इस तरह के कई प्रेरक मिसाल पेश करता आया है। राष्ट्रपति से लेकर प्रधानमंत्री तक और राज्यपाल से लेकर मुख्यमंत्री तक यहां राजनीति के गौरवान्वित इतिहास लिखे जाते रहे हैं। फिर ऐसे में राजनीतिक दलों का छुटभैयापन, दुर्बलता, निर्बलता के चश्मे से देखना उनकी राजनीतिक इतिहास की कमजोर समझ का परिचायक ही हो सकता है। कहा जा सकता है कि आधी आबादी के प्रति उनका सोच जिस तरह का है वह निश्चित रूप से उनका इस ओर से असंबद्ध होने की भावना को ही प्रदर्शित करता है। आज के दौर में तो इस परिपाटी से उबरने की आवश्यकता है कि हम उन्हें पहले बेचारगी की तरह प्रस्तुत करें और जनता रूपी वोट बैंक, विशेषकर महिला मतदाताओं के बीच वोट की पेशकश करें।

दिखावटी आरक्षण : राजनीतिक दल यह घोषणा करते हैं कि चुनाव में टिकट वितरण के दौरान वे महिलाओं को 40 प्रतिशत आरक्षण देंगे। जिस दावे को आज 21वीं सदीं के 22 साल बाद पेश किया जा रहा है, इस तरह की पहल तो 20वीं सदी के सातवें-आठवें दशक से भी पहले ही कर देनी चाहिए थी, जब लंबे समय तक सत्ता में उनका दौर था। इंदिरा गांधी के विचार, उनकी राजनीति से हम सहमत या असहमत हो सकते हैं, लेकिन उनके प्रशासन की अनदेखी नहीं कर सकते। यही कांग्रेस उस दौर में महिलाओं को राजनीति में कितना आगे बढ़ा सकी उसकी तस्वीर देश के समक्ष है। केवल परिवार की वंशावली में महिलाओं को राजनीति में उतारा जाता रहा। तब 'लड़की हूं, लड़ सकती हूंÓ की भावना कहां धूमिल थी। बेटियों के लिए उस दौर में आज की अपेक्षा कहीं अधिक स्वाभिमान जागृत कराने की जरूरत थी। लेकिन आज जब बेटियां अपने दम पर हर क्षेत्र में गौरवगाथा लिख रही हैं तब दिखावटी आरक्षण का ढोल पीटा जा रहा है।

इतना ही नहीं, दिखावटी आरक्षण का चीरहरण भी किया जा रहा है। ऐसे चेहरे तलाशे जाते हैं जो सेंटीमेंट और सेलिब्रिटी से भरपूर हों। अब ये दोनों ही श्रेणी एकदम विपरीत हैं, तो स्वाभाविक है कि टिकट के लिए अलग-अलग चेहरों की भी खोज होती है। रिसर्च होता है। इसी कड़ी में तो उत्तर प्रदेश के प्रचलित उन्नाव कांड में पीडि़ता की मां को टिकट का प्रस्ताव दिया गया। स्वाभाविक है उन्हें क्यों चुना गया? जनता से संवेदनाओं के नाम पर वोट निकलवाने के लिए। अब घर बैठकर तो चुनाव जीता नहीं जाएगा। घर-घर जाकर अपने प्रचार में यही कहना है, 'मैं चूल्हा चौका करने वाली औरत हूं। न भाषण देना जानती हूं। प्रियंका दीदी ने कहा कि आपको बस हाथ जोड़कर कहना है कि मैं दुष्कर्म पीडि़ता की मां हूं, बेटी के साथ जो अन्याय हुआ, उसके लिए यह लड़ाई जरूरी है।Ó

क्या इससे वाकई में दोषियों को सजा मिल जाएगी? क्या राजनीति में संवेदनाएं इतनी सिकुड़ गई हैं और निहायती स्वार्थ में डूब गई हैं कि उन्हें भी स्टंट बनाया जाने लगा? न्याय दिलाने के हितैषी बनने वाले उस वक्त कहां गए थे, जब घटना हुई? तब खुद अपनी पार्टी के बूते न्याय दिलाने की मिसाल पेश की होती तो आज ऐसे षड्यंत्र की जरूरत ही नहीं होती। जनता यूं ही सर माथे लेती। दरअसल वर्ष 2017 में बहुचर्चित रहे उन्नाव दुष्कर्म कांड में पीडि़ता की मां को कांग्रेस ने टिकट देने की घोषणा की है। अन्य राजनीतिक दल भी अब इसके आगे खामोश हैं। इसी तरह की कोशिश कांग्रेस पार्टी द्वारा दिल्ली के विधानसभा चुनाव में भी की गई थी, जब 'निर्भयाÓ की मां के समक्ष चुनावी पासा फेंका गया था।

