[ संजय गुप्त]: एक अर्से से यह संभावना जताई जा रही है कि मोदी सरकार बजट सत्र के पहले ही किसानों के कल्याण के लिए कोई बड़ी योजना लेकर आ सकती है। इसका एक बड़ा कारण यह है कि आम चुनाव नजदीक आ गए हैैं और सरकार पर यह राजनीतिक दबाव है कि वह किसानों के लिए कुछ करे। यह दबाव केवल विरोधी दलों की ओर से ही नहीं है, बल्कि खुद भाजपा की ओर से भी है। भाजपा यह चाह रही है कि सरकार किसानों को राहत प्रदान करने की कोई योजना लेकर लाए। हालांकि मोदी सरकार ऐसी योजनाओं के पक्ष में कभी नहीं रही, लेकिन आज भाजपा के लोगों का ही मानना है कि खेती की मूल समस्याओं को दूर करने के लिए सरकार ने दूरगामी नतीजों वाले जो अनेक कदम उठाए थे वे पर्याप्त नहीं साबित हुए।

स्पष्ट है कि अगर किसानों को राहत देने की कोई योजना आती है तो वह इसका उदाहरण होगी कि सरकारें जमीनी हकीकत की अनदेखी नहीं कर सकतीं। ऐसी कोई योजना लाए जाने की संभावना को देखते हुए कुछ अर्थशास्त्री यह कह रहे हैैं कि इससे राजकोषीय घाटे का तय लक्ष्य हासिल करना कठिन हो सकता है। उनके अनुसार अगर ऐसा होता है तो यह अर्थव्यवस्था के लिए ऐसे समय और भी ठीक नहीं होगा जब जीएसटी के जरिये हासिल होने वाला राजस्व लक्ष्य से पीछे चल रहा है, लेकिन ऐसे तर्कों के बावजूद भाजपा अपने राजनीतिक हितों की पूर्ति के लिए किसानों के साथ मध्यम वर्ग को राहत देना जरूरी समझ रही है। वास्तव में ऐसा करना उसकी नैतिक जिम्मेदारी भी है। इसके अतिरिक्त एक वजह यह भी है कि राहुल गांधी किसान कर्ज माफी पर लगातार जोर देते हुए सरकार को घेर रहे हैैं।

यदि चुनावी जरूरतों और साथ ही अपनी जिम्मेदारी पूरा करने के लिए मोदी सरकार किसानों को राहत देने के लिए कोई फैसला करती है तो यह अस्वाभाविक नहीं। वैसे भी किसानों के लिए कुछ करने की जरूरत है और यह किसी से छिपा नहीं कि हर सरकार चुनाव के पहले आम जनता को राहत देने वाले फैसले करती है। अक्सर ऐसे फैसलों के केंद्र में किसान, निर्धन एवं मध्य वर्ग अथवा ये सभी होते हैैं। 2009 के आम चुनाव के पहले मनमोहन सरकार 60 हजार करोड़ रुपये किसान कर्ज माफी योजना लेकर आई थी। इसका उसे चुनावी लाभ भी मिला। यह बात और है कि राजकोषीय घाटे के लक्ष्य को हासिल नहीं किया जा सका और इसके चलते वित्तीय सतुंलन बिगड़ गया।

केंद्र सरकार को केवल राहुल गांधी के कर्ज माफी के राजनीतिक दांव की काट ही नहीं करनी है, बल्कि किसानों का भला भी करना है। यह काम कर्ज माफी जैसी नाकाम नीति के बजाय सीधे खाते में धन हस्तांतरण यानी डीबीटी आधारित किसी योजना से हो तो बेहतर, क्योंकि ऐसी योजना कहीं असरकारी साबित होगी और उसके दुरुपयोग के आसार भी कहीं कम होंगे। पता नहीं सरकार का फैसला क्या होगा, लेकिन उसे इससे प्रेरित नहीं होना चाहिए कि हाल में छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश और राजस्थान में कर्ज माफी की घोषणा कांग्रेस की जीत में मददगार बनी। कर्ज माफी नीति न तो किसानों के हित में है और न ही अर्थव्यवस्था के। इसी कारण रिजर्व बैैंक की ओर से बार-बार यह कहा जा रहा है कि कर्ज माफी की योजना ठीक नहीं।

