[विवेक कौल]। इस वित्तीय वर्ष की शुरुआत यानी अप्रैल 2018 में एक डॉलर का मूल्य 65 रुपये से थोड़ा अधिक था। 19 सितंबर को डॉलर का मूल्य 73 रुपये से ऊपर बंद हुआ। सभी जानना चाहते हैं कि आखिर ऐसा क्यों हो रहा है? इसे समझने के लिए एक उदाहरण तो सब्जियों और फलों के ऊपर-नीचे होते दाम हैं। प्याज कभी 20 रुपये किलो बिकता है और कभी 70- 80 रुपये किलो भी। प्याज 70-80 रुपये किलो तब बिकता है जब किन्हीं वजहों से उसकी आपूर्ति घटती है परंतु मांग बनी रहती है। यही बात अन्य सब्जियों और फलों पर भी लागू होती है। लगभग यही बात रुपये और डॉलर पर भी लागू होती है। जब कभी डॉलर की मांग बढ़ जाती है तब रुपये का मूल्य गिर जाता है। विश्व व्यापार प्रणाली डॉलर के बलबूते पर चलती है। देश निर्यात करके डॉलर कमाते हैं और फिर उससे ही आयात करते हैं।

भारत निर्यात से ज्यादा आयात करता है। इसकी वजह से हर साल व्यापार घाटा होता है। अप्रैल से अगस्त 2018 के दौरान भारत का व्यापार घाटा 80.5 बिलियन डॉलर रहा। इस वित्तीय वर्ष में 136 बिलियन डॉलर का कुल निर्यात हुआ, पर आयात हुआ 216.5 बिलियन डॉलर का। इसका मतलब यह हुआ कि निर्यात से भारत ने जितने डॉलर कमाए वे आयात के दाम देने के लिए पर्याप्त नहीं। अब प्रश्न उठेगा कि हमारे पास डॉलर आ कहां से रहे हैं? एक तो विदेशी निवेशक डॉलर लाते हैं। यह निवेश या तो प्रत्यक्ष विदेशी निवेश यानी एफडीआइ के रूप में होता है या फिर विदेशी पोर्टफोलियो निवेश के रूप में। जब विदेशी निवेशक प्रत्यक्ष विदेशी निवेश के रूप में डॉलर लाते हैं तो उस पैसे से या तो कंपनियां खरीदी जाती हैं या नई कंपनियां बनाई जाती हैं। पोर्टफोलियो इन्वेस्टमेंट वाला पैसा शेयर बाजार और ऋण बाजार (डेट मार्केट) में लगाया जाता है, लेकिन यह भी ध्यान रहे कि विदेशी निवेशक डॉलर बाहर भी ले जाते हैं।

इस साल अप्रैल से जुलाई के बीच विदेशी निवेशक केवल 4.2 बिलियन डॉलर देश में लाए। इसे शुद्ध निवेश कहा जा सकता है। यह 2014 से अब तक की सबसे कम रकम है। अब विदेश निवेशक ऋण बाजार से अपना पैसा निकाल रहे हैं। उन्होंने यह पैसा अमेरिका और यूरोप से बहुत कम ब्याज दरों पर उठाकर भारत में लगाया था। तब भारत में ब्याज दरें अधिक थीं इसलिए कमाई की गुंजाइश थी। चूंकि अब अमेरिका और यूरोप में ब्याज दरें बढ़ सकती हैं इसलिए विदेशी निवेशक भारत से डॉलर निकाल रहे हैं। यह सिलसिला कुछ समय तक कायम रह सकता है। डॉलर का एक और स्नोत सेवाएं हैं।

हमारी इन्फार्मेशन टेक्नोलॉजी कंपनियां विदेश में अपनी सेवाओं से डॉलर कमाकर भारत लाती हैं। इसी तरह विदेशी पर्यटक भारत आते हैं तो डॉलर रुपये में बदल कर खर्च करते हैं। इस सबसे कुल 25.9 बिलियन डॉलर अप्रैल से जुलाई के बीच देश में आया। यह पिछले साल के मुकाबले 10 प्रतिशत अधिक था। डॉलर का एक और बड़ा स्नोत रेमिटेंस भी है। जो भारतीय देश से बाहर काम करते हैं वे अपने घर पैसा डॉलर के रूप में भेजते हैं। इस साल अप्रैल से जून के बीच रेमिटेंस के जरिये देश में 17 बिलियन डॉलर आया। यह पिछले साल के मुकाबले 18.4 प्रतिशत अधिक था। इसके बावजूद ये सब डॉलर 80.5 बिलियन डॉलर के व्यापार घाटे को भरने के लिए काफी नहीं और इसीलिए डॉलर की मांग बढ़ रही है और उसके मुकाबले रुपये का मूल्य गिर रहा है। भारतीय रिजर्व बैंक ने इस गिरावट को रोकने की काफी कोशिश की।