मिसाल बनें, मोहरा नहीं : दूसरा स्टंट महिला 'सेलिब्रिटीÓ का है। यह प्रचलन राजनीति में पुरातन काल से प्रचलित है। कोई भी राजनीतिक दल इसकी चकाचौंध से दूर नहीं रहा है। जिसकी सत्ता में चांदी हो उसमें तो इसका अधिक आकर्षण भी रहा है, क्योंकि यहां सेंटीमेंट का मामला नहीं है ऐसे में आकर्षण दो तरफा हो जाता है। एक पार्टी का स्वार्थ होता है तो दूसरा पार्टी से जुडऩे वाली महिला सेलिब्रिटी का भी। पुरातन काल से ही चले आ रहे इस स्टंट का लाभ विशुद्ध रूप से जीत-हार तक ही सीमित होता है। यही वजह थी कि बीते वर्षों के दौरान मुंबई से चुनाव हारते ही उर्मिला मातोंडकर ने पार्टी से यूटर्न ले लिया था। ऐसे तमाम उदाहरण हर राज्य के चुनाव के दौरान मिल जाएंगे। उत्तर प्रदेश में ही कांग्रेस से नगमा खुदको आजमा चुकी हैं। हस्तिनापुर से इस बार अर्चना गौतम वोट बटोरने की चाह में चेहरा लेकर उतरी हैं। राजनीति में ऐसे सेलिब्रिटी चेहरों से स्वार्थ पूरे होते आए हैं, लेकिन लोकतंत्र के धनी इस देश की राजनीति का सौंदर्य पोस्टर या मोहरा बनने से नहीं, बल्कि प्रेरक मिसाल बनने से है। आज एक सशक्त महिला के रूप में निर्मला सीतरमण जैसी वित्त मंत्री अन्य देशों के समक्ष भारत के लिए गर्व की अनुभूति कराती हैं। सोचिए राजनीति में आधी आबादी को किस रूप में देखना चाहते हैं? राजनीति की रीढ़ बनी प्रेरक महिलाओं की भांति आगे बढ़ाना चाहते हैं। ये मत भूलिए सेलिब्रिटी जैसे अपवादों से भी आधी आबादी को राजनीति को बचाए रखना आपका ही नैतिक कर्तव्य है। इसलिए मिसाल बनिए, मोहरा नहीं।

नैया खेवनहार से गेमचेंजर तक % चूल्हा चौका की जिम्मेदारी निभा रहीं ग्रामीण परिप्रेक्ष्य की आधी आबादी से वोट उगलवाने को साड़ी, टिकुली, सिंदूर, लिपस्टिक, और जहां जरूरत पड़े तो गुटखा और शराब जैसे प्रलोभन देकर टरका दो! युवा भारत की बालिकाओं को साधने को स्कूटी, साइकिल जो चाहे दे दो वोट ही तो लेना है। फिलहाल तो यही लग रहा है कि 'मुफ्तÓ का प्रलोभन दो, वोट लो। इस जंग में सब जायज है। एक ओटीटी प्लेटफार्म पर प्रसारित किया गया इसी संबंध में एक व्यंग्यात्मक विज्ञापन याद आ रहा है। हालांकि वह विज्ञापन मार्केटिंग रणनीति के तहत निर्मित किया गया है, फिर भी उसका जिक्र यहां समीचीन कहा जा सकता है। दरअसल उस विज्ञापन में लिखा है, 'जहां समझो कि कुछ फ्री दिया जा रहा है, तो समझ जाइए आप वहां उत्पाद के रूप में हैं।Ó राजनीति में फ्री यानी जनता को बहुत कुछ सुविधाएं मुफ्त में देने के वादों की पालिसी पर भी यह तंज बहुत फिट बैठ रहा है। अब आप 'वोटÓ हैं या 'प्रोडक्टÓ खुद तय कर लीजिए, क्योंकि यह बात तो सभी जगह लागू होती है।

एक और बात, क्या आज भी आप महिलाओं को चाहे वे घर के चूल्हा चौका से जुड़ी हैं या फाइटर प्लेन चला रही हैं, उन्हें इतना भोथरा समझे बैठे हैं कि सम्मान देने के बजाय उन्हें इन वादों से बहला देना चाहते हैं। इस नासमझी से उत्तर प्रदेश से गोवा और उत्तराखंड से पंजाब तक सभी चुनावी राज्यों को उबरने की जरूरत है। अब महिला मतदाता को रिझाने से वोट खाते में नहीं जाएगा, बल्कि उसकी शिक्षा, दीक्षा, स्वावलंबन की बात करने से जरूर मत का रास्ता आपको सत्ता तक पहुंचाएगा। यही तो वजह है कि तमाम राजनीतिक दलों में महिला प्रत्याशियों को चुनाव लड़ाने की होड़ मची है। लेकिन वास्तविकता मिसाल के बजाय मोहरा पर आकर टिकी है। राजनीति में गेमचेंजर साबित होने वाली बेटियों की शादी की उम्र 21 वर्ष करने पर आप भले थोथे तर्क देते रहिए, लेकिन 18 की उम्र में प्रवेश करते ही वह सबसे पहले अपना वोटर कार्ड बनवाना नहीं भूलतीं। लगातार मतदान करने में महिला-पुरुष के बीच की घटती खाई इसमें सत्ता की चाहत वालों को डुबो भी सकती हैं और नैया में बैठा खेवनहार भी साबित हो सकती हैं। यदि आंकड़ों से ही भरोसा करेंगे तो आपको सीएसडीएस यानी 'स्टडी आफ डेवलपिंग सोसाइटीजÓ की एक रिपोर्ट पर ध्यान देना चाहिए। यह रिपोर्ट बताती है कि वर्ष 2009 के लोकसभा चुनाव में 43 प्रतिशत महिलाओं ने बगैर किसी की सलाह के वोट दिया था और बीते लोकसभा चुनाव 2019 में अपने बलबूते ही वोट देने का यह आंकड़ा 81 प्रतिशत तक पहुंच गया था। इसलिए इस गेमचेंजर को साधने के लिए प्रलोभन, कथित संवेदनाओं की राजनीति बंद कीजिए।