[ संजय गुप्त ]: अयोध्या में राम के जन्म स्थान पर मंदिर निर्माण के लिए राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और विश्व हिंदू परिषद के साथ-साथ संत समाज ने मोदी सरकार पर दबाव बढ़ा दिया है। उनकी मांग है कि उच्चतम न्यायालय की ओर से अयोध्या मामले की सुनवाई टालने के बाद केंद्र सरकार कानून बनाकर या अध्यादेश लाकर राम मंदिर निर्माण की राह साफ करें। हिंदुओं को नैतिक रूप से सबल करके वैभवशाली राष्ट्र का निर्माण करने के उद्देश्य से स्थापित संघ के लिए अयोध्या में मर्यादा पुरुषोत्तम राम के नाम का मंदिर निर्माण एक महत्वपूर्ण मसला है। वह विवादित ढांचा गिराए जाने के पहले से ही मंदिर निर्माण के लिए आंदोलनरत है। यह आंदोलन 1992 में चरम पर पहुंचा और कारसेवकों ने विवादित ढांचा गिरा दिया।

अयोध्या ढांचा गिरने का राष्ट्र्र पर जैसा असर पड़ा उसकी सामाजिक और राजनीतिक टीस आज तक महसूस की जा रही है। जो लोग मंदिर निर्माण का विरोध कर रहे हैं वे इस सवाल का जवाब देने को तैयार नहीं कि अगर अयोध्या में राम के जन्म स्थान पर मंदिर नहीं बनेगा तो और कहां बनेगा? आखिर जब इसके पुख्ता प्रमाण मिल चुके हैं कि बाबर के सेनापति मीर बकी ने राम मंदिर को ढहाकर मस्जिद बनवाई थी तब फिर वहां मस्जिद बनाने के लिए जिद क्यों? यह हैरानी की बात है कि इस जिद को कुछ राजनीतिक और सामाजिक संगठन हवा देने में लगे हुए हैैं और इसी कारण वे अयोध्या के विवादित स्थल से मिले पुरातात्विक साक्ष्यों की अनदेखी कर रहे हैैं।

इसमें कोई संदेह नहीं कि मंदिर निर्माण के विरोध का एक बड़ा कारण वोट बैंक की राजनीति है। इसी राजनीति से ग्रस्त होकर कांग्रेस और अन्य दलों ने अयोध्या विवाद को सुलझाने की कोई ठोस पहल नहीं की। धीरे-धीरे अयोध्या में राम मंदिर का निर्माण एक राष्ट्रीय मुद्दा बन गया। इस मुद्दे को जब संघ और भाजपा ने अपने एजेंडे में लिया तो विपक्षी दलों ने मंदिर निर्माण के अपने विरोध को और तेज कर दिया। यह मसला उनके लिए मुस्लिम तुष्टीकरण का हथियार बन गया। ऐसे ही हालात में 1989 में लालकृष्ण आडवाणी की ओर से राम मंदिर निर्माण के लिए शुरू की गई रथयात्रा ने अयोध्या मसले को सतह पर लाने में महत्वपूर्ण भूमिका अदा की।

मंदिर मुद्दे पर बनी लहर के कारण केंद्र में अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में राजग की सरकार भी बनी, लेकिन गठबंधन राजनीति की मजबूरी के कारण उसे इस मुद्दे को ठंडे बस्ते में रखना पड़ा। जब 2010 में इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने अयोध्या विवाद में राम मंदिर के पक्ष में अपना फैसला दिया तो ऐसा लगा कि सदियों की प्रतीक्षा पूरी हुई, लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने 2011 में इलाहाबाद उच्च न्यायालय के फैसले पर रोक लगा दी। उम्मीद यह की जा रही थी कि वह जल्द ही अपना निर्णय सुना देगा, लेकिन सात साल बीत गए और फैसला लंबित है।

वर्तमान में किसी के लिए भी यह कहना कठिन है कि सुप्रीम कोर्ट का फैसला कब आएगा? इस मामले की जल्द सुनवाई संबंधी याचिका पेश होने पर एक समय सुप्रीम कोर्ट ने सकारात्मक रवैया अवश्य अपनाया, लेकिन उसके सामने यह एक याचिका पेश कर दी गई कि अयोध्या मामले की सुनवाई के पहले 1994 के उस फैसले पर विचार हो जिसमें कहा गया था कि नमाज पढ़ने के लिए मस्जिद इस्लाम का अभिन्न हिस्सा नहीं है।

