प्रमोद भार्गव। संस्कृत भाषा को उत्तर प्रदेश के सरकारी विद्यालयों में पढ़ाए जाने के संदर्भ में इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने टिप्पणी करते हुए कहा है कि भारतीय सभ्यता एवं संस्कृति की सबसे प्राचीन भाषा के साथ सौतेली मां जैसा व्यवहार अनुचित है। न्यायालय ने कहा कि जिस लोक कल्याणकारी राज्य पर भाषा के संरक्षण का दायित्व है, वह संस्कृत के शिक्षकों को संविदा पर नियुक्त करने और हटाने की जिम्मेदारी अधिकारियों पर नहीं छोड़ सकती। वर्ष 2013 से इस प्रदेश के विद्यालयों में संस्कृत शिक्षकों के नए पद सृजित ही नहीं किए गए हैं। अलबत्ता हिंदी के अध्यापकों से संस्कृत पढ़ाने की खानापूर्ति की जा रही है, जो संस्कृत के हित में नहीं है।

दरअसल इसके ज्ञान-विज्ञान से जब अंग्रेज चमत्कृत हुए तो उन्होंने इसकी जड़ों में मट़ठा डालने की शुरुआत कर दी थी। वे जान गए थे कि संस्कृत को यदि भारत की पाठशालाओं में पढ़ाया जाना जारी रहेगा, तो भारत में न तो अंग्रेजी सत्ता स्थापित रह पाएगी और न ही अंग्रेजी का वर्चस्व कायम हो पाएगा। तभी से संस्कृत के साथ उपेक्षित व्यवहार जारी है।

भारत में अंग्रेजी साम्राज्य को बनाए रखने की दृष्टि से अंग्रेजों का लक्ष्य था कि बड़ी संख्या में भारतीय आबादी का ईसाई मत में मतांतरण कर दिया जाए। किंतु भारतीय जनमानस अपनी लोक-परंपराओं और उनमें समाविष्ट उत्सवधर्मिता के चलते अपने धर्म, दर्शन, साहित्य, संस्कृति, भाषा और रीति-रिवाजों से इतना गहरा जुड़ा था कि उसे एकाएक सत्ता के किसी हुक्म से जुदा करना आसान काम नहीं था। इसलिए जब पाश्चात्य विद्वानों ने संस्कृत, विद्या और उसके प्रमुख साहित्य का अध्ययन किया तो वे आश्चर्यचकित रह गए। उन्होंने समझ लिया कि यह भाषा तो उच्च श्रेणी की है ही, इसका ज्ञान-विज्ञान भी अद्भुत एवं असीमित है। इसलिए आरंभ में जो अंग्रेज विद्वान संस्कृत को विश्व की सर्वश्रेष्ठ भाषा और ज्ञान का कोष मानने का दावा कर रहे थे, उन्हें आशंका हुई कि इसके दुनिया में विस्तार से कहीं यूरोपियन ही संस्कृत भाषा और वैदिक धर्म के निष्ठावान अनुयायी न बनने लग जाएं।

वैसे संस्कृत का सर्वप्रथम नियमबद्ध अध्ययन विलियम जोंस नामक अंग्रेज न्यायाधीश ने वर्ष 1784 में आरंभ किया था। जोंस ने इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए 'रायल एशियाटिक सोसायटी आफ बंगाल' की स्थापना भी की थी। इस अध्ययन में अनेक अंग्रेज शामिल थे। अध्ययन में शापेन हावर ने पाया कि 'संस्कृत की रचनाएं मानव बुद्धि की सर्वोत्कृष्ट कृतियां हैं।' हम्बोल्ट ने कहा, 'गीता संभवत: गहनतम एवं महत्तम ग्रंथ है। इसे विश्व फलक पर प्रदर्शित करना चाहिए।' फ्रांसीसी लेखक बाप ने संस्कृत को मूल भाषा माना। जर्मन विद्वान मैक्समूलर ने भी वेदों को 'विश्व ज्ञान कोष' कहा।

इन सबके बीच मैकाले के भारत आगमन के साथ धारणाएं बदलने लगीं। लार्ड मैकाले से मिले नीतिगत निर्देर्शों के अनुसार तय किया गया कि यहां के रीति-रिवाज और संस्कृति को जानकर उस पर प्रहार किए जाएं, जिससे भारतीयों को अंग्रेज अर्थात ईसाई बनाया जा सके और ब्रितानी हुकूमत भारत में स्थायी हो जाए। इसीलिए मैकडानल ने 'संस्कृत साहित्य का इतिहास' की भूमिका में लिखा भी है कि 'मैंने यह इतिहास इसलिए नहीं लिखा कि इसमें कोई महान ज्ञान एवं गुणवत्ता है, बल्कि इसलिए लिखा है कि संस्कृत को बेहतर तरीके से जान-समझकर हमेशा के लिए भारत के शासक बने रहें।' साफ है, उनके अध्ययन में दुर्भावना अंतर्निहित थी। इसीलिए शेल्डन पोलाक जैसे विद्वान ने संस्कृत में उल्लेखित ज्ञान से आतंकित होकर इसे मृत भाषा ही घोषित कर दिया था। दरअसल भारत में शिक्षा के माध्यम को लेकर ब्रिटिश संसदीय समिति में विवाद हुआ, तब मैकाले ने दलील दी थी कि पाश्चात्य ज्ञान ही सर्वश्रेष्ठ है। भारतीय भाषाओं में तो कोई ज्ञान है ही नहीं।

