[रिजवान अंसारी]। Delhi Assembly Election 2020 : दिल्ली विधानसभा के चुनाव में एड़ी- चोटी का जोर लगाने के बाद भी भाजपा के लिए 21 वर्षों का सूखा खत्म नहीं हो सका। हालांकि 2015 के चुनाव के मुकाबले उसकी सीटों में इजाफा जरूर हुआ है, लेकिन बहुमत के जादुई आंकड़ों को नहीं छू सकी। ऐसे में जब एक के बाद एक राज्यवार चुनावों में भाजपा को हार मिल रही है तब यह जरूरी है कि वह अपनी रणनीतियों पर पुनर्विचार करे। इसमें कोई दो राय नहीं कि एक राजनीतिक दल को चुनाव जीतने के लिए जितनी मेहनत करनी चाहिए थी, उतनी भाजपा ने की।

गृह मंत्री अमित शाह खुद लोगों के दरवाजों पर दस्तक देते हुए दिखे और भाजपा कार्यकर्ताओं का उत्साह सातवें आसमान पर भी दिखा, लेकिन चुनाव परिणाम ने बताया है कि भाजपा की रणनीतियां काम नहीं आ सकीं। झारखंड विधानसभा के चुनाव में भी यही देखने को मिला। भाजपा को अपनी रणनीतियों की खामियों को समझने के लिए छह साल पीछे जाने की जरूरत है।

दरअसल 2014 के आम चुनाव में जब पहली बार भाजपा बहुमत के साथ केंद्र में सत्ता में आई तब कई फैक्टर काम कर रहे थे। उसमें नरेंद्र मोदी की लहर सबसे अहम मानी जाती है। इसी लहर ने भाजपा को देश के कई राज्यों में सत्ता दिलाई। 2014 के लोकसभा चुनाव में भाजपा ने दिल्ली की सभी सातों सीटें जीत ली थीं। तब भाजपा को 46.40 फीसद वोट मिले थे। उसी समय आम आदमी पार्टी को 32.90 और कांग्रेस को 15.10 फीसद वोट आए, लेकिन अगले ही साल यानी 2015 में दिल्ली में विधानसभा चुनाव हुआ तो बाजी एकदम से पलट गई।

भाजपा के वोट फीसद में बड़ी गिरावट आई और यह 32.3 फीसद रह गई, लेकिन ‘आप’ के वोट फीसद में जबरदस्त उछाल आया और उसे 54.3 फीसद वोट मिले। ‘आप’ को लगभग 22 फीसद मतों का फायदा हुआ, लेकिन 2019 में हुए लोकसभा चुनाव में भाजपा को जबरदस्त बढ़त मिली और उसे 56.58 फीसद वोट मिले। नतीजतन वह फिर से दिल्ली की सातों सीटें जीत गई। वहीं ‘आप’ के वोट में जबरदस्त गिरावट आई और उसे महज 18 फीसद वोट ही मिले। अब जबकि 2020 के विधानसभा चुनाव का परिणाम आ गया है तो कहानी लगभग 2015 वाली फिर से दोहराई गई है। सवाल है कि भाजपा और ‘आप’ के वोट-ग्राफ में तेजी से बदलने वाली यह प्रवृत्ति क्या संकेत कर रही है?

दरअसल वोट फीसद का यह ग्राफ संकेत कर रहा है कि लोकसभा और विधानसभा के लिए लोगों की पसंद अलग-अलग है। कोई एक पार्टी दिल्ली की जनता के लिए दोनों ही चुनाव में फिट नहीं बैठती। इससे जो अहम बात निकल कर सामने आती है, वह यह कि जब चुनाव लोकसभा का हो तब लोग राष्ट्रीय मुद्दों पर पार्टी का चुनाव करते हैं और जब मामला विधानसभा का हो, तब लोग स्थानीय मुद्दों पर वोट करते हैं, लेकिन भाजपा के चुनाव प्रचार के तौर-तरीकों से ऐसा मालूम पड़ता है कि वह मतदाताओं की नब्ज पकड़ने में नाकाम है।

