डॉ. चंदन शर्मा। Bengal Vidhan Sabha Chunav Result वर्ष 2019 में लोकसभा चुनाव परिणाम आने के बाद से ही ममता बनर्जी यह समझ चुकी थीं कि उनकी आगे की राह आसान नहीं है। नरेंद्र मोदी के जादू से ममता सदमे में थीं। बंगाल में भाजपा मजबूती से पैठ बना चुकी थी। भाजपा का वोट शेयर तृणमूल से महज तीन प्रतिशत ही कम रह गया था। भाजपा के सीटों की संख्या दो से बढ़ कर 18 पहुंच गई थी तो वहीं ममता की सीटें 34 से घट कर 22 पर अटक गई थी।

आइपैक यानी इंडियन पॉलिटिकल एक्शन कमेटी के बंगाल में प्रवेश के लिए यह समय सही था। आइपैक के मुखिया पीके यानी प्रशांत किशोर की मीटिंग ममता और उनके भतीजे अभिषेक बनर्जी के साथ हुई। ममता बनर्जी ने पीके को चुनाव रणनीतिकार के तौर पर स्वीकार किया। इस बीच पीके की टीम ने बंगाल के प्रत्येक विधानसभा क्षेत्र की जमीनी हालात का जायजा लिया और ममता बनर्जी को जमीनी सच से अवगत कराया। ममता ने कमजोर कड़ी को दुरुस्त करना शुरू किया।

बंगाल के लिए आइपैक के करीब 1,600 कर्मचारियों ने चुनाव मैदान में मोर्चा संभाल लिया। हर विधानसभा में प्रत्यक्ष तौर पर चार-चार आदमी पदस्थापित किए गए। इसके अलावा 400 लोग मॉनीर्टंरग के लिए नियुक्त किए गए। हालांकि विधानसभा स्तर पर काम करने वाले वॉलेंटियर कहलाते हैं। दो वॉलेंटियर का काम केवल वाट्सएप ग्रुप बनाना था और विधानसभा क्षेत्र के नए लोगों को जोड़ना था। हर विधानसभा में दो आइपैक के कर्मचारी स्थायी तौर पर नियुक्त किए गए। सबसे ऊपर लीडरशीप टीम होती है, जिसे एलटी कहा जाता है। एलटी में चार लोग होते हैं, जिनकी ज्यादातर मीटिंग बेहद गोपनीय होती है। इसमें चार लोगों के अलावा आइपैक के निदेशक शामिल होते हैं। ऐसी ज्यादातर मीटिंग में पीके खुद भी मौजूद होते हैं। गोपनीय बैठकों में सरकारी योजनाओं के अमल, मतदान के रुझान, मतों के ध्रुवीकरण, जातीय समीकरण सहित तमाम मसलों पर चिंतन-मंथन होता है, रणनीति तय की जाती है। इसके नीचे आते हैं ईसी मेंबर। इलेक्शनरी काउंसिल में 18 से 20 लोग होते हैं। पीआइयू यानी पॉलिटिकल इंटेलिजेंस यूनिट, डीटी यानी डिजिटल टीम जैसी कई अलग-अलग टीमें भी होती हैं।

आइपैक के सर्वे में बंगाल में 100-110 सीटों को आसान माना गया था, जहां ममता के काम पर अभियान आदि चला कर दोबारा जीत हासिल की जा सकती थी। इसके लिए ‘बंगाल गर्वो ममता’ आदि कई अभियान चलाए गए। सत्ता विरोधी रुझान को कम करने के लिए योजनाओं की पड़ताल जमीनी स्तर पर की गई। ‘हर घर सरकार’ जैसे कार्यक्रम जमीनी स्तर पर चलाए गए। पार्टी कार्यकर्ताओं के साथ अफसरों को अलर्ट किया गया। सरकारी योजनाओं का प्रत्यक्ष लाभ गांव-गांव तक पहुंचे, इस हेतु लगातार प्रयास किए गए। ज्यादातर अभियानों को बंगाली अस्मिता से जोड़ा गया। महिलाओं को आर्किषत करने के लिए कई स्तर पर प्रयास किए गए।