संस्कृत के साथ सौतेला बर्ताव इसे देश की राष्ट्रभाषा बना दिए जाने के प्रसंग के समय भी उजागार हो गया था। भारत सरकार ने 1956-57 में संस्कृत आयोग का गठन किया था। इसकी रिपोर्ट के अनुसार, हिंदी को देश की आधिकारिक भाषा बनाने के लिए लाए गए विधेयक को जब संविधान सभा में स्वीकृति नहीं मिली, तब संस्कृत को राष्ट्रभाषा बनाए जाने का प्रस्ताव दिया गया। तब के विधि मंत्री डा. भीमराव आंबेडकर ने इसका पुरजोर समर्थन किया। नजीरुद्दीन अहमद ने संस्कृत का समर्थन करते हुए प्रस्ताव सदन के पटल पर रखते हुए कहा,-ऐसे देश में जहां अनेक भाषाएं बोली जाती हैं, वहां यदि एक भाषा को पूरे देश की भाषा बनाना चाहते हैं तो जरूरी है कि वह किसी भी क्षेत्र की मातृभाषा न हो और सभी के लिए एक जैसी हो। तभी उसे स्वीकारने से किसी एक क्षेत्र विशेष के लोगों को लाभ नहीं होगा और दूसरे क्षेत्र के लोग भाषा के नजरिये से लाचार नजर नहीं आएंगे। यह क्षमता संस्कृत में है, इसलिए यह राष्ट्रभाषा बनने का अधिकार रखती है।-

संस्कृत को हिंदी के स्थान पर आधिकारिक भाषा बनाने के लिए संशोधन प्रस्ताव पेश करते हुए लक्ष्मीकांत मिश्रा ने कहा था, -यदि संस्कृत को स्वीकार किया जाता है तो भाषा के संदर्भ में जो मनोवैज्ञानिक जटिलताएं उत्पन्न की गई हैं, वे सब दूर हो जाएंगी।- परंतु यह प्रस्ताव भी पारित नहीं हो पाया। आखिर में आंबेडकर को कहना पड़ा था कि अंग्रेजी शेरनी का वह दूध है कि जो इसे पिएगा वह दहाड़ेगा ही।

आधुनिक भारतीय भाषा के रूप में संस्कृत : वर्ष 1994 में सर्वोच्च न्यायालय ने निर्देश था दिया कि संस्कृत को आधुनिक भारतीय भाषा के रूप में पढ़ाया जाए। लेकिन वामपंथी बौद्धिकों ने यहां पेच उलझा दिया कि पहले यह सुनिश्चित हो कि संस्कृत वास्तव में आधुनिक भाषा है भी अथवा नहीं? दरअसल जो भी जीवित भाषा होती है, वह लोगों की मातृभाषा होने के नाते निरंतर विकास और बदलाव की प्रक्रिया से गुजरती रहती है, जिससे उसकी विविधता एवं प्रांजलता बनी रहती है। जबकि वर्ष 2011 में इन्हीं तथाकथित बौद्धिकों ने त्रिभाशा फार्मूले के अंतर्गत जर्मन भाषा को आधुनिक भारतीय भाषा के अंतर्गत केंद्रीय विद्यालयों में पढ़ाया जाना आसानी से स्वीकार लिया। किंतु जब 2014 में नरेन्द्र मोदी सरकार ने त्रिभाषा फार्मूला में जर्मन के साथ संस्कृत पढ़ाए जाने का विकल्प दे दिया, तब इसका विरोध हुआ। दलील दी गई कि केंद्रीय विद्यालयों में क्या संस्कृत के छात्र एवं विद्यालयों के अनुपात में शिक्षक हैं? यहां सवाल उठता है कि क्या जर्मन भाषा के शिक्षक हैं? तब मौन छा जाता है। यह सही है कि संस्कृत के शिक्षकों की कमी सभी विद्यालयों में है। इस अभाव के साथ एक अन्य प्रश्न यह भी खड़ा है कि शिक्षक बौद्धिक रूप से इतने सशक्त हैं कि वे संस्कृत के पाठों को उन अर्थों में पढ़ा सकें, जो कर्मकांडीय और अंधविश्वास से जुड़ी जड़ता को दूर करने में सहायक बनें। क्योंकि स्वतंत्रता के बाद संस्कृत अथवा हिंदी को राष्ट्रभाषा बनाने की बात चली थी, तब सांस्कृतिक राष्ट्रवाद से अभिप्रेरित भारतीयों का प्रमुख लक्ष्य था कि पश्चिमी भौतिकवादी संस्कृति से भारतीयों को बचाने में संस्कृत में उल्लेखित ज्ञान और अध्यात्म साबित हो सकते हैं। इस लिहाज से भी जरूरी है कि संस्कृत के पठन-पाठन को राज्य सरकारें गंभीरता से लें और कामचलाऊ शिक्षकों से मुक्ति पाएं। संस्कृत के संरक्षण में ही संस्कृति की सुरक्षा अक्षुण्ण है।

