[ डॉ. एके वर्मा ]: यह माना जा सकता है कि कर्नाटक से कोलकता तक राजनीतिक दल सोशल इंजीनियरिंग की जगह पॉलिटिकल इंजीनियरिंग पर ध्यान दे रहे हैं। जहां राष्ट्रीय स्तर पर भाजपा के विरुद्ध महागठबंधन बनाने का प्रयास हो रहा है तो वहीं महागठबंधन को धता बता अखिलेश यादव और मायावती ने उत्तर प्रदेश में चुनाव पूर्व गठबंधन कर लिया। इसमें अजीत सिंह की रालोद भी शामिल मानी जा रही है। यह सतही पॉलिटिकल इंजीनियरिंग किसी सोशल इंजीनियरिंग की आधारशिला पर नहीं खड़ी। शीर्ष नेता तो मिल गए, लेकिन उन्होंने अपने कार्यकर्ताओं से पूछने की जरूरत नहीं समझी। यह पॉलिटिकल इंजीनियरिंग 26 वर्ष पूर्व मुलायम सिंह यादव और कांशीराम के बीच हुए समझौते की याद दिलाती है जिसके चलते 1993 में उप्र में सपा-बसपा गठबंधन सरकार बनी थी।

क्या मौजूदा प्रयोग उसकी पुनरावृत्ति कर सकेगा? पिछली सियासी इंजीनियरिंग के पीछे एक सोशल इंजीनियरिंग थी। कांशीराम ने 1978 में बामसेफ बनाया जिसमें अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति, पिछड़े और मुस्लिम शामिल थे। 15 वर्षों से बामसेफ और डीएस-4 के जरिये दलित और पिछड़े साझा आंदोलन का हिस्सा रहे थे। इसके बावजूद यह सरकार कुछ महीने ही चल पाई। 1995 में सपा-बसपा तनाव ने लखनऊ गेस्टहाउस कांड का रूप ले लिया, जिसमें सपाइयों ने मायावती पर जानलेवा हमला किया। दलितों और पिछड़ों में कभी सामाजिक केमिस्ट्री भी रही नहीं। उलटे भूमिहीन दलितों का सर्वाधिक शोषण पिछड़े वर्ग के भूस्वामियों ने किया। सपा-बसपा गठजोड़ के पीछे दलित-पिछड़ों के बीच 26 वर्षों की कटुता का इतिहास भी है। जहां शिवपाल सिंह के अलग होने से सपा कमजोर हुई है वहीं बसपा ने अपने आधार स्तंभों-बाबूसिंह कुशवाहा, स्वामीप्रसाद मौर्य और नसीमुद्दीन को पार्टी से निकाल दिया है। क्या ऐसी संगठनात्मक कमजोरियों के चलते सपा-बसपा कल्पना भी कर सकती है कि वे 1993 का प्रदर्शन दोहरा पाएंगी?

गोरखपुर और फूलपुर उपचुनाव में सपा-बसपा गठबंधन की जीत को अपने आकलन का आधार बताने वाले भूल जाते हैैं कि वहां बसपा लड़ी ही नहीं थी और इसी कारण दलित मतों का सपा के पक्ष में हस्तांतरण आसान हो गया था। क्या 2019 के लोकसभा चुनावों में भी ऐसा हो पाएगा? बसपा बहुत उम्मीद से यह चुनाव लड़ रही है। मायावती को लगता है कि दलित मतदाता सपा को वोट देगा, लेकिन गठबंधन की घोषणा के बाद से बसपा के भावी प्रत्याशियों की नींद उड़ गई होगी, क्योंकि मायावती केवल 38 सीटों पर ही चुनाव लड़ेंगी। 42 सीटें सपा-रालोद के खाते में जाएंगी। बसपा प्रत्याशी इसी घबराहट में होंगे कि न जाने किन 42 लोगों का टिकट कटने वाला है। यह बड़ी संख्या है और अभी मायावती को इसके नकारात्मक परिणामों का आभास नहीं होगा। ठीक यही स्थिति सपा के प्रत्याशियों की भी होगी। सपा के भी 42 प्रत्याशियों का टिकट कटेगा। अखिलेश को भी अपने भावी प्रत्याशियों के रोष का अंदाजा नहीं होगा। क्या विकल्प है ऐसे नाराज प्रत्याशियों के सामने? उन्हें तो अपना राजनीतिक भविष्य खत्म होता दिख रहा होगा। क्या सपा-बसपा के ऐसे प्रत्याशी फिर भी अपनी पार्टी का आदेश मानकर एक-दूसरे को अपने मतों का हस्तांतरण कराएंगे या वे राष्ट्रीय पार्टियों कांग्रेस और भाजपा की ओर रुख करेंगे?

