नई दिल्ली [अनंत विजय]। 2014 में जब केंद्र में नरेन्द्र मोदी की अगुवाई में सरकार बनी थी तब से कई शब्द प्रचारित किए गए, उसमें सबसे प्रचलित हुआ ‘नेरैटिव’। नैरेटिव खड़ा करने के लिए कई तरह के सिद्धांतों और विश्व प्रसिद्ध विद्वानों के कथन भी बार-बार उद्धृत किए जाते रहे हैं। मोदी सरकार के सत्ता संभालने के बाद जो सबसे महत्वपूर्ण नैरेटिव खड़ा किया गया वो था ‘असहिष्णुता’ का।

इस शब्द को सरकार और भारतीय जनता पार्टी की विचारधारा को घेरने के लिए उपयोग में लाया गया। इसकी आड़ ही में कई छोटे-छोटे नैरेटिव और बनाए गए। ‘मॉब लिंचिंग’ से लेकर ‘पोस्ट ट्रूथ’ जैसे शब्दों को प्रचलित कर मोदी सरकार को या यों कहें कि भारतीयता के विचारों के पैरोकारों को, राष्ट्रीयता की बात करने वालों को नीचा दिखाने की कोशिशें हुईं। असहिष्णुता की आड़ में ही पुरस्कार वापसी का प्रपंच रचा गया और उसका इतना शोर मचाया गया कि सरकार के बड़े मंत्रियों को इस मुद्दे पर सफाई देनी पड़ी थी।

असहिष्णुता का जो नैरेट्व खड़ा किया वो ‘मैनफैक्चरिंग कसेंट’ के सिद्धांत के करीब नजर आता है। उन्नीस सौ अठासी में एडवर्ड हरमन और नोम चोमस्की की एक किताब आई थी जिसका नाम था, ‘मैनुफैक्चरिंग कसेंट, द पॉलिटिकल इकोनॉमी ऑफ द मास मीडिया’। इस किताब में ‘व्यवस्थित प्रोपगैंडा’ और ‘मैनफैक्चरिंग कसेंट’ यानि सहमति निर्माण के बारे में बात की गई है।

किसी विषय विशेष को लेकर इस तरह का माहौल बनाया जाए या प्रोपगैंडा किया जाए ताकि आम जनता की उस मुद्दे को लेकर सहमति निर्मित की जा सके। असहिष्णुता और पुरस्कार वापसी को इस विचार की कसौटी पर कसते हैं तो साफ तौर पर ये सिद्ध होता है कि ये पूरा नैरेटिव व्यवस्थित और सुनियोजित प्रोपगैंडा पर आधारित था।

असहिष्णुता का मुद्दा दो हजार पंद्रह के बिहार विधानसभा चुनाव के पहले उठाया गया था और बेहद सुनियोजित तरीके से उसको इस तरह से फैलाया गया था कि परोक्ष रूप से उसका राजनीति लाभ उठाया जा सके। विधान सभा चुनाव के बाद ये मुद्दा शांत भी हो गया था। नरेन्द्र मोदी सरकार के पहले कार्यकाल के दौरान सहमति निर्माण करने की कई कोशिशें हुईं।

इस तरह के प्रोपगैंडा को अंतराष्ट्रीय स्तर पर काम करनेवाले संगठनों और व्यक्तियों का भी साथ मिलता है। पीईन इंटरनेश्नल और रैंकिंग देने वाले अन्य अंतराष्ट्रीय संगठन इस तरह के प्रोपगैंडा में शामिल होते रहे हैं। अपनी रिपोर्टों के माध्यमों से वो सहमति निर्माण के लिए जमीन तैयार करते हैं।

असहिष्णुता के बाद सरकार के विरोधियों, जिनमें वामपंथियों और अशोक वाजपेयी जैसे नव-वामपंथी भी शामिल रहे हैं, ने ‘फासीवाद’ से लेकर ‘अघोषित आपातकाल’ जैसे मसलों पर नैरेटिव खड़ा करने की कोशिशें कीं। दरअसल इस तरह के लोग अपने राजनीतिक आकाओं के लिए परोक्ष रूप से राजनीति का औजार बनते रहे हैं।

जब भी कोई चुनाव आता है तो इनको देश में फासीवाद की आहट सुनाई देने लगती है, देश में अघोषित आपातकाल जैसा माहौल दिखने लगता है। और इन सबके लिए उनको भारतीय जनता पार्टी और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की विचारधारा जिम्मेदार लगने लगती है।

मोदी सरकार के पहले कार्यकाल के दौरान इन सब लोगों ने बहुत जोर शोर से नैरेटिव बनाने का काम किया और कई बार सरकार को बैकफुट पर लाने की कोशिश भी की, लेकिन राष्ट्रीयता और भारतीयता की विचारधारा की ताकत के आगे उनकी ज्यादा चल नहीं पाई। बावजूद इसके खुद को लिबरल विचारधारा के कोष्टक में रखनेवाले ये लोग हार नहीं मानते हैं और जब भी कोई अवसर दिखाई देता है तो नैरेटिव खड़ा करने के काम में लग जाते हैं।

