[संजय मिश्र]। मध्य प्रदेश की राजनीति में भ्रष्टाचार का घुन इस कदर घुस गया है कि आम जन के कल्याण की योजनाओं को भी चट करने में गुरेज नहीं है। राजनेताओं की शह पर ठेकेदारों और नौकरशाही के तिकड़म ने किसानों की तकनीकी सहायता के लिए आया धन भी साफ कर दिया। चावल घोटाला का मामला अभी चल ही रहा था कि पावर टिलर घोटाला भी सामने आ गया। पौधरोपण की कागजी कारगुजारी भी खुल गई है। करोड़ों रुपये के वारे-न्यारे कर दिए गए हैं। ताज्जुब की बात है कि घोटालेबाज अपना काम करते रहे और कल्याण की योजनाएं बनाने वाली सरकार मूकदर्शक बनी रही। अब जब मामले खुल रहे हैं तो बचाव में एक-दूसरे पर आरोपों के बाण चलाए जा रहे हैं।

बात शुरू करते हैं 27 विधानसभा सीटों पर उपचुनाव की दहलीज पर खड़े मध्य प्रदेश में एक-एक करके राजफाश हो रहे घोटालों की। उद्यानिकी फसलों में यंत्रीकरण को बढ़ावा देने के लिए केंद्र सरकार ने मध्य प्रदेश के लिए सौ करोड़ रुपये की योजना मंजूर की थी। इसमें किसानों को पावर टिलर यंत्र खरीदने के लिए अनुदान दिया जाना था। यह राशि किसानों के खातों में जमा की जानी थी, लेकिन चहेतों को लाभ पहुंचाने के लिए विभाग के अधिकारियों ने नियम ही बदल दिए। तब की कमल नाथ की सरकार ने आंख मूदकर इसका अनुमोदन भी कर दिया। राशि किसानों को देने की जगह सीधे कंपनियों के खातों में जमा करा दी गई। जाहिर है कि यह सब नेताओं और अधिकारियों की साठगांठ के बिना संभव नहीं था। 

मामला तब खुला जब मंदसौर के दालोदा के किसान मुकेश पाटीदार ने गड़बड़ी की शिकायत लोकायुक्त संगठन की विशेष स्थापना पुलिस से की। प्रारंभिक जांच में इस बात की पुष्टि हुई कि पावर टिलर की खरीद और वितरण में गड़बड़ी की गई है। कांग्रेस और भाजपा के नेताओं के बीच आरोप-प्रत्यारोप का दौर चल रहा है, पर यह साफ है कि किसानों को मदद पहुंचाने के नाम पर करोड़ों रुपये का खेल खेला गया है।

इसी तरह धांधलीबाजों ने मिलीभगत करके पर्यावरण के काम में भी भ्रष्टाचार का रास्ता निकाल लिया। वर्ष 2016 में तत्कालीन शिवराज सिंह चौहान की सरकार ने पवित्र मंशा के तहत नमामि देवी नर्मदे योजना के तहत प्रदेश के 28 जिलों में नर्मदा नदी के दोनों किनारों पर एक-एक किमी के दायरे में पौधरोपण की स्वीकृति दी थी। पौधे खरीदने के लिए 42 करोड़ रुपये खर्च किए गए, लेकिन धांधलीबाजों ने इसमें भी अपना रास्ता बना लिया। 

जमीन पर काम कराए बिना ही रिपोर्ट तैयार कर ली गई कि 25 हजार किसानों को पौधरोपण अभियान से जोड़ा गया और 10 हजार हेक्टेयर में पौधरोपण करा दिया गया। पानी जब सिर से ऊपर उठने लगा तो उद्यानिकी विभाग के ही एक अधिकारी ने घोटाले की पोल खोलते हुए जबलपुर में शिकायत कर दी। जांच हुई तो राजफाश हुआ कि पौधे कागजों में ही लगा दिए।

जांच रिपोर्ट आ चुकी है और सख्त कार्रवाई के लिए सरकार के इशारे का इंतजार है। हाल में प्रकाश में आए चावल घोटाले ने प्रदेश की राजनीति में बवंडर खड़ा कर रखा है। प्रदेश में 1.6 करोड़ से ज्यादा परिवारों को हर माह सार्वजनिक वितरण प्रणाली के तहत गेहूं और चावल उचित मूल्य पर दिया जाता है। 

कोरोनाकाल में आठ लाख 85 हजार प्रवासी परिवारों को प्रधानमंत्री गरीब कल्याण अन्न योजना के माध्यम से मुफ्त अनाज दिलवाया गया। केंद्र सरकार ने एक किलोग्राम दाल देने की व्यवस्था भी की थी। इसकी काफी प्रशंसा भी हुई, पर अगस्त में केंद्र सरकार की एक जांच से जो सामने आया, उससे सब किए धरे पर पानी फिर गया।

प्रदेश के बालाघाट और मंडला इलाकों के कुछ गोदाम और उचित मूल्य की एक दुकान से चावल के नमूने लेकर जांच कराई गई तो वह पोल्ट्री ग्रेड का पाया गया। केंद्र सरकार ने राज्य को भेजी रिपोर्ट में बताया कि यह चावल मनुष्य के खाने योग्य नहीं है। मामला गंभीर था और आमजन के स्वास्थ्य से जुड़ा था, इसलिए केंद्र सरकार ने इसकी जांच कराई। इसमें 22 जिलों में 73 हजार टन से ज्यादा चावल निम्न गुणवत्ता का पाया गया।

यह पहला मौका नहीं है जब गोदामों में इस तरह गुणवत्ताहीन गेहूं या चावल पाया गया। इसके पहले भोपाल के कुछ गोदामों में गेहूं में बड़े पैमाने पर मिट्टी पाई गई थी। गोदामों पर छापे मारे गए और जब्ती की कार्रवाई भी हुई, लेकिन समय गुजरने के साथ मामला ठंडा पड़ गया। धान और गेहूं की खरीद में गड़बड़ी के भी अनेक मामले हैं। कई जगह अभी भी धान के ऐसे ढेर मौजूद हैं, जो पानी में भीग जाने से खराब हो गए हैं और उसमें अंकुरण हो गया है। अब इसकी छंटाई करके मिलर को दिया जाएगा। 

वे चावल बनाकर गुणवत्ता की जांच की औपचारिकता पूरी कराकर गोदामों में जमा कर देंगे, क्योंकि गुणवत्ता की जांच करने के लिए नागरिक आपूर्ति निगम के पास अमला ही नहीं है। आउटसोर्स के माध्यम से जैसे-तैसे काम चलाया जा रहा है। इतनी बड़ी व्यवस्था को चलाने के लिए कभी ठोस प्रयास भी नहीं किए गए। यही वजह है कि सेवानिवृत्त हो चुके भारतीय खाद्य निगम और राज्य नागरिक आपूíत निगम के अधिकारियों के हाथों में गुणवत्ता की जांच की कमान दी गई है। एक अधिकारी के पास कम से कम दो जिलों का प्रभार है। गोदामों की जिम्मेदारी कनिष्ठ सहायक तक संभाल रहे हैं। जाहिर है गुणवत्ता परीक्षण की कमजोरी भ्रष्टाचार को जन्म देगी ही।

 (नवदुनिया, स्थानीय संपादक, भोपाल)