भले ही विरोधी दल कर्ज माफी को किसान के हित में बता रहे हों, लेकिन सच्चाई यह है कि किसान खेती के लिए कर्ज नहीं लेते। वे खेती से इतर अपनी अन्य जरूरतों को पूरा करने के लिए कर्ज लेते हैैं। इसी कारण न खेती की हालत सुधर रही और न ही किसानों की। किसानों की एक बड़ी समस्या यह है कि उनकी आमदनी नहीं बढ़ रही। सरकार किसानों को राहत देने के लिए डीबीटी आधारित योजना तभी शुरू कर सकती है जब वह कृषि क्षेत्र में अन्य मदों में दी जा रही सब्सिडी को कम या फिर खत्म कर दे। अभी किसानों को कृषि उपकरणों की खरीद और फसल बीमा आदि में छूट के रूप में सब्सिडी दी जाती है। इस सबको खत्म कर किसानों को सीधे कुछ रकम देने से उनके हाथ पैसा पहुंचेगा और वह उसे अपनी जरूरत के हिसाब से खर्च करने में सक्षम होगा। इस तरह की एक योजना तेलंगाना सरकार रैयत बंधु के नाम से चला रही है। ओडिशा सरकार ने इसी तरह की योजना फालिया के नाम से चलाई है। हाल में झारखंड सरकार ने भी इसी तरह की योजना घोषित की है। इसके तहत लघु एवं सीमांत किसानों को प्रति एकड़ एक निश्चित राशि दी जाती है।

अगर केंद्र सरकार तेलंगाना, ओडिशा या झारखंड जैसी कोई योजना लाती है और उसके तहत हर छोटे और सीमांत किसान को प्रति एकड़ कुछ हजार रुपये की सहायता देती है तो मौजूदा राजकोषीय घाटे का स्तर बढ़ सकता है, लेकिन राजकोषीय घाटे की सीमा कोई लक्ष्मण रेखा नहीं है। यह सही है कि रेटिंग एजेंसियां और वैश्विक वित्तीय संस्थाएं यह देखती हैैं कि देश विशेष में राजकोषीय घाटे की क्या स्थिति है और उनकी नजर में राजकोषीय घाटा बढ़ना ठीक नहीं होता, लेकिन इसका यह मतलब नहीं कि जरूरतमंद लोगों की अनदेखी कर राजकोषीट घाटे को अहमियत दी जाए। वित्त वर्ष 2018-19 के लिए मोदी सरकार ने राजकोषीय घाटे का लक्ष्य 3.3 प्रतिशत तय किया था। इसके पहले के वित्तीय वर्षों में सरकार तय लक्ष्य पाने में सफल रही।

चूंकि इस मामले में मोदी सरकार का रिकॉर्ड मनमोहन सरकार से बेहतर है और राजनीतिक ही नहीं, आर्थिक एवं प्रशासनिक लिहाज से भी किसानों की आमदनी बढ़ाने वाले उपाय करना वक्त की मांग है इसलिए वह खर्च बढ़ाकर किसानों को राहत देने की योजना ला सकती है। इसके बावजूद उसे यह ध्यान रखना होगा कि उसकी योजना महंगाई बढ़ाने वाली न साबित हो। महंगाई बढ़ने से कल्याणकारी योजनाओें से आम जनता को मिलने वाले लाभ में कमी आती है और इस तरह सरकार राजनीतिक लाभ उठाने की स्थिति में नहीं रहती। एक तरह से देखा जाए तो भाजपा के सामने दोहरा संकट है। एक ओर उसे विपक्षी दलों के दबाव से मुक्त होना है और दूसरी ओर किसानों को राहत भी पहुंचानी है।

यह सही है कि चुनाव के मौके पर सरकार देश की वित्तीय सेहत की अनदेखी नहीं कर सकती, लेकिन इसी के साथ उसे कमजोर वर्गों की सुध भी लेनी होगी। इसमें कामयाबी तब मिल सकती है जब विपक्षी राजनीतिक दल किसान कर्ज माफी की योजना पर जोर देने के बजाय इस योजना के बेहतर विकल्पों पर विचार करें। इस समय ठीक इसका उलटा हो रहा है। राजनीतिक दल कर्ज माफी सरीखी लोक-लुभावन, किंतु नाकाम नीति पर जोर दे रहे हैैं। ऐसे में मोदी सरकार किसानों के लिए डीबीटी आधारित कोई योजना लाते समय यह ध्यान रखे तो बेहतर कि उससे किसानों को फौरी और साथ ही दीर्घकालिक लाभ मिले तथा वे अपनी आमदनी बढ़ाने में भी सक्षम हों।

[ लेखक दैनिक जागरण के प्रधान संपादक हैं ]