[ सतीश कुमार ]: पाकिस्तान के पूर्व प्रधानमंत्री नवाज शरीफ और उनकी बेटी मरयम की गिरफ्तारी से पाकिस्तान की राजनीति में एक नया मोड़ आया है। पाकिस्तानी चुनाव से ठीक पहले शरीफ का यह दांव साफ संकेत करता है कि वह सेना के साथ दो-दो हाथ करने के लिए तैयार हैं। बीते दिनों मरयम शरीफ ने ट्वीट किया था कि पाकिस्तान के लोकतंत्र पर जहरीला सर्प बैठा हुआ है। गिरफ्तारी के बाद भी शरीफ के तेवर बदले नहीं हैं। उन्होंने कहा कि हमें देश के लिए जो कुछ करना था, हमने किया और अब जनता की बारी है।

25 जुलाई को पाकिस्तान में चुनाव होने हैं। संसदीय और प्रांतीय चुनाव एक साथ होंगे। वहां सियासी माहौल में सरगर्मियां बढ़ गई हैं। वैसे सब कुछ उसी ढर्रे पर चल रहा है जैसे सेना प्रमुख जनरल कमर जावेद बाजवा तय करते हैं। कहने के लिए पाकिस्तान में निरंतर लोकतांत्रिक व्यवस्था मजबूत हो रही है। 2013 से लेकर 2018 तक लोकतांत्रिक सरकारें अपना कार्यकाल पूरा कर पाई हैं। शक्तियों का हस्तांतरण चुनावी नतीजों के आधार पर हो रहा है। कार्यवाहक प्रधानमंत्री नासीर उल-मुल्क पाकिस्तानी सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश रह चुके हैं। उनकी छवि ठीक ही रही है।

चुनाव में अंतरराष्ट्रीय पर्यवेक्षकों को भी निगरानी के लिए बुलाया गया है। कई विदेशी पत्रकारों को भी निमंत्रण दिया गया है। 272 सीटों के लिए बहुदलीय व्यवस्था के अनुरूप चुनाव संपन्न होगा। चार प्रांतीय विधानसभाओं में भी चुनाव साथ में ही होगा। पाकिस्तान का चुनाव आयोग इस बात की गारंटी दे चुका है कि चुनाव हर लिहाज से निष्पक्ष और स्वतंत्र होंगे। प्रत्येक पार्टी चुनाव आयोग के निर्देशों का पालन करेगी। जिस भी दल को 172 सीटें मिलेंगी, उसकी सरकार बनेगी।

पाकिस्तान के संसदीय चुनाव की भूमिका किसी अन्य देश के लोकतांत्रिक चुनाव की तरह दिखती है। वहीं अगर पर्दे के पीछे के मंजर को देखें तो पूरी सच्चाई महज एक लोकतांत्रिक मंचन दिखाई देता है। सब कुछ पूर्व निर्धारित है। लोकतंत्र की निर्मम हत्या की जा रही है। चुनाव के कुछ दिन पहले पाकिस्तान के सबसे बड़े दल के नेता नवाज शरीफ को 10 साल की सजा दे दी गई। उनकी राजनीतिक उत्तराधिकारी बेटी मरयम को भी नहीं बख्शा गया। यह बात दीगर है कि पाकिस्तानी सेना में अनुशासन और आदेश पालन की एकरूपता है।

सेना अध्यक्ष का आदेश अकाट्य माना जाता है। उसी रिपोर्ट के बाद शरीफ और सेना के बीच धींगामुश्ती शुरू हो गई। सेना ने पूरी तरह से मन बना लिया कि किसी भी तरीके से शरीफ पुन: सत्ता में न आ सकें। पहले चरण में एक के बाद दूसरा आरोप जड़ दिया गया। पुन: संवैधानिक व्यवस्था का उल्लंघन करते हुए अनुच्छेद 62 और 63 के अंतर्गत शरीफ को हमेशा के लिए राजनीतिक परिदृश्य से बाहर फेंक दिया गया। दूसरे चरण में उनकी बेटी, दामाद और भाई को निशाना बनाया गया।

अब सेना तीसरे चरण का दांव चल रही है। पिछले चुनाव में उनकी पार्टी भारी बहुमत से विजयी हुई थी। विशेषकर पंजाब में शरीफ की लोकप्रियता सबसे ज्यादा है। सेना उनकी पार्टी को कमजोर करने का हर एक दांव आजमा रही है। वह आइएसआइ और कई संस्थाओं के माध्यम से उनके महत्वपूर्ण नेताओं को डरा-धमका रही है कि पीएमएल(एन) के मंच से चुनाव मत लड़ो। जो लोग ऐसा नहीं करते, उन्हें जेल में डाला जा रहा है। पीएमएल के उम्मीदवारों का जबरन हस्तांतरण इमरान खान की पार्टी में किया जा रहा है। विस्थापन इतने बड़े पैमाने पर हो रहा है कि तहरीक-ए-इंसाफ के सदस्य हतोत्साहित हैं। इतनी बड़ी तादाद में बाहरी लोग या विरोधी पार्टी के सदस्य उनके बीच आ जाएंगे तो इससे उनके राजनीतिक हित ही प्रभावित होंगे।

