[ प्रो. राजेंद्र प्रताप गुप्ता ]: एक फरवरी को भारत का बहुप्रतीक्षित बजट पेश होने वाला है। इसे लेकर तमाम उम्मीदें एवं अटकलें लगाई जा रही हैं। कुछ लोग तो इसे इतना बढ़ा-चढ़ाकर पेश कर रहे हैं कि यह 1991 में डॉ. मनमोहन सिंह द्वारा पेश किए गए बजट जैसा रहने वाला है। इस बीच अहम सवाल यही है कि क्या यह वह करिश्मा कर पाएगा जो डॉ. सिंह ने 1991 में किया था? क्या यह भारतीय विकास गाथा की कायापलट करने वाला साबित होगा? क्या यह खपत को बढ़ावा देगा? इन सवालों के जवाब तलाशने होंगे।

1991 में खपत के मोर्चे पर भारत की स्थिति बहुत अच्छी थी

सबसे पहली बात तो यही कि 1991 में खपत के मोर्चे पर भारत की स्थिति बहुत अच्छी थी। तब समस्या भुगतान संतुलन की थी। उस समस्या का समाधान भी एकदम सीधा-सरल था। इससे भी बढ़कर वह विकसित देशों के नेतृत्व वाले विश्व बैंक जैसे संस्थान द्वारा सुझाया गया था। फिलहाल हालात एकदम उलट हैं। हमारे पास पर्याप्त मात्रा में विदेशी मुद्रा भंडार है।

खपत समस्या अप्रत्याशित किस्म का संकट है

अभी समस्या खपत के मोर्चे पर है। यह बहुत अप्रत्याशित किस्म का संकट है। कुछ आंकड़ों पर भी नजर डाल लेते हैं। सकल घरेलू उत्पाद यानी जीडीपी में निर्यात की 20 प्रतिशत हिस्सेदारी है। यह निर्यात भी मंद पड़ा हुआ है। वैश्विक मंदी भी भारत की जीडीपी वृद्धि को एक प्रतिशत तक प्रभावित कर सकती है। फिर भी इस नाटकीय गिरावट की थाह कैसे ली जा सकती है?

जीडीपी वृद्धि आठ से नौ फीसद से सिमटकर पांच फीसद के दायरे में आ गई

नई गणना के आधार पर हमारी जीडीपी वृद्धि आठ से नौ प्रतिशत की ऊंची वृद्धि के दौर से सिमटकर पांच प्रतिशत के दायरे में आ गई है। निश्चित रूप से वैश्विक मंदी ही इसकी इकलौती वजह नहीं है। नोटबंदी ने भी जीडीपी पर प्रहार किया। इससे उपभोग जीडीपी पर तकरीबन दो प्रतिशत तक का असर पड़ा। इस हकीकत से मुंह नहीं मोड़ा जा सकता। जल्दबाजी में और बेतरतीब तरीके से लागू किए गए जीएसटी ने भी और एक-दो प्रतिशत की गिरावट को अंजाम दिया। प्राकृतिक विपदाओं ने ग्रामीण अर्थव्यवस्था को प्रभावित किया और इन सबसे उपजी नकारात्मक धारणा के चलते भी एक-दो फीसद की गिरावट आई।

प्रधानमंत्री के नेक इरादों का जमीनी स्तर प्रभाव कम पड़ रहा

यह समस्या मुद्रा या नकदी की नहीं है। वित्तीय क्षेत्र से जुड़े लोग यह भलीभांति जानते हैं। असल में पेच इस मसले पर फंसा हुआ है कि बहुत बड़ी मात्रा में मुद्रा कुछ चुनिंदा क्षेत्रों पर ही दांव लगाती दिख रही है। मैं दावे के साथ कह सकता हूं कि प्रधानमंत्री बहुत भली मंशा वाले व्यक्ति हैं, लेकिन क्या उनके नेक इरादों का जमीनी स्तर भी उतना प्रभाव पड़ रहा है? इसका जवाब होगा-नहीं।

मोदी की आर्थिक योजनाओं पर तुषाराघात

उन्होंने स्टार्टअप इंडिया योजना शुरू की, लेकिन नौकरशाह एंजल टैक्स ले आए। एक ओर जहां हम ईज ऑफ डूइंग बिजनेस यानी कारोबारी सुगमता के मोर्चे पर स्थिति सुधार रहे हैं, लेकिन कंपनियां घाटा उठा रही हैं और लोगों को नौकरियों से निकाला जा रहा है। हमने डिजिटल इंडिया के रूप में एक महत्वाकांक्षी योजना तैयार की जिसका मकसद एक ट्रिलियन डॉलर की डिजिटल अर्थव्यवस्था तैयार करना था, लेकिन उसके प्रमुख घटकों में से एक दूरसंचार क्षेत्र अपने अस्तित्व के संकट से ही जूझ रहा है। सरकार कॉरपोरेट गवर्नेंस की स्थिति सुधारना चाहती है, लेकिन नियामकीय अतिवाद के मौजूदा परिवेश में भला कौन निदेशक बनना चाहेगा? नौकरशाही अभी भी जड़ता से ग्रस्त है। हमें इसी स्थिति को बदलना होगा। जड़ से सुधार की शुरुआत करनी होगी।

