कपिल अग्रवाल। मौसम का मिजाज बिल्कुल बदल चुका है और उसने सेटेलाइट युक्त अत्याधुनिक व प्रगति के दावे करने वाले वर्तमान मानव युग को उसकी सीमाओं व सामथ्र्य का स्पष्ट बोध करा दिया है। अन्य ग्रहों पर जीवन की खोज कर बसने बसाने का सपना देखने दिखाने वाले विशेषज्ञ इस धरती के एक मामूली से अवयव मौसम तक का मिजाज सटीक तौर पर नहीं जान पा रहे हैं। मानसून के कायम रहने और उसकी वापसी के कई अनुमान धराशायी हो चुके हैं। मौसम विज्ञानियों के हवाले से जारी किए जाने वाले अधिकांश पूर्वानुमान इस बार गलत सिद्ध हुए हैं। स्पष्ट है कि अत्याधुनिकता का दावा करने वाली अधिकांश मौसम शोधशालाओं में व्यापक सुधार की दरकार है।

भारतीय मौसम विभाग ने भी हाल ही में यह स्वीकार किया है कि उसके पूर्वानुमान इस वर्ष लगभग 40 फीसद तक गलत रहे हैं। दिल्ली, हरियाणा और पश्चिमी उत्तर प्रदेश जैसे देश के कई हिस्सों में तो बरसात अनुमान के विपरीत मात्र 30 फीसद ही दर्ज की गई है, जबकि दूसरी ओर कई क्षेत्रों में अनुमान से 50 फीसद ज्यादा। दरअसल इस विभाग की स्थापना का मूल उद्देश्य मानसून की वास्तविक स्थिति से किसानों को आगाह कराना था, ताकि वे अपनी फसलों की बोआई व तत्संबंधी व्यवस्थाएं समय रहते कर लें, लेकिन यह न तो समय की रफ्तार पकड़ पाया और न ही किसानों का मददगार बन पाया। इसके बजाय आज भी किसान अपने पुराने संकेतों के सहारे इससे ज्यादा बेहतर पूर्वानुमान लगा लेते हैं।

सामान्य तौर पर सितंबर माह के पहले सप्ताह तक मानसून की 80 फीसद वापसी हो जाती थी, पर इस बार देश के कई राज्यों में अक्टूबर के पहले सप्ताह में भी मानसून वापसी का सटीक अनुमान लगाने में मौसम विशेषज्ञ असफल हुए हैं। दरअसल पृथ्वी विज्ञान मंत्रलय के तहत आने वाले इस 145 साल पुराने विभाग का बजट लगभग 410 करोड़ रुपये है और अभी कुछ माह पूर्व ही इस विभाग के प्रभारी मंत्री ने माना कि वैश्विक स्तर पर मौसम के पूर्वानुमान बाबत नई तकनीकें प्रयुक्त की जा रही हैं और इस विभाग की कार्यप्रणाली तथा तकनीक में सुधार के साथ ही सही व सटीक पूर्वानुमान लगाने तथा वैश्विक मानकों के अनुरूप ढालने व आधुनिकीकरण के लिए बजट में वृद्धि के साथ ही व्यापक पैमाने पर अतिरिक्त रकम की आवश्यकता है।

बहरहाल, प्रकृति के इतने बड़े परिवर्तन का पूर्वानुमान न लगा पाना निश्चय ही न केवल मौसम संबंधी अत्याधुनिक शोधशालाओं की कार्य प्रणालियों और उनकी क्षमताओं पर तमाम सवाल खड़े करता है, बल्कि इससे हैरानी भी होती है। इतना ही नहीं, मौसम व जलवायु संबंधी निगरानी के नाम पर छोड़े गए अत्याधुनिक उपग्रहों की उपयोगिता पर भी सवाल उठना भी लाजमी है। यह बेहद गहन शोध का विषय है और इसे महज जलवायु परिवर्तन या प्रकृति से छेड़छाड़ आदि मामूली जुमले देकर नहीं टाला जा सकता। खासकर हमारे देश के संदर्भ में शोध की जरूरत इसलिए भी ज्यादा है, क्योंकि हमारी अर्थव्यवस्था मुख्य रूप से कृषि पर आधारित है और कृषि व्यापक रूप से मानसून पर। हकीकत में इसका चक्र मौसम के पूर्वानुमान संबंधी समस्त व्यवस्था व प्रक्रियाओं को नए सिरे से पुनर्गठित करने की मांग करता है। बारिश को लेकर मौजूदा बुनियादी मानक वर्ष 1941 के दरम्यान स्थापित किए गए थे और अब उनमें से अधिकांश अनुपयोगी सिद्ध हो रहे हैं, जिनमें आमूल-चूल परिवर्तन की आवश्यकता है।

बीते तीन दशकों के आंकड़े बताते हैं कि लगभग 19 बार प्रारंभ में वर्षा सामान्य से कम रही और मध्य में भयंकर तेजी झलका कर वक्त से पहले ओझल हो गई यानी तेज व प्रलयंकारी बारिश की घटनाओं में निरंतर वृद्धि हो रही है। और तो और, ज्यादा वर्षा वाला देश का पूवरेत्तर क्षेत्र अब कम वर्षा वाले क्षेत्र में तब्दील होता जा रहा है और इससे कृषि व्यवस्था पर गहरा असर पड़ा है। इस बार दरअसल मानसून बहुत ज्यादा अनियमित व असामान्य रहा है और देश का लगभग चालीस फीसद हिस्सा सूखा रहा। इसके बावजूद देश के साठ फीसद जलाशय फिलहाल जल से सराबोर हैं और उनमें पिछले आधे दशक के औसत के मुकाबले नौ फीसद अधिक पानी है। इसके अलावा कई राज्यों के लिए यह स्थिति बेहद मुफीद मानी जा रही है। बहरहाल, अब बजट को बढ़ाकर देश के मौसम विभाग को नए हालातों का सामना करने के लिए तैयार करने के अलावा सोच और विश्लेषण में बदलाव की ओर कदम बढ़ाना चाहिए, क्योंकि इस पर देश की न केवल संपूर्ण अर्थव्यवस्था, बल्कि करोड़ों किसानों का भविष्य भी निर्धारित होता है।

[स्वतंत्र टिप्पणीकार]