ममता पर भाजपा के बड़े नेताओं के तंज को बंगाल की बेटी के खिलाफ बताने की रणनीति भी सफल रही। लगभग 70 से 80 सीटें कांटे की टक्कर वाली थीं, जिन पर टिकट काटने के लिए प्रस्ताव दिया गया। ऐसी सीटों पर उम्मीदवार बदलने से लाभ मिला। कई ऐसे तृणमूल विधायकों के भाजपा में जाने से नाराजगी भी टल गई। इसके अलावा 100 से ज्यादा मुश्किल वाली सीटों की पहचान की गई। ऐसी सीटों पर पीके की टीम ने अलग से फोकस किया, तीनों कैटेगरी की सीटों के लिए अलग-अलग बजट तय किया गया। तृणमूल की सफलता और विफलता में प्रशांत का भी बहुत कुछ दांव पर लगा था। आइपैक के डायरेक्टर प्रतीक जैन का तो डेरा ही कोलकाता हो गया था। प्रशांत किशोर ने अपनी टीम को एक ही मंत्र दिया था- मेहनत खामोशी से कीजिए, सफलता खुद शोर मचा देगी। आज जब ममता की ओर से मिले 200 प्लस का लक्ष्य पीके ने हासिल कर लिया तो उनकी सफलता खुद शोर मचा रही है।

परदे के पीछे पीके थे तो सामने ममता बनर्जी। तृणमूल के उपाध्यक्ष यशवंत सिन्हा की सलाहियत भी खूम काम आई। लोकसभा चुनाव के नतीजे आने के बाद ममता को यह आभास हो चुका था कि बंगाल विजय के लिए भाजपा कोई कसर बाकी नहीं रखेगी। सुभेंदु अधिकारी ने नंदीग्राम से लड़ने की चुनौती दी तो ममता ने इसे स्वीकार किया। वे कतई संदेश नहीं देना चाहती थीं कि सुभेंदु या भाजपा की किसी भी चुनौती से वे घबराती हैं। ममता को पता था कि नंदीग्राम का मुकाबला कठिन है। लेकिन उन्हें यह भी पता था कि यही मुकाबला उन्हें पूरे बंगाल में आगे बढ़ाएगा। भाजपा के शीर्ष नेताओं का फोकस नंदीग्राम की ओर गया तो पीके की टीम के जरिये ममता ने बाकी इलाकों में अपने कील कांटे दुरुस्त किए। नंदीग्राम में नामांकन के बाद ममता के पांव में चोट लग गई। पैरों में प्लास्टर चढ़ा, वह पूरे बंगाल में घूमती रहीं।

कोलकाता में धरना देकर समर्थकों को संदेश दिया कि चुनाव आयोग तृणमूल के खिलाफ है। चंडी पाठ किया। दागियों के तृणमूल से भाजपा में जाने की बात को उन्होंने इस तरह प्रचारित किया कि अब उनकी पार्टी शुद्ध हो चुकी है। नेताओं को जवाबदेही दी गई कि वे लोगों को बताते रहें कि डबल इंजन की सरकार रहते हुए झारखंड में कुछ नहीं हुआ। ममता ने अपने सभी सेनापतियों की हौसला अफजाई की। अनुब्रत मंडल को नजरबंद करने पर कोर्ट जाने की चेतावनी तक दे डाली। मकसद साफ था कि बीरभूम के समर्थकों का उत्साह कम न हो। आखिर में, भाजपा विरोधी मानसिकता रखने वाले नागरिकों को ममता यह समझाने में कामयाब रहीं कि सीधा मुकाबला तृणमूल से है, किसी और से नहीं। नतीजा सामने है। अब ममता के लिए यह चुनौती है कि वह तृणमूल कार्यकर्ताओं पर लगाम रखते हुए बंगाल के समग्र विकास पर ध्यान दे।

[वरीय समाचार संपादक, धनबाद]