देश की नौकरशाही योजनाओं एवं लोगों के जज्बे को समझने में नाकाम

कुछ हफ्ते पहले की बात है मैं तमिलनाडु में शिक्षा और कारोबारी जगत के लोगों के साथ संवाद कर रहा था। उनसे बातचीत में मुझे अहसास हुआ कि विभिन्न क्षेत्रों से जुड़े भारतीयों में देश को विकसित राष्ट्र बनाने के लिए संभावनाओं-योजनाओं एवं जज्बे का जरा भी अभाव नहीं है, लेकिन देश की नौकरशाही इसे समझने में नाकाम है और वह उनकी योजनाओं को पलीता लगाने का काम करती है। कारोबारी विस्तार की उनकी योजनाओं का उपहास उड़ाया जाता है। जब उन्होंने मुझसे सरकार पर टिप्पणी मांगी तो मुझे कहना पड़ा, ‘जहां तक इरादों और मंशा की बात है तो हमारे पास सर्वकालिक बेहतरीन प्रधानमंत्री हैं, लेकिन बाकी बातों के बारे में मैं ऐसा नहीं कह सकता।’

हमें देश की अर्थव्यवस्था की सच्चाई स्वीकार करनी होगी

फिलहाल हमें सच्चाई स्वीकार करनी होगी कि हम एक गंभीर समस्या से जूझ रहे हैं और उसे सुलझाने के लिए खुले दिमाग के साथ काम करना होगा। इसमें सभी को साथ लेना पड़ेगा। आज जरूरत केवल बदलाव की नहीं, बल्कि सभी प्रमुख मोर्चों पर नए सिरे से शुरुआत करने की है और यह बजट के दायरे से बाहर का मसला है।

अगर सरकार कारोबार हितैषी होती तब वह कर अधिकारियों को दंडित करती

इसमें अलीगढ़ के एक कचौड़ी विक्रेता का ही उदाहरण लें जो सालाना 60 लाख रुपये की कमाई के मामले में कर चोरी में पकड़ा गया। ऐसा नहीं हो सकता कि अलीगढ़ में कर अधिकारियों को इसकी भनक न हो। अगर सरकार कारोबार हितैषी होती तब वह कर अधिकारियों को दंडित करने के साथ ही उस आदमी को कर अदा करने के प्रति जागरूक करती। साथ ही उससे कारोबार बढ़ाने के नुस्खे भी जानती जिसे अन्य लोगों के साथ साझा करके इस जमात में औरों को भी जोड़ा जा सकता जो इतनी कमाई करने में सक्षम हो सकें।

जहां प्रोत्साहन से काम चले वहां सरकार दंडात्मक कार्रवाई करती

इसके उलट जहां प्रोत्साहन से काम चले वहां सरकार दंडात्मक कार्रवाई करती है। जब बैंकर, अधिकारियों और कारोबारियों को प्रवर्तन एजेंसियों द्वारा जेल भेजा जाएगा तो भला कोई क्यों निवेश करना चाहेगा? जब संपदा सृजन को टेढ़ी नजर से देखा जाए तो कोई क्यूं ही निवेश करके जांच एजेंसियों को आमंत्रण देगा? ऐसी स्थिति में सरकार को कारोबार के लिए अनुकूल परिवेश तैयार करने पर काम करना होगा।

खराब आर्थिक परिदृश्य को दुरुस्त करना बजट के बूते से बाहर है

खराब आर्थिक परिदृश्य और नकारात्मक धारणाओं के चलते इस साल सबसे ज्यादा छंटनियों की आशंका गहरा रही है। इसका समाधान भी बजट के बूते से बाहर है। पिछले साल बजट में चार प्रमुख घोषणाएं हुई थीं, लेकिन उनका भी अपेक्षित लाभ मिलता नहीं दिख रहा। हमारे समक्ष एक दुरूह चुनौती है। चूंकि मौजूदा हालात से सबसे ज्यादा युवा ही प्रभावित हो रहे हैं तो उनमें बेचैनी भी बढ़ती जा रही है। ऐसे में भारतीय विकास गाथा में नई जान फूंकने के लिए सरकार को 1991 के दांव से भी कुछ बढ़कर आजमाना होगा।

आइएमएफ ने कहा- भारत में आर्थिक सुस्ती वैश्विक वृद्धि को प्रभावित करेगी

आइएमएफ की मुख्य अर्थशास्त्री गीता गोपीनाथ ने कहा कि भारत में आर्थिक सुस्ती वैश्विक वृद्धि को प्रभावित करेगी। वहीं अगर हमारी घरेलू अर्थव्यवस्था मजबूत रहेगी तब वैश्विक मंदी से भी हमें बहुत ज्यादा फर्क नहीं पड़ेगा। सरकार के पास एक हफ्ते का समय है कि वह भारतीय विकास गाथा को नई ऊर्जा दे। सरकार ऐसा कर सकती है और उसे यह अवश्य करना भी चाहिए। बजट को आशाओं और अटकलों से परे जाकर आवश्यक एवं ढांचागत मुद्दों का समाधान तलाशने की मिसाल पेश करनी होगी।

( लेखक लोक नीति विशेषज्ञ हैं )