1989 में उप्र में कांग्रेस के अवसान के साथ दलितों और पिछड़ों के पास बसपा और सपा का विकल्प था, लेकिन आज उनके लिए इन दोनों के अलावा भाजपा महत्वपूर्ण विकल्प बनकर उभरी है। ध्यान रहे राज्य में लोकसभा के सभी दलित सांसद और विधानसभा के लगभग 80 प्रतिशत दलित विधायक भाजपा के हैं जो पार्टी को दलितों से जोड़ने में समर्थ हैं। पीएम मोदी की पिछड़ी जाति को सार्वजनिक कर कांग्रेस ने स्वयं ही पिछड़ों को भाजपा में वैकल्पिक नेतृत्व की उपलब्धता का संदेश दे दिया है।

राज्य की सियासी इंजीनियरिंग में ‘गैर-भाजपावाद’ और ‘गैर-कांग्रेसवाद’ दोनों का समावेश है। गैर-भाजपावाद तो समझ में आता है, लेकिन गैर-कांग्रेसवाद नहीं। 2017 विधानसभा चुनावों में राहुल और अखिलेश कुछ वैसे ही साझा प्रेस कांफ्रेंस कर रहे थे जैसे हाल में मायावती और अखिलेश ने की। अखिलेश कुछ लंबी चाल चलते दिख रहे हैैं। कांग्रेस को गठजोड़ से बाहर रख और यह दावा कर कि प्रधानमंत्री उत्तर प्रदेश से ही होगा, अखिलेश ने न केवल मायावती के सामने पीएम पद का लालीपॉप पेश किया है, वरन लंबी अवधि का गठजोड़ कर आगामी विधानसभा चुनावों में अपनी मुख्यमंत्री पद की दावेदारी सुनिश्चित कर ली है। इस रणनीति के चलते अखिलेश राष्ट्रीय स्तर पर किसी भी महागठबंधन में पीएम पद के लिए मायावती का ही नाम आगे करेंगे ताकि न केवल उनका विश्वास जीत सकें वरन अपनी मुख्यमंत्री की दावेदारी को और पुख्ता भी कर सकें।

पॉलिटिकल इंजीनियरिंग के दांवपेच में फंसकर मायावती और अखिलेश भूल गए कि उन्होंने उप्र में भाजपा बनाम महागठबंधन के संभावित सीधे मुकाबले को त्रिकोणीय संघर्ष में बदल दिया जो उन्हें नुकसान और भाजपा को फायदा पहुंचा सकता है। छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश और राजस्थान के हालिया चुनावों में जीत से उत्साहित कांग्रेस उप्र में मजबूती से चुनाव लड़ेगी। यह प्रियंका गांधी वाड्रा को महासचिव बनाकर पूर्वी उप्र का प्रभार सौंपने से और स्पष्ट हो गया है। राज्य में कांग्रेस का जनाधार अभी पूरी तरह खत्म नहीं हुआ है। इसकी पुष्टि 2009 के आम चुनाव थे जिसमें कांग्रेस ने पुरानी नौ में से छह सीटें हारने के बाद भी 18 नई सीटें जीती थी। उसने 21 सीटें जीतकर चौंकाया था।

सपा-बसपा अभी भी जातीय समीकरणों और अस्मिता की राजनीति में उलझी हैं, जबकि राजनीति आगे निकल गई है। जिस गति से पार्टियों ने अपनी वैचारिक अस्मिता खोई है उसी तेजी से अस्मिता की राजनीति अर्थात जातिवादी राजनीति कमजोर हुई है। मतदाता अपने हित संवर्धन को लेकर सजग है। आज अति दलित मायावती के साथ नहीं। उन्हें वैकल्पिक मंच उपलब्ध है। अति पिछड़े भी सपा के साथ नहीं। उनके पास भी विकल्प हैं। इसी परिप्रेक्ष्य में अपना दल, सुहलदेव भारतीय समाज पार्टी, निषाद पार्टी, पीस-पार्टी आदि की भूमिका अहम होती जा रही है। अपने बलबूते वे शायद कुछ न कर सकें, लेकिन सहयोगी के रूप में वे किसी भी पार्टी के लिए प्रभावी वोट-बैंक हो जाते हैं।

मायावती में वोट-हस्तांतरण क्षमता तो है, लेकिन अखिलेश की यह क्षमता संदिग्ध है। 2017 विधानसभा चुनावों में सपा-कांग्रेस गठजोड़ के बावजूद कांग्रेस को मात्र सात सीटें मिलीं। 2012 के बाद मायावती के प्रभाव में भी कमी आई है। चूंकि वह जाटव समाज को तरजीह देती रहीं इसलिए अति दलितों का बड़ा वर्ग भाजपा की ओर खिसक गया। इसी प्रकार सपा की उपेक्षा से अति पिछड़े भाजपा में चले गए। पीएम मोदी ने भी सरदार पटेल, लोहिया, आंबेडकर आदि के प्रति आदर दिखाकर समावेशी राजनीति के माध्यम से पिछड़ों और दलितों को अपनी पार्टी से जोड़ा है। इसके बावजूद 2019 में यह देखना होगा कि जनता देशहित में लिए गए कठोर निर्णयों और समावेशी विकास के मुकाबले सियासी इंजीनियरिंग एवं जातिवादी राजनीति को कितना तरजीह देती है।

( लेखक राजनीतिक विश्लेषक एवं सेंटर फॉर द स्टडी ऑफ सोसायटी एंड पॉलिटिक्स के निदेशक हैैं )