[प्रो. निरंजन कुमार]। 21वीं सदी में दुनिया में अपना परचम लहराने के लिए तैयार भारत में हो रहे आम चुनाव के मुद्दों और वैचारिक विमर्शों में जो चीज जाने-अनजाने सबसे अधिक चर्चा में है उनमें एक राष्ट्रवाद भी है। यह इस मायने में ऐतिहासिक है कि स्वाधीनता आंदोलन के बाद पहली बार राष्ट्रवाद पुन: राजनीतिक और बौद्धिक विमर्श के केंद्र में आया है। भाजपा ने जहां राष्ट्रवाद को अपना प्रमुख मुद्दा बनाया है वहीं कांग्रेस और अन्य विपक्षी दल जैसे बहुजन समाज पार्टी, समाजवादी पार्टी, तृणमूल कांग्रेस, राष्ट्रीय जनता दल, टीडीपी, डीएमके और कम्युनिस्ट पार्टियां और उनसे जुड़े हुए तथाकथित उदारवादियों, माक्र्सवादियों और पश्चिम से आक्रांत बुद्धिजीवियों ने राष्ट्रवाद के प्रति तिरस्कार का भाव अपना रखा है। राष्ट्रवाद के प्रति इस तिरस्कार के पीछे जो समझ है वह यूरोप में जन्मे राष्ट्रवाद के प्रभाव में बनी है जिसका जन्म युद्धों के दौरान हुआ और जो अपनी प्रकृति में ही अंध एवं आक्रामक, उदारवादी मूल्यों से रहित और जनता के वास्तविक मुद्दों से दूर होती है, लेकिन भाजपा विरोधी दलों और लिबरल बुद्धिजीवियों की यह सीमा है कि वे इतिहास और घटनाओं को जड़ता में देखने के अभ्यस्त हैं।

भाजपा के संकल्प पत्र में पूरे राष्ट्र और इसके सभी नागरिकों की सुरक्षा और चतुर्दिक प्रगति की जो कामना सन्निहित है वह उसके राष्ट्रवाद को स्पष्ट करती है। संकल्प पत्र जारी होने के बाद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने एक साक्षात्कार में राष्ट्रवाद की व्यापक अवधारणा का खुलासा किया। सवाल है कि क्या वर्तमान चुनाव का एक विवादास्पद मुद्दा राष्ट्रवाद जनता के बुनियादी जरूरतों से जुड़ा हुआ है या नहीं? इस संदर्भ में पश्चिम के ही एक विचारक और हार्वर्ड यूनिवर्सिटी में प्रो. स्टीफन मार्टिन वाल्ट के विचार प्रासंगिक हैं। अंतरराष्ट्रीय संबंधों के यथार्थवादी धारा के समर्थक प्रो. स्टीफन मार्टिन वाल्ट अपने एक आलेख में एक सवाल उठाते हैं कि संसार में सबसे शक्तिशाली शक्ति क्या है? फिर वे खुद ही इसका जवाब देते हैं कि न तो यह वित्तीय शक्ति वाला बाजार है और न ही धार्मिक पुनरुत्थान। न तो इंटरनेट है और न ही परमाणु अस्त्र। उदाहरण और आंकड़ों से प्रो. वाल्ट प्रतिपादित करते हैं कि राष्ट्रवाद दुनिया का सबसे शक्तिशाली विचार और शक्ति है जो व्यक्ति, समाज और देश के लिए सर्वाधिक लाभकारी है। वह आगे कहते हैं कि राष्ट्रवाद एक तरफ भ्रष्टाचार, गरीबी, बेरोजगारी आदि समस्याओं से लड़ने में मददगार होता है तो दूसरी ओर देश की आर्थिक प्रगति में भी अहम भूमिका निभाता है।

अमेरिका और यूरोपीय देशों के अतिरिक्त जापान, चीन और कोरिया आदि की अभूतपूर्व आर्थिक प्रगति के पीछे राष्ट्रवाद और पूरे राष्ट्र को ध्यान में रखकर बनाई गई आर्थिक नीतियों और कार्यक्रमों की बड़ी भूमिका रही है। यही नहीं विदेशी आक्रमण और विदेशी गुलामी से बचाने में भी राष्ट्रवाद बहुत कारगर सिद्ध हुआ है। प्रो. वाल्ट वियतनाम जैसे देशों की मिसाल देते हैं जिसके सामने अमेरिका जैसे शक्तिशाली देश को मुंह की खानी पड़ी थी। प्रो. वाल्ट की इस व्याख्या में जो बात अंतर्निहित है वह यह कि राष्ट्रवाद का विचार बिना किसी भेदभाव के, बिना किसी पक्षपात के राष्ट्र में रहने वाले सभी लोगों के कल्याण की कामना से अनुप्राणित होता है। भारत में राष्ट्रवाद एक तरफ जहां अंतरराष्ट्रीय मंचों पर दुनिया के प्रमुख देशों अमेरिका, चीन, रूस, जर्मनी आदि से आंख में आंख डालकर बात करने की ताकत देता है वहीं राष्ट्रीय सुरक्षा की दृष्टि से पाकिस्तान प्रेरित आतंकवाद को उसके घर में जाकर कुचलने का भी साहस रखता है। इसके अलावा नक्सलवाद अथवा पूर्वोत्तर के उग्रवादी अलगाववाद से निपटने में भी राष्ट्रवाद का विचार अहम भूमिका निभा रहा है।

