[ जगमोहन सिंह राजपूत ]: देश के लाखों मजदूर अमानवीय यातनाएं झेल रहे हैं। ऐसा विकास किसका प्रयोजन साधता है जहां लाखों मजदूर असहाय स्थिति में पहुंच जाते हैं? ये लोग कितनी ही आशाएं लेकर अपना गांव-घर छोड़कर प्रवासी बने थे, लेकिन असहाय अवस्था में लौटने को बेबस हुए। उनकी आशा का एकमात्र केंद्र उनका गांव है। वही गांव जिसे उन्हें जीवन निर्वाह के लिए, परिवार के लिए कुछ कर गुजरने के लिए छोड़ना पड़ा था। परिस्थितिवश वे शहरों में भूखे, बेचैन, पराये, अवांछित बन गए। जो उद्योगपति कर्नाटक में मजदूरों की रोटी-पानी की व्यवस्था करने आगे नहीं आए उन्होंने अपने स्वार्थ के लिए मजदूरों को गांव ले जाने वाली रेलगाड़ियां रुकवा दीं।

कैसी विडंबना है कि मजदूरों का अपना गांव दूर हो गया

कैसी विडंबना है कि जिस वैश्विक गांव में दूरियों के समाप्त होने की गर्व के साथ चर्चा होती थी उसी में मजदूरों का अपना गांव दूर हो गया। गांव अपना होता है वहां पड़ोसी-धर्म का पालन होता है, वहां परंपरागत संस्कृति जीवित है। प्रवासी मजदूर इस विश्वास के साथ लौट रहे हैं कि अपनों के बीच की सूखी रोटी में जो सुख है वही इस कठिन समय में जीवन को संबल दे सकता है।

गांवों में अब आधार कार्ड है, शौचालय वाला घर है, सड़क है, बैंक खाता है 

गांवों में पिछले कुछ वर्षों में अनेक सार्थक परिवर्तन हुए हैं, अब वहां आधार कार्ड है, शौचालय वाला घर है, सड़क है, बैंक खाता है। सरकार इन खातों में किसान सम्मान निधि और अन्य सहायता सीधे भेज रही है। इसमें देर इस कारण लगी, क्योंकि आजादी के बाद सत्तासीनों ने गांव-किसानों और खेती से नजर फेर ली थी।

विकास की अवधारणा पर गहन पुर्निवचार की आवश्यकता है

भारत के विकास की अवधारणा तो साबरमती, पवनार या शांति निकेतन में ही जन्म ले सकती है। हार्वर्ड, कैंब्रिज या न्यूयार्क में नहीं। हमने अपने घर के खिड़की दरवाजे इस कदर खोल दिए कि बाहर की हवाओं ने जो कुछ हमारा अपना था, उसे हमसे इतना दूर कर दिया जितना अंग्रेजों ने भी नहीं किया था। कुल मिलाकर विकास की अवधारणा पर गहन पुर्निवचार की आवश्यकता है।

राष्ट्रीय संकट के समय एक वर्ग केवल सत्ता वापसी के लिए सपने बुनने में व्यस्त

इस राष्ट्रीय संकट के समय भी एक वर्ग अपने लिए केवल सत्ता वापसी के सुनहरे सपने बुनने में ही व्यस्त है, जनसेवा का मजबूत आधार भुलाकर केवल मौखिक आक्रमण का सहारा ले रहा है। मजदूरों की दयनीय दशा पर जो राजनीति हो रही है वह सभ्य समाज के लिए शर्मनाक ही मानी जाएगी। जब चुनाव होता है तब हर दल के कार्यकर्ता हर मोहल्ले में दिखाई देते हैं। आज जब देश में अनेक स्वयंसेवी संस्थाएं, लाखों सहृदय व्यक्ति निस्वार्थ भाव से मजदूरों के लिए भोजन-पानी की व्यवस्था कर रहे हैं और सरकारी प्रयासों में हाथ बंटा रहे हैं तब ये कार्यकर्ता कहां हैं?

कांग्रेस महाराष्ट्र, राजस्थान, छत्तीसगढ़ में लोगों के खाने-रहने की व्यवस्था करती तो देश उत्साहित होता

देश जानना चाहेगा कि प्रत्येक राष्ट्रीय या क्षेत्रीय दल ने अपने कार्यकर्ताओं के जरिये कितने मजदूरों के खाने-रहने की व्यवस्था की। जो कांग्रेस अपने सेवादल के लिए जानी जाती थी, वह मजदूरों का रेल का किराया देने की घोषणा केवल इसीलिए करती है, क्योंकि वह जानती थी कि यह स्थिति आएगी ही नहीं। सरकार स्वयं इसकी व्यवस्था करेगी। आज यदि महाराष्ट्र से यह खबर आती कि पिछले माह कांग्रेस के इतने लाख सेवा दल कार्यकर्ता धारावी में कार्यरत हैं या छत्तीसगढ़ में इतने लाख लोगों के खाने- रहने की व्यवस्था हुई है या जयपुर में अस्पतालों में इतने कांग्रेसी कार्यकर्ता पुलिस और अस्पतालों में सहायता कर रहे हैं तो सारा देश उत्साहित होता।

