सुधीर कुमार। छत्तीसगढ़ के नक्सल प्रभावित बीजापुर जिले में सुरक्षाबलों और नक्सलियों के बीच हुई मुठभेड़ में दो दर्जन जवान शहीद हो गए हैं। हाल के दिनों में यह सबसे बड़ा नक्सली हमला है। इससे पहले 23 मार्च को हुए हमले में पांच जवान शहीद हुए थे, जबकि मार्च महीने की शुरुआत में झारखंड में एक नक्सली हमला हुआ था, जिसमें तीन जवान शहीद हो गए थे। इस तरह पिछले एक महीने में देश के दो राज्यों में तीन नक्सली हमले हुए हैं। आए दिन देश में इस तरह की घटनाएं घटती रहती हैं, लेकिन हर बार हम जवानों की शहादत का बदला लेने की बात तो करते हैं, लेकिन फिर भूल भी जाते हैं। इस तरह की घटनाएं बताती हैं कि नक्सलियों का दुस्साहस लगातार बढ़ता जा रहा है।

केंद्र एवं राज्य सरकारों को नक्सलियों के खिलाफ रणनीति बदलनी होगी। आखिर जवानों की शहादत को हम कब तक व्यर्थ होते देखते रहेंगे? एक तरफ विभिन्न राज्य सरकारों द्वारा आत्मसमर्पण नीति को सरल बनाकर नक्सलियों को मुख्यधारा में जोड़ने की कवायदें तेज की जा रही हैं तो दूसरी तरफ समय-समय पर हो रहीं नक्सली हमले की घटनाएं उन सरकारों के नक्सल-उन्मूलन के दावे पर पानी भी फेर रही हैं। हालांकि यहां यह कहना भी सही होगा कि विकास के असमान प्रतिरूप की वजह से नक्सलवाद की समस्या खत्म होने का नाम नहीं ले रही है!

नक्सलवाद देश की सबसे बड़ी आंतरिक समस्या बन चुका है। वास्तव में 1967 में बंगाल के नक्सलबाड़ी गांव में जमींदारों द्वारा किसानों और मजदूरों पर ढाए जा रहे जुल्मों से उन्हें मुक्ति दिलाने के लिए चलाए गए एक सकारात्मक आंदोलन की गोद से उपजा नक्सलवाद आज अपने मकसद से पूरी तरह भटक चुका है। नक्सलबाड़ी आंदोलन भले ही पारंपरिक हथियारों से लड़ा गया था, लेकिन आज नक्सलियों के पास अत्याधुनिक हथियार हैं, जिसका इस्तेमाल कर वे कई तरीकों से सुरक्षा बलों या ग्रामीणों पर हमले करते रहते हैं। नक्सली देश को दीमक की तरह खोखला कर रहे हैं। सत्ता से लड़ते-लड़ते ये नक्सली अब जनसंहार पर उतर आए हैं। नक्सलवाद पहले केवल एक सामाजिक समस्या थी, पर अब एक राजनीतिक समस्या भी बन चुकी है। नक्सलवाद एक पतित विचारधारा के रूप में देश के समक्ष नासूर बन चुका है। इसका प्रारंभिक उद्देश्य भले ही समाज में समानता स्थापित करना रहा था, लेकिन आज यह बस हिंसा पर केंद्रित हो गया है। सवाल यह उठता है कि क्या प्रचलित शासन व्यवस्था के प्रति नाखुशी व्यक्त करने का एकमात्र तरीका हिंसा ही है?

दरअसल घात लगाकर सुरक्षा बलों पर हमले करना, आम नागरिकों को परेशान करना, सार्वजनिक संपत्ति को नुकसान पहुंचाना, रेल की पटरियां उखाड़ना, बम विस्फोट, अवैध वसूली, अपहरण, डकैती, दुष्कर्म और हत्या जैसे जघन्य अपराध करना नक्सलवाद की पहचान बन चुके हैं। आमतौर पर जंगल नक्सलियों का गढ़ माना जाता है। उनकी सारी ट्रेनिंग जंगल में ही होती है। बेकसूर लोगों को मौत के घाट उतारने या हमला करने के बाद वे जंगलों में ही छुप जाते हैं। हालांकि शहरों में भी इनके ढेरों समर्थक मौजूद हैं, जिन्हें शहरी नक्सली की संज्ञा दी जाती है। नक्सलियों को सबसे ज्यादा मदद मिलती है आसपास गांव में बसे गरीब लोगों से, जिन्हें बहला-फुसला कर वे अपने संगठन में शामिल कर लेते हैं। जो इन्कार करते हैं उन्हें मार देते हैं। ग्रामीणों को वे ढाल के रूप में इस्तेमाल करते हैं। कई बार इसके लिए महिलाओं और बच्चों का सहारा लेते हैं। नक्सली हमले के कारण हमारी सुरक्षा के लिए तत्पर वीर जवानों को असमय शहादत देनी पड़ रही है। देश-सेवा का जज्बा लेकर सेना में भर्ती होने वाले जवान सामान्य जीवन से कोसों दूर रहकर देश की रक्षा के लिए तत्पर रहते हैं, लेकिन कितनी हैरत की बात है कि अपने ही देश में कुछ सिरफिरे लोग उन्हें निशाना बनाकर मार दे रहे हैं।