सुप्रीम कोर्ट ने इस फैसले पर विचार करने के बाद यह पाया कि उक्त मामले का अयोध्या मसले से कोई लेना-देना नहीं। इसके बाद यह माना गया कि अब इस मामले की दिन-प्रतिदिन सुनवाई का रास्ता साफ हो गया, लेकिन बीते दिनों सुप्रीम कोर्ट ने जब अयोध्या मसले की सुनवाई के लिए नई पीठ बनाने के आदेश देते हुए यह कहा कि यही पीठ जनवरी में बताएगी कि सुनवाई कब होगी तो फिर से निराशा फैल गई।

निराशा के इसी माहौल में यह मांग तेज हुई है कि अयोध्या में राम मंदिर निर्माण के लिए कानून का सहारा लिया जाए। एक ओर जहां संघ कानून बनाने पर जोर दे रहा है वहीं भाजपा के राज्यसभा सदस्य राकेश सिन्हा अयोध्या में राम मंदिर निर्माण के लिए निजी बिल लाने की तैयारी कर रहे हैैं। शायद इसका उद्देश्य विपक्षी दलों के रुख-रवैये की थाह लेना है। देखना है कि विपक्षी दल और खासकर कांग्रेस इस निजी बिल पर क्या रुख अपनाती है?

इधर राहुल गांधी अपने को शिवभक्त बताते और मंदिर-मंदिर जाते दिख रहे हैैं। इस बदलाव का कारण कांग्रेस को यह बात समझ आना है कि मुस्लिम तुष्टीकरण की राजनीति उसे नुकसान पहुंचा रही है। राहुल गांधी इसीलिए नरम हिंदुत्व की राह पर हैैं, लेकिन यह कहना कठिन है कि वह राम मंदिर मसले पर क्या रुख अपनाएंगे? अगर वह इस या उस बहाने अयोध्या में राम मंदिर निर्माण की किसी पहल का विरोध करते हैं तो इससे हिंदुत्व के प्रति उनके अनुराग को लेकर नए सिरे से सवाल उठना तय है।

आरएसएस तो यही चाहेगा कि न केवल कांग्रेस, बल्कि अन्य विपक्षी दल राम मंदिर पर अपना नजरिया साफ करें। इस रणनीति में हर्ज नहीं, क्योंकि यही विपक्षी दल रह-रह कर भाजपा पर यह तंज भी कसते रहते हैैं कि वह राम को भूल गई। इसके बावजूद यदि आरएसएस मोदी सरकार पर अयोध्या में राम मंदिर निर्माण का रास्ता साफ करने के लिए अध्यादेश लाने का दबाव बनाता है तो इससे जनता को यही संदेश जाएगा कि आम चुनाव के पहले माहौल बनाने की कोशिश हो रही है। यह संदेश इसलिए भी जाएगा, क्योंकि बीते चार सालों में संघ ने राम मंदिर को लेकर ऐसी व्यग्रता नहीं दिखाई।

मौजूदा माहौल में बेहतर यही होगा कि संघ के साथ अन्य सामाजिक एवं धार्मिक संगठन और विशेषकर मुस्लिम संगठन इसके लिए आगे आएं कि अयोध्या विवाद आपसी सहमति से सुलझे और वहां राम मंदिर बने। ऐसी पहल इसलिए होनी चाहिए, क्योंकि राम सबके हैैं और राम के बगैर भारत की कल्पना करना मुश्किल है। मुस्लिम पक्ष यह स्वत: समझे तो सबसे बेहतर कि अयोध्या राम के लिए जानी जाती है और वहां बनी कथित बाबरी मस्जिद मंदिर को तोड़कर बनाई गई थी।

इस्लाम के उसूल यही कहते हैैं कि किसी दूसरे की जगह या फिर विवादित स्थल पर मस्जिद बनाना सही नहीं, लेकिन मुस्लिम संगठनों को यह बात इसलिए नहीं समझाई जाती, क्योंकि विपक्षी दल उन्हें बरगलाकर वोट बैैंक की राजनीति करना बेहतर समझ रहे हैैं। इसी राजनीति के कारण अयोध्या विवाद सुलझने का नाम नहीं ले रहा है। चूंकि अयोध्या विवाद की सुनवाई टलने से लोगों को गहरी निराशा हुई है इसलिए आरएसएस और अयोध्या में राम मंदिर निर्माण के आकांक्षी आम लोगों और संगठनों की बेचैनी समझ आती है, लेकिन इसमें संदेह है कि अयोध्या विवाद के समाधान के लिए अध्यादेश लाने से बात बनेगी। शायद यही कारण है कि सरकार इस मसले पर किसी तरह की जल्दबाजी नहीं दिखा रही है। आरएसएस को उसके संकेत समझने चाहिए।

[ लेखक दैनिक जागरण के प्रधान संपादक हैं ]