हिंदू पाठ्यक्रम की सुखद शुरुआत : महामना पंडित मदनमोन मालवीय ने जिस परिकल्पना के साथ बनारस के विश्वविद्यालय से 'हिंदू' शब्द जोड़ा था, उस कल्पना ने अब साकार रूप ले लिया है। काश्ी हिंदू विश्वविद्यालय (बीएचयू) के अस्तित्व के बाद पहली बार परास्नातक पाठ्यक्रम (एमए) में हिंदू धर्म, अध्यात्म एवं दर्शन की पढ़ाई भारत अध्ययन केंद्र के अंतर्गत शुरू हो गई है। इस हिंदू अध्ययन स्नातकोत्तर पाठ्यक्रम में भारत और विदेश के 46 छात्रों ने प्रवेश लिया है। इसकी शुरुआत करते हुए प्रो. कमलेशदत्त त्रिपाठी ने कहा कि हिंदू धर्म में अंतरर्निहित एकता के सूत्रों एवं उसकी आचार संहिता को ऋतु, व्रत्त और सत्य से जोड़कर इन्हें अद्यतन संदर्भों में पढ़ाया जाएगा। धर्मो रक्षति रक्षित: सूत्र के अनुसार आज हमें ऐसे विद्वानों को तैयार करने की आवश्यकता है, जो सनातन धर्म और उसकी संपूर्ण ज्ञान परंपराओं का चारों दिशाओं में वैश्विक स्तर पर प्रचार व प्रसार करें। इस परिप्रेक्ष्य में उल्लेखनीय है कि व्यापार के बहाने 1757 में बंगाल की धरती से जिस ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी के शासन की नींव पड़ी, उसने 1858 तक संपूर्ण भारत में अवाम के जबरदस्त विरोध के बावजूद पैर पसार लिए थे। नतीजन कंपनी के शासक वायसराय की पराधीनता ऐसे कानूनों द्वारा लाद दी गई, जिसने भारत के आम नागरिक का नियमन, जिस धर्म और अध्यात्म में अंतर्निहित मान्यताओं के माध्यम से होता था, वे खंडित होती चली गईं।

यदि भारतीयों में मानवीय आचरण का नियमन करने वाला कोई विधि-विधान नहीं था, तो फिर हजारों वर्षों से यह देश कैसे एक वृहद् राष्ट्र के रूप में अपना अस्तित्व बनाए रख सका? जबकि इसी कालखंड में यूनान, रोम और मिस्त्र की सभ्यताएं कानून होने के बावजूद नष्ट हो गईं। अतएव हम कह सकते हैं कि संपूर्ण भारतखंड में उस सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की व्यापक स्वीकार्यता थी, जो मनुष्य को मनुष्यता का पाठ पढ़ाती रही। ऋषि-मुनियों और तत्वचिंतकों द्वारा अस्तित्व में लाई गईं वे मान्यताएं और आस्थाएं ही थीं, जो भारतीय नागरिकों को एक अलिखित आचार संहिता के जरिये अनुशासित करती थीं। आज भी भारतीय सबसे ज्यादा धर्म से ही चरित्रवान और अनुशासित बने हुए हैं। भारतीयों को सबसे ज्यादा जीवनी-शक्ति मिलती है, तो यह आस्थाओं से ही मिलती है। इन्हीं की वजह से भारतीय अन्य देशों के नागरिकों की तरह शोषक, स्वेच्छाचारी और आततायी नहीं बन पाया। गोया, हिंदू पाठ्यक्रम लोक-कल्याण की भावना को भारतीयों में और मजबूत करेगा।वैसे भी हिंदू दर्शन केवल स्वर्ग, नरक और मोक्ष का माध्यम न होकर एक ऐसा आदिकालिक सत्य है, जो अध्यात्म के बहाने विज्ञान के द्वार खोलता है। मानव मष्तिष्क और ब्रह्मांड में उपलब्ध तत्वों को परस्पर चुंबकीय प्रभाव से संबद्ध करता है। इसीलिए भीमराव आंबेडकर भी हिंदू धर्म को पूरी तरह नजरअंदाज करने के पक्ष में नहीं थे। उनका मानना था कि इस दर्शन की उपयोगिता को व्यवहार के स्तर पर उतारकर प्रासंगिक बनाने की जरूरत है। परंतु तात्कालिक सत्ताधीश माक्र्सवादी धर्म की घुट्टी पिलाने के लिए तो सहमत हो गए, परंतु इसके उलट हिंदू आध्यात्मिक दर्शन को सुनियोजित ढंग से बहिष्कृत करने में लग गए। जबकि माक्र्सवाद स्वयं में एक दर्शन है और उसकी अपनी रूढि़वादिताएं हैं।

( लेखक वरिष्‍ठ पत्रकार हैं )