[रिजवान अंसारी]। कोरोना रोधी वैक्सीन यानी टीके पर तमाम अटकलों और विवादों के बीच उसके ‘हराम’ और ‘हलाल’ होने के सवालों ने महामारी के संकट को और गहरा कर दिया है। भारत में वैक्सीन पर सियासी दलों की सियासत को धार देने में मुस्लिम समाज के इस कंफ्यूजन ने अहम योगदान दिया है। इस बहस की शुरुआत दक्षिण-पूर्वी एशियाई और मुस्लिम बहुल देशों इंडोनेशिया और मलेशिया में हुई, लेकिन धीरे-धीरे अब यह बहस भारत में भी पैर पसारने लगी है। दरअसल इस्लाम में उन उत्पादों को ‘हलाल’ कहा जाता है जिनमें ‘हराम’ चीजों का इस्तेमाल नहीं होता है। उदाहरण के लिए सूअर के मांस को इस्लाम में हराम करार दिया गया है, इसलिए इससे बने उत्पाद इस्लाम में वर्जित बताए गए हैं। चूंकि मुस्लिम दुनिया में कोरोना वैक्सीन में सूअर की चर्बी से बने जिलेटिन के इस्तेमाल की चर्चा तेज हो गई है, इसलिए दुनिया भर के मुसलमान धार्मिक कारणों से कोरोना वैक्सीन को लेकर असमंजस की स्थिति में हैं।

मौजूदा वैक्सीन में ‘पोर्क जिलेटिन’ के इस्तेमाल होने का कोई सुबूत नहीं 

हालांकि आमतौर पर वैक्सीन में सूअर की चर्बी से बने जिलेटिन का इस्तेमाल होता रहा है, लेकिन मौजूदा वैक्सीन में ‘पोर्क जिलेटिन’ के इस्तेमाल होने का कोई सुबूत नहीं है। कई वैक्सीन कंपनियों ने भी सूअर की चर्बी के इस्तेमाल की बात को सिरे से खारिज कर दिया है। इस बहस के बीच फाइजर, मॉडर्ना और एस्ट्राजेनेका कंपनियों ने बयान जारी कर कहा है कि उनकी वैक्सीन में सूअर के मांस से बने उत्पादों का इस्तेमाल नहीं किया गया है, लेकिन कई कंपनियां ऐसी भी हैं जिन्होंने यह साफ नहीं किया है कि उनकी वैक्सीन में इसका इस्तेमाल किया गया है या नहीं। यही कारण है कि मुस्लिम दुनिया में चिंता पसर गई है। वैक्सीन के हलाल सर्टिफिकेट की मांग केवल मुस्लिम समुदाय ही नहीं कर रहे हैं। यहूदी समुदाय में भी टीके के इस्तेमाल को लेकर असमंजस की स्थिति है, क्योंकि वह भी सूअर के मांस से बने उत्पादों के इस्तेमाल को धार्मिक रूप से अपवित्र मानता है।

वैक्सीन में जिलेटिन का इस्तेमाल एक स्टेबलाइजर की तरह

सवाल है कि जिलेटिन क्या होता है? जिलेटिन ऐसी चीज है जो जानवरों की चर्बी से प्राप्त होती है। इसे बनाने में सूअर के अलावा दूसरे जानवरों की चर्बी का भी इस्तेमाल किया जाता है। सूअर की चर्बी से मिलने वाले जिलेटिन को ‘पोर्क जिलेटिन’ कहते हैं। दवा बनाने में इसका इस्तेमाल कई तरह से किया जाता है। वैक्सीन में इसका इस्तेमाल एक स्टेबलाइजर की तरह करते हैं। यह जिलेटिन सुनिश्चित करता है कि वैक्सीन स्टोरेज के दौरान सुरक्षित और असरदार बनी रहे। वैक्सीन बनाने वाली कंपनियां कई तरह के स्टेबलाइजर्स पर टेस्ट करती हैं। अब सवाल है कि अगर वैक्सीन में सूअर की चर्बी से बने जिलेटिन का उपयोग किया भी गया है तो क्या यह इतना बड़ा मुद्दा है? सवाल है कि इंसानी जिंदगी को बचाना अक्लमंदी का काम है या धर्म की आड़ में लोगों की जिंदगी को खतरे में डालना?