पाकिस्तानी चुनाव पर नजर रखने वाले इस बात से भलीभांति परिचित हैं कि सेना की पसंदीदा पाटी तहरीक-ए-इंसाफ है। ये सब क्यों और कैसे हुआ। यह भी समझना कम रोचक नहीं है। पाकिस्तान के 71 वर्षों के इतिहास में तीन वर्ष तक सेना ने सीधा शासन किया। शेष वर्षों में सेना की कोशिश रही है कि छद्म नागरिक शासन के द्वारा ‘डमी’ लोकतंत्र की बहाली की जाए। 2007 में बेनजीर भुट्टो को चुनावी दंगल से हटाने के लिए सेना ने शरीफ का हाथ थामा। तब अत्यंत ही नाटकीय ढंग से पब्लिक रैली के दौरान भुट्टो की हत्या करवा दी गई। उस समय शरीफ सेना के साथ ताल से ताल मिलाकर चल रहे थे। 2013 में जब शरीफ सत्ता में आए तब तक सेना और उनके बीच संबंध मधुर बने रहे। 2016 के बाद परिस्थितियां बदलने लगीं। सेना प्रत्यक्ष सत्ता के पक्ष में नहीं है। परवेज मुशर्रफ के बाद की स्थिति ‘डमी लोकतंत्र’ की रही है।

हर चुनाव में सेना के लिए एक पिट्ठू राजनीतिक दल का होना आवश्यक है। सेना पीएमएल और पीपीपी को पहले आजमा चुकी है। सेना का उनसे भरोसा उठ चुका है। सेना का आतंकी समूहों को भी पूरा समर्थन है। मसलन हाफिज सईद की ही मिसाल लें। चुनावी प्रक्रिया में हाफिज सईद को लेना सबसे सहज था, लेकिन इसमें कई दिक्कतें थीं। सईद की पार्टी का पंजीकरण चुनाव आयोग के अंतर्गत नहीं हुआ था। उस पर मुंबई आतंकी हमले का आरोप भी था। साथ ही पाकिस्तान का एक वर्ग उसे समर्थन नहीं देता। ऐसे हालात में इमरान खान की पार्टी सेना के समीकरणों में फिट बैठी। पिछले दो वर्षों से इमरान ने सेना की तारीफों के तमाम पुल बांधे हैं। इमरान ने ही शरीफ के विरोध में जन आंदोलन शुरू किया था। तब महीने भर तक पाकिस्तान की राजनीतिक व्यवस्था ठप पड़ गई थी। इमरान यह सब सेना की शह पर कर कर रहे थे।

इस चुनाव की निष्पक्षता का महत्वपूर्ण मुद्दा मीडिया को लामबंद करने को लेकर भी है। शरीफ की पार्टी की खबरें मीडिया से गायब होती जा रही हैं। ऐसा करने वाले समाचार पत्र को सेना और खुफिया एजेंसियों द्वारा तंग किया जा रहा है। पाकिस्तान के प्रतिष्ठित अखबार ‘डॉन’ पर शिकंजा कसता जा रहा है। हॉकर्स को हिदायत दी गई है कि इस समाचार पत्र की प्रतियां न बेचें। पत्रकारों को जबरन जेल में डाला जा रहा है। सेना मीडिया पर गिद्ध दृष्टि टिकाए हुए है। इसकी पुष्टि खुद मेजर जनरल आसीफ गफूर ने की है जब उन्होंने कहा, ‘सेना इस बात की निरंतर निगरानी कर रही है कि कौन से लोग देश और सेना के खिलाफ लिख रहे हैं।’

एक वरिष्ठ महिला पत्रकार गुल बुखारी जो निरंतर सेना की आलोचना करती थीं उन्हें न्यूजरूम से ही अगवा करके सैनिक छावनी में नजरबंद कर दिया गया। अब शरीफ की गिरफ्तारी के बाद पाकिस्तान के राजनीतिक समीकरण बदल सकते हैं। वहीं सेना की कवायदों पर किसी को कोई संदेह नहीं है। सेना शरीफ की पार्टी को हराने के लिए हर हथकंडा आजमा रही है।

[ लेखक हरियाणा केंद्रीय विश्वविद्यालय में राजनीति शास्त्र विभाग के प्रमुख हैं ]