असहिष्णुता के बाद जो सबसे मजबूत नैरेटिव बनाने की कोशिश हुई वो थी ‘अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता’ पर खतरे को लेकर। इसको कला और साहित्य जगत से जोड़कर इस तरह से पेश किया गया कि जैसे देश में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता लगातार बाधित की जा रही हो या फिर कलात्मक स्वतंत्रता को रोका जा रहा हो। इसके लिए मसखरी करनेवाले हास्य कवियों या कॉमेडियनों को लेकर हुए केस मुकदमों को आधार बनाने की कोशिशें भी हुईं।

सरकार के खिलाफ नैरेटिव बनाने वालों को उम्मीद थी कि दो हजार उन्नीस के लोकसभा चुनाव में भारतीय जनता पार्टी कमजोर होगी। लेकिन उनकी उम्मीदों पर पानी फिर गया और राष्ट्रवादी विचारधारा को देश की जनता ने और मजबूती प्रदान की और भारतीय जनता पार्टी दो हजार चौदह के मुकाबले ज्यादा सीटों पर जीत हासिल करके और मजबूत हुई।

दो हजार उन्नीस के चुनावों में मोदी की अगुवाई में हुई जीत से इन कथित उदारवादियों को धक्का तो लगा लेकिन इन्होंने हार नहीं मानी। वो लगातार अपने काम में लगे रहे। विधान सभा चुनावों के वक्त भी उन्होंने फिर से अघोषित आपातकाल से लेकर दलितों के खिलाफ अत्याचारों को लेकर नैरेटिव बनाने का खेल खेला और उनको सहमति निर्माण में आंशिक सफलता मिली। कुछ राज्यों में भारतीय जनता पार्टी चुनाव हार गई।

ये हिदुत्व के खिलाफ भी माहौल बनाते हैं लेकिन जब उग्र हिंदुत्व की पैरोकारी करनेवाली शिवसेना और कांग्रेस महाराष्ट्र में साथ मिलकर सरकार बनाती है तो इन कथित उदारवादियों के मुंह सिल जाते हैं, कलम खामोश हो जाती है। दरअसल ये इस तरह का भावनात्मक मुद्दा उठाते हैं कि जनता इनके झांसे में आ जाती है।

‘लव जिहाद’ जैसे मुद्दे को इन्होंने प्यार पर पहरे से जोड़ने की कोशिश की लेकिन जब उसका विकृत रूप लगातार समाज के सामने आने लगा तो उन्होंने बेहद चतुराई के साथ इस मुद्दे पर अपनी मुखरता कम कर दी। उदारवाद के नाम पर जिस तरह की स्वच्छंदता ये चाहते हैं वो भारतीय संस्कृति या परंपराओं के खिलाफ जाती है और हमारा समाज अभी इसको स्वीकृत नहीं करता है।

अब जब पश्चिम बंगाल, असम, तमिलनाडु और पुडुचेरी में विधान सभा चुनाव हो रहे हैं तब इन कथित उदारवादियों ने एक बार फिर से प्रोपगैंडा के तहत सहमति निर्मित करने की कोशिशें आरंभ कर दी हैं। इस बार इन लोगों ने जो विषय उठाया है वो है ‘अकादमिक स्वतंत्रता’ का।

अब ये आरोप लगा रहे हैं कि केंद्र सरकार केंद्रीय विश्वविद्यालयों से लेकर इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ मैनेजमेंट (आईआईएम) और इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी (आईआईटी) तक के काम काज में दखल दे रही हैं और अपने विरोधियों को किनारे लगाने का संगठित काम कर रही है।

हद तो तब हो गई जब इन लोगों ने एक निजी विश्वविद्यालय के एक प्रोफेसर के इस्तीफे को भी अकादमिक स्वतंत्रता से जोड़कर केंद्र सरकार पर आरोप लगाने शुरू कर दिए। दरअसल अकादमिक स्वतंत्रता का मुद्दा इनके लिए एक ऐसा प्रोपगैंडा है जिसकी आड़ में ये भारतीय जनता पार्टी के विरोधियों को फायदा पहुंचाने की कोशिश कर रहे हैं।

आज ये राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ पर शिक्षा जगत में हस्तक्षेप का आरोप लगा रहे हैं लेकिन ये लोग वो दिन भूल गए जब विश्वविद्यालयों में उनकी ही नियुक्तियां हुआ करती थीं जो लेफ्ट पार्टी के कार्ड होल्डर होते थे या उनके संगठनों के सक्रिय सदस्य हुआ करते थे।

दिल्ली विश्वविद्यालय से लेकर देश के ज्यादातर सरकारी विश्वविद्यालयों ने वर्षों तक ये दौर देखा है। कई प्रतिभाशाली व्यक्तियों को सिर्फ इसलिए उचित जगह नहीं मिल पाई क्योंकि वो वाम का डंडा-झंडा लेकर नहीं चले। भारतीय इतिहास अनुसंधान परिषद और ऐसे ही अन्य संस्थानों में किस तरह की अकादमिक स्वतंत्रता रही है ये अब पूरे देश को मालूम हो चुका है।

नेशनल प्रोफेसरों से लेकर संस्थानों के अध्यक्षों तक की नियुक्तियों में क्या क्या हुआ है वो सब अभिलेखों में दर्ज है। इसलिए जब अकादमिक स्वतंत्रता की बात होती है तो वो खोखली लगती है। ‘कसेंट मैनुफैक्चरिंग’ के ये औजार अब भोथरे हो चुके हैं क्योंकि ये देश अब कथित उदारवादियों की इन चालों को समझ चुका है और उनके झांसे में आनेवाला नहीं है।