जान बचाने के लिए ‘हराम’ चीज का भी लिया जा सकता है सहारा

यह सच है कि इस्लाम में सूअर जैसे जानवर को कुरान ने ‘हराम’ करार दिया है। कुरान की सूरह (पाठ) मायदह की आयत नंबर-तीन में अल्लाह कहते हैं, ‘तुम पर सूअर और मरे हुए जानवर का मांस खाना हराम है।’ इसके अलावा कुरान में कई और जगह सूअर के मांस को ‘हराम’ करार दिया गया है, लेकिन इसी कुरान में खुदा ने इसकी काट भी बताई है। सूरह बकरा की आयत संख्या-173 में अल्लाह कहते हैं, ‘कोई शख्स भयंकर भूख की हालत में बिल्कुल मजबूर हो जाए और उस हालत में हराम चीजों में से कुछ खा ले तो उसे गुनाह नहीं समझा जाएगा, क्योंकि अल्लाह माफ करने वाला है।’ इस आयत से साफ है कि अगर इंसान के पास जान बचाने के लिए कोई ‘हलाल’ रास्ता मौजूद न हो तो वह जान बचाने के लिए ‘हराम’ चीज का भी सहारा ले सकता है।

एकतरफा व्याख्या करने से न केवल देश दुनिया, बल्कि कौम को भी होता है नुकसान

इन तर्कों के बीच एक यह तर्क भी पर्याप्त है कि खुदा की नजर में इंसानी जिंदगी की कीमत सबसे ज्यादा है। इसलिए वैक्सीन में चाहे किसी भी चीज का इस्तेमाल किया गया हो, जान बचाने के लिए इस तरह की बहसों में पड़े बगैर लोगों को इसका स्वागत करना चाहिए। इंसानी जिंदगी की कीमत ज्यादा है। उसे ही प्राथमिकता दी जानी चाहिए। यह कतई मुनासिब नहीं होगा कि वैक्सीन में केवल पोर्क जिलेटिन के इस्तेमाल होने भर से लोगों को इससे वंचित कर दिया जाए। हमारे उलेमाओं को चाहिए कि कुरान में दी गई हर परिस्थितियों को सामने रखकर ही किसी नतीजे पर पहुंचें। एकतरफा व्याख्या करने से न केवल देश दुनिया, बल्कि कौम को भी नुकसान होता है। समझने की जरूरत है कि इस्लाम में नियमों को लचीला बनया गया है। किसने सोचा था कि एक समय ऐसा भी आएगा जब लोग एक ही पंक्ति में खड़े होकर दूर-दूर हटकर नमाज पढ़ेंगे, जबकि ऐसा करने की पहले मनाही थी, लेकिन परिस्थिति ने इसे अमलीजामा पहनाया। इसके साथ ही किसने सोचा था कि एक समय ऐसा भी आएगा जब जुमे की नमाज मस्जिद के बजाय घर में ही पढ़नी पड़ेगी, लेकिन कोरोना महामारी ने इसे मुमकिन कर दिखाया।

कहने की जरूरत नहीं कि इंडोनेशिया में ही 2018 में उलेमा काउंसिल ने चेचक और रुबेला के टीकों में पोर्क जिलेटिन की मौजूदगी बताकर उन्हें ‘हराम’ कहा था, लेकिन नाजुक हालात को देखते हुए काउंसिल ने बच्चों को टीका लगवाने की छूट दे दी। इससे नुकसान यह हुआ कि शुरुआत में बने माहौल के चलते बड़ी संख्या में बच्चे टीकाकरण से वंचित रह गए। यानी मुस्लिम समाज को इन बेवजह की बहसों में पड़ने की कोई जरूरत नहीं है। कोरोना वैक्सीन पर किसी भी प्रकार की अफवाहों को दरकिनार कर मुस्लिम समाज को आगे आकर इस टीकाकरण के साथ खड़े होकर नजीर पेश करने की जरूरत है।

(लेखक इस्लामिक मामलों के जानकार हैं) 

[लेखक के निजी विचार हैं]