बिहार और यूपी में भी आरजेडी, सपा, बसपा ने मजदूरों पर सियासत तो की, लेकिन मदद नहीं की

कितना अच्छा होता कि तेजस्वी यादव अन्य राज्यों में बस भेजने की घोषणा करने के स्थान पर बिहार के मुख्यमंत्री से कहते कि उनके युवा-कार्यकर्ता राज्य के 10-15 जिलों में मजदूरों के खाने- रहने की जिम्मेदारी ले रहे हैं। यही कार्य अखिलेश यादव कर सकते थे। कहीं और नहीं तो इटावा-मैनपुरी का ही जिम्मा ले लेते, लेकिन ये और इनके जैसे अनेक राजनेता केवल आरोप-आलोचना-आक्रोश के त्रिकोण में ही फंसकर रह गए। बहन मायावती के कार्यकर्ता तो उत्तर प्रदेश के गांव-गांव फैले हुए हैं, वे कहां गए?

नेताओं का जनसेवा ही लक्ष्य होना चाहिए

आखिर कमल नाथ इस समय कितने मजदूरों का दु:ख-दर्द दूर कर रहे हैं? मैं ये कुछ नाम इसलिए लिख रहा हूं, क्योंकि जनता ने इन सब पर कभी न कभी विश्वास किया और वे सत्ता में रहे हैं और फिर सत्ता में आना चाहते हैं। जनसेवा ही इनका लक्ष्य होना चाहिए। अभी इसकी जितनी आवश्यकता है उतनी पहले कभी नहीं थी। कितना अच्छा होता कि कुछ नामी गिरामी नेता स्वयंसेवक बनकर भोजन बांटते, न कि अपने कार्यकर्ताओं की टीशर्ट पर अपना चित्र प्रचारित कर संतुष्ट होते।

राहुल गांधी रघुराम राजन से देश की समस्याओं का समाधान खोज रहे हैं 

कुछ राजनेता केवल उन्हीं सलाहकारों पर विश्वास करते हैं जो पश्चिम की सभ्यता को मानव-सभ्यता का चरम उत्कर्ष मानकर उसी में रचे-बसे हैं। देश के सबसे बड़े दल के अध्यक्ष रह चुके और लंबे समय से प्रधानमंत्री पद के लिए प्रतीक्षारत नेता राहुल गांधी कभी वर्ल्ड-बैंक-प्रिय अर्थशास्त्री रघुराम राजन से साक्षात्कार कर देश की समस्याओं का समाधान खोज रहे हैं और कभी नोबेल विजेता अभिजित बनर्जी से। शायद उनके पास समय काफी है। वह वायनाड से सांसद हैं, अमेठी के पूर्व-सांसद हैं। वह दोनों स्थानों की सुध ले सकते थे।

मजदूरों के लिए क्षेत्रीय सांसद रोजगार देने की योजनाएं बनाएं

आने वाले समय में देश के दिहाड़ी मजदूर, प्रवासी मजदूर, विस्थापित मजदूर, अन्य कामगार अपने सांसदों से अपेक्षा करेंगे कि वे उनके रोजगार और सामान्य जीवन यापन की आवश्यकताओं की आपूर्ति के लिए व्यावहारिक योजनाएं बनाकर उनके सामने रखें। लौटे हुए प्रवासियों को रोजगार के अलावा अच्छे स्कूल और स्वास्थ्य केंद्र चाहिए।

गांधी ने लिखा था- मजदूरों को मित्रों की आवश्यकता है, वे नेतृत्व के बिना कुछ नहीं कर सकते

गांधी के विचारों का गहन अध्ययन कर भारत की अर्थव्यवस्था को नई दिशा दी जा सकती है। गांधी जी ने यंग इंडिया के 11 फरवरी 1920 के अंक में मजदूरों पर लिखा था कि मजदूरों को मित्रों की आवश्यकता है। वे नेतृत्व के बिना कुछ नहीं कर सकते। देखना यह है कि यह नेतृत्व उन्हें किस किस्म के लोगों से मिलता है, क्योंकि उससे ही मजदूरों की भावी परिस्थितियों का निर्धारण होने वाला है। साफ है कि गांधी ने जो सौ साल पहले लिखा वह आज भी सच है।

( लेखक शिक्षा एवं सामाजिक सद्भाव के क्षेत्र में कार्यरत हैं )