बहरहाल नक्सलियों को भी सोचना चाहिए कि जब तक एक पीढ़ी संघर्ष नहीं करेगी और लोकतांत्रिक व्यवस्था में जीवन यापन करते हुए उद्देश्यपूर्ण जीवन की तलाश नहीं करेगी तो उनकी आने वाली पीढ़ियों के लिए शिक्षा और रोजगार के द्वार कैसे खुलेंगे? दरअसल नक्सली इस भ्रम में हैं कि मुख्यधारा की दुनिया प्रगतिशील नहीं है। वे न तो संविधान पर भरोसा करते हैं और न ही लोकतांत्रिक सरकारों पर। उन्हें लगता है कि भोले-भाले आदिवासियों को बरगला कर और उन्हें अपने संगठन में शामिल कर सरकारों के खिलाफ लड़ाई लड़ते रहेंगे, लेकिन उन्हें अहसास होना चाहिए कि इस तरह की मानसिकता और सोच के साथ न तो जीवन गुजारना आसान होता है और न ही उद्देश्यपूर्ण जीवन की कल्पना ही की जा सकती है। जरूरत इस बात की है कि वे अपनी रणनीति बदलकर समाज की मुख्यधारा में आएं। मालूम हो कि राज्य सरकारें नक्सलियों के लिए समर्पण और पुनर्वास की नीति को सुगम बनाने पर जोर दे रही हैं। सरकारें अपने स्तर से नक्सलियों को मुख्यधारा से जोड़ने के लिए कई प्रयास भी कर रही हैं। बावजूद इसके नक्सली अनुचित मार्ग पर चलना छोड़ नहीं रहे हैं।

नक्सलियों को भारत के संविधान पर विश्वास करना ही होगा। हथियार छोड़कर उन्हें संवैधानिक तरीके से अपनी बातें रखनी ही होंगी। सरकारें कभी भी बातचीत करने से इन्कार नहीं करती हैं, लेकिन सवाल यह उठता है कि नक्सली क्या बात करने के लिए तैयार हैं? आखिर वे समाधान की राह पर क्यों नहीं चल रहे? क्यों उन्हें लगता है कि आतंक के बल पर ही वे अपनी बातें मनवा सकते हैं? आखिर उन्हें मुख्यधारा में लौटाने की हमारी सारी कवायदें विफल क्यों हो जाती हैं? दरअसल नक्सल समस्या से निपटने के दीर्घकालिक उपायों के तहत नक्सल प्रभावित क्षेत्रों में बड़ी संख्या में रोजगार के अवसरों का सृजन किया जाना चाहिए, जिससे उन क्षेत्रों के बेरोजगार युवा निराश होकर नक्सली समूहों में शामिल न हों।

उन्हें भरोसा दिलाना होगा कि सरकार उसकी सहायता के लिए हमेशा तत्पर है। उन्हें किसी संगठन के समक्ष मदद के लिए हाथ न फैलाना पड़े, यह सरकार को सुनिश्चित करना होगा, तभी उनके मन में यह विश्वास पैदा होगा कि लोकतांत्रिक व्यवस्था ही जीवन-यापन के लिए सवरेत्तम माध्यम होती है। अब समय आ गया है कि सरकार को नक्सलवाद से निपटने के लिए सशस्त्र अभियान के साथ-साथ नक्सल प्रभावित पिछड़े क्षेत्रों में व्यापक पैमाने पर विकास तथा रोजगार सृजन के कार्य पर ध्यान देना चाहिए। शिक्षा, संचार, परिवहन जैसे आधारभूत सुविधाओं से उस क्षेत्र को जोड़ने की पहल करनी चाहिए। वहां स्कूल, कॉलेज, अस्पताल और उद्योगों का जाल बिछाना होगा। गरीबी, बेरोजगारी के उन्मूलन के साथ लोगों के हितों की रक्षा करनी होगी। आदिवासियों को जागरूक करना होगा, ताकि वे नक्सलियों के बहकावे में न आएं। हम सबको मिलकर एक ऐसा माहौल बनाना होगा, जिसमें नक्सलवादी सोच दस्तक न दे पाए।

[अध्येता, बनारस हिंदू विश्वविद्यालय]