मार्च के अंत में रिजर्व बैंक का विदेशी मुद्रा भंडार करीब 399 बिलियन डॉलर था। अगस्त के अंत तक वह 376 बिलियन डॉलर पर आ गया। इसका मतलब यह हुआ कि रिजर्व बैंक ने अपने मुद्रा भंडार से डॉलर बेचकर और रुपया खरीद कर डॉलर की आपूर्ति बढ़ाने की जो कोशिश की उससे रुपये का गिरना बंद तो नहीं हुआ, लेकिन गति थोड़ी धीमी जरूर हुई। व्यापार घाटा बढ़ने की बड़ी वजह है तेल के दामों का बढ़ना है। भारत में तेल की जितनी खपत होती है उसका 80 फीसद से अधिक हिस्सा आयात होता है। चूंकि अंतरराष्ट्रीय बाजार में तेल अमेरिकी डॉलर में बेचा जाता है इसलिए जब भी तेल का दाम बढ़ता है, भारत में अमेरिकी डॉलर की मांग बढ़ जाती है। इस साल अप्रैल से अगस्त के बीच कच्चे तेल का औसत दाम करीब 72.9 डॉलर प्रति बैरल रहा, जबकि पिछले साल इसी अवधि में वह 49.6 डॉलर प्रति बैरल था। इसकी वजह से तेल आयात पर हुआ खर्च अप्रैल से जुलाई के बीच 59 फीसद बढ़कर 39.1 बिलियन डॉलर हो गया।

चूंकि भारत निर्यात से पर्याप्त डॉलर नहीं कमाता इसलिए विश्व बाजार में तेल का दाम जब भी बढ़ेगा, रुपये का मूल्य गिरेगा। पिछले कई सालों से भारत का निर्यात बढ़ नहीं रहा है। 2011-12 में कुल निर्यात 306 बिलियन डॉलर था और 2017-18 में 303 बिलियन डॉलर। कच्चे तेल के अलावा भारत का गैर तेल आयात भी बढ़ रहा है और उससे भी डॉलर की मांग बढ़ रही है। इस वर्ष अप्रैल से अगस्त तक हमारा गैर तेल आयात 57.6 बिलियन डॉलर रहा। यह 2014-2015 के बाद सबसे अधिक रहा। आखिर किया क्या जाए ताकि रुपये को गिरने से बचाया जा सके? नि:संदेह यह नहीं हो सकता कि रिजर्व बैंक डॉलर बेचता रहे और रुपये को गिरने से बचाता रहे, क्योंकि उसके पास असीमित डॉलर नहीं हैं और यह जाहिर ही है कि अप्रैल से अगस्त के बीच डॉलर बेचकर भी रुपये में गिरावट को रोका नहीं जा सका।

सरकार डॉलर की मांग कम करने के लिए यह चाह रही है कि गैर जरूरी आयात कम किया जाए, लेकिन यह 1970-80 के दशक का टोटका है। इससे बात बनने वाली नहीं है। भारत जो तमाम वस्तुएं आयात करता है जैसे कच्चा तेल, इलेक्ट्रॉनिक्स एवं रक्षा उत्पाद, सोना आदि वह भारत में बनता ही नहीं। अगर इन चीजों का देश में आना महंगा हो जाएगा तो मुद्रास्फीति की दर बढ़ सकती है। इसके अलावा तस्करों की चांदी हो सकती है। यह सही है कि भारतीय देश से बाहर घूमने-पढ़ने में बहुत अधिक पैसा खर्च कर रहे हैं और इससे भी डॉलर की मांग बढ़ रही है, लेकिन आखिर इसे रोका कैसे जा सकता है?

मौजूदा माहौल में डॉलर की आपूर्ति बढ़ाने के लिए बेहतर होगा कि प्रत्यक्ष विदेशी निवेश को और खोला जाए। मल्टी ब्रांड फॉरेन रिटेलिंग में सौ फीसद विदेशी निवेश की अनुमति देने पर विचार किया जाना चाहिए। इसके अलावा निर्यात बढ़ाने की गंभीर कोशिश होनी चाहिए। कुछ अर्थशास्त्रियों का विचार है कि भारत सरकार को अनिवासी भारतीयों के लिए एक बांड जारी करना चाहिए। एक शॉर्टकट के रूप में यह एक अच्छा विचार है, लेकिन सरकार जब तक संरचनात्मक कारणों पर ध्यान नहीं देगी तब तक डॉलर के मुकाबले रुपये की कमजोरी बरकरार ही रहेगी।

(विवेक कौल ईजी मनी ट्राइलोजी के लेखक हैं)