भाजपा से जो चूक हुई है वह यह कि भाजपा दिल्ली के पूरे चुनाव प्रचार में स्थानीय मुद्दों पर ठीक से अपनी बात नहीं रख सकी। वह दिल्ली में भी उसी गलती की पुनरावृत्ति करती नजर आई जो कुछ दिन पहले झारखंड में करके सत्ता खो चुकी है। झारखंड में भाजपा की सरकार रहने के बावजूद भाजपा के नेता स्थानीय मुद्दों के बजाय राष्ट्रीय मुद्दों पर बात करते नजर आए थे। उसी तरह दिल्ली चुनाव में भी भाजपा नेतृत्व अनुच्छेद-370, कश्मीर, पाकिस्तान, नागरिकता संशोधन कानून जैसे राष्ट्रीय मुद्दे गिनाता रहा। भाजपा ने यह समझने में गलती की कि दिल्ली की मौजूदा सरकार किस-किस काम को करने का दावा कर रही है और वह किन मुद्दों पर वोट मांग रही है।

जाहिर है, भाजपा को भी उन्हीं मुद्दों पर केजरीवाल सरकार को घेरने की कोशिश करनी चाहिए थी, लेकिन भाजपा यह कर न सकी। भाजपा को अपनी रणनीति तय करने के लिए झारखंड के इसी नतीजे को ध्यान में रखना काफी होता है कि 2019 के लोकसभा चुनाव में उसे 55 फीसद वोट मिले, जबकि 6 माह बाद ही विधानसभा में भाजपा 33 फीसद पर आ गई। लिहाजा जनता ने यह संदेश देने की कोशिश की कि अगर उसकी समस्याओं पर बात नहीं होगी तो वह किसी भी पार्टी को नकार सकती है।

वर्ष 2014 में केंद्र में सत्ता हासिल करने के बाद जब भाजपा कई राज्यों में पहली बार सत्ता में आई तब इसके पीछे कुछ वजहें काम कर रही थीं। उनमें एक वजह यह भी थी कि कई राज्यों में दशकों से एक ही पार्टी की सरकार थी। लोगों को लगा कि सत्ता में परिवर्तन होने से राज्यों को एक नई दिशा मिलेगी और राज्यों में सुधार होगा, लेकिन जब उन्हीं राज्यों में पांच साल बाद दोबारा चुनाव हुए तो एक-एक कर भाजपा के हाथ से सत्ता फिसलती चली गई। इससे पता चलता है कि स्थानीय मुद्दों के मद्देनजर भाजपा से लोगों का मोहभंग होने लगा है। ऐसे में यह जरूरी है कि भाजपा राज्यों के चुनाव में राष्ट्रीय मुद्दों को उठाने से परहेज करे और लोगों की बुनियादी जरूरतों और स्थानीय मुद्दों पर ज्यादा ध्यान केंद्रित करने की रणनीति पर विचार करे।

बहरहाल यह देखने वाली बात होगी कि राज्यों के चुनाव में लगातार मिल रही हार के बाद भाजपा कितनी ईमानदारी से आत्मचिंतन करती है और आगामी बिहार विधानसभा चुनाव में उसकी रणनीति क्या होती है। दिल्ली विधानसभा चुनाव के परिणाम से जो अहम बात निकल कर सामने आई है, वह यह कि लोकसभा चुनाव के दौरान लोग राष्ट्रीय मुद्दों पर पार्टी को वोट देते हैं और जब मामला विधानसभा का हो, तब लोग स्थानीय मुद्दों पर मतदान करते है।

ऐसा लगता है कि स्थानीय मुद्दों के मद्देनजर भाजपा से लोगों का मोहभंग होने लगा है। ऐसे में यह जरूरी है कि भाजपा राज्यों के चुनाव में राष्ट्रीय मुद्दों को उठाने से परहेज करे और लोगों की बुनियादी जरूरतों तथा स्थानीय मुद्दों पर ज्यादा ध्यान केंद्रित करने की रणनीति पर विचार करे। बहरहाल यह देखने वाली बात होगी कि राज्यों के चुनाव में लगातार मिल रही हार के बाद भाजपा कितनी ईमानदारी से आत्मचिंतन करती है और आगामी विधानसभा चुनावों में उसकी रणनीति क्या होती है।

[स्वतंत्र टिप्पणीकार]

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