दूसरी ओर इस राष्ट्रवाद का मानवीय चेहरा भी है जो जाति, धर्म, क्षेत्र, भाषा या रंग के आधार पर कोई भेदभाव न कर एकसमान भाव से समस्त नागरिकों के लिए सामाजिक-आर्थिक कल्याण की नीतियां और कार्यक्रम बनाता है। घर-घर शौचालय, गरीब महिलाओं के लिए मुफ्त गैस कनेक्शन, 50 करोड़ गरीबों के लिए आयुष्मान भारत स्वास्थ्य योजना, मुद्रा बैंक स्कीम, प्रधानमंत्री आवास योजना, किसान फसल बीमा योजना राष्ट्र के किसी विशेष राज्य या किसी विशेष जाति या किसी विशेष धर्म के लोगों तक सीमित नहीं हैं। इसके बरक्स विपक्षी दलों को देखें। यह लोकसभा का चुनाव है। अर्थात केंद्रीय सत्ता को चुना जाना है। इसके बावजूद विभिन्न क्षेत्रीय दल राष्ट्रहित की जगह सिर्फ अपने राज्यों के हित की बात ही उठाते हैं। ममता बनर्जी को अपने बंगाल की ज्यादा चिंता है तो चंद्रबाबू नायडू आंध्र प्रदेश के स्पेशल पैकेज तक ही सीमित हैं। नवीन पटनायक ओडिशा में सिमटे हुए हैं तो उमर अब्दुल्ला और महबूबा मुफ्ती की पार्टियां जम्मू-कश्मीर को लेकर खतरनाक बयान दे रही हैं।

समग्र राष्ट्र, राष्ट्र के समस्त नागरिक और राष्ट्रवाद इनके एजेंडा में नहीं है। कुछ अन्य क्षेत्रीय पार्टियां और भी विभाजक राजनीति करते हुए जाति और मजहब का खेल खेलने में लगी हुई हैं। उदाहरण के लिए सपा की विशुद्ध जातिवादी घोषणा कि अगर सरकार में आए तो सेना में एक नया अहीर रेजिमेंट स्थापित करेंगे। यानी जातिवाद के विष-बेल को अब हमारी सेना में भी रोपने की तैयारी, जो पूरी अखंडता से राष्ट्र की रक्षा और विभिन्न आपदाओं में बिना जाति-मजहब के भेदभाव के सबकी मदद करती है। भारतीय सेना में कुछ जातियों के नाम पर जो भी रेजिमेंट हैं वे अंग्रेजों के जमाने की हैं, आजादी के बाद जाति के आधार पर कोई रेजीमेंट नहीं बनाई गई। बसपा सुप्रीमो मायावती दलितों को गोलबंद करने के बाद बाद मजहबी सियासत करते हुए मुसलमानों को भी गोलबंद करने में लगी हुई हैं।

राष्ट्रवाद को खराब बताना और राष्ट्र के सभी नागरिकों की चिंता के बजाय अपने क्षेत्र, जाति या मजहब विशेष के लोगों की बात करने वाले ये दल देश और देश के नागरिकों का क्या हाल करेंगे, इसकी कल्पना ही की जा सकती है। एक समय कांग्रेस जरूर राष्ट्रवाद और राष्ट्रीय मुद्दों को उठाती रही थी, लेकिन परिवारवाद के भंवर में उलझकर वर्तमान में कांग्रेस दिशाहीन होकर डूबते जहाज वाली हालत से गुजर रही है। राष्ट्रवाद एक अंधी, भावुक और हवाई परिकल्पना भर नहीं है। प्रो. स्टीफन मार्टिन वाल्ट भी राष्ट्रवाद की ऐसी ही व्याख्या करते हैं, लेकिन हमारे तथाकथित बुद्धिजीवी यह समझने से इन्कार कर राष्ट्रवाद को हेय चीज बताते हैं।

(लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय में प्रोफेसर हैं)