[ प्रो. निरंजन कुमार ]: सांस्कृतिक विमर्श कैसे राजनीति का शिकार हो सकते हैं, इसकी एक मिसाल हैै अर्थशास्त्री अमर्त्य सेन का बयान। इसकी दूसरी मिसाल है 49 बुद्धिजीवियों की वह चिट्ठी जिसमे असहिष्णुता, भीड़ की हिंसा का जिक्र करते हुए कहा गया है कि जयश्रीराम नारे के सहारे हिंसा की जा रही है।

राजनीतिक लड़ाई सांस्कृतिक युद्ध में बदली

प्रधानमंत्री मोदी के कटु आलोचक सेन का कहना था कि जय श्रीराम बंगाली संस्कृति से जुड़ा हुआ नहीं है और रामनवमी पूजा का बंगाल से खास संबंध नहीं। इस वक्तव्य के पार्श्व में बंगाल में चल रही ममता बनर्जी और भाजपा में शह-मात की राजनीतिक लड़ाई है, जो एक सांस्कृतिक युद्ध में बदल गई है। यहां विवाद का सांस्कृतिक-भूगोल बंगाल तो है, लेकिन विमर्श का परिप्रेक्ष्य बंगाल से निकलकर अखिल भारतीय हो गया है। सर्वप्रथम बंगाल और राम के संबंध को ही देखा जाए।

हिंदीभाषी क्षेत्र के सांस्कृतिक पुरुष

राम को बंगाल के बाहर का अथवा अप्रत्यक्ष रूप से हिंदीभाषी क्षेत्र का सांस्कृतिक पुरुष बताया जा रहा है, लेकिन यह जानना प्रासंगिक होगा कि भारतीय आर्यभाषा परिवार की भाषाओं में संस्कृत-अपभ्रंश के बाद सबसे पहली रामायण बंगाल में ही रची गई। बांग्ला में ‘कृत्तिवास रामायण’ या ‘श्रीराम पांचाली’ की रचना पंद्रहवीं शताब्दी के बंग-भाषा के आदिकवि कृत्तिवास ने की थी। तुलसीदास के ‘रामचरित मानस’ से लगभग सौ वर्ष पूर्व ‘कृत्तिवास रामायण’ लिखी जा चुकी थी। वाल्मीकि कृत ‘रामायण’ से प्रभावित होते हुए भी कृत्तिवास ने उसे कैसे बंगाली संस्कृति के अनुरूप ढाला, यह इससे स्पष्ट होता है: ‘जब रावण से युद्ध करते समय श्रीराम निराश हो रहे थे तब राम ने शक्ति (दुर्गा) की आराधना की और रावण पर विजय पाई।’

दुर्गा या राम को लेकर वैचारिक भेद

कृत्तिवास द्वारा राम की शक्ति पूजा की कथा को बाद में अन्य भाषाओं के साहित्य में भी चित्रित किया गया। दुर्गा या राम को लेकर जो सांस्कृतिक अथवा वैचारिक भेद की दीवार खड़ी की जा रही है उसके पीछे कई वजहें हैं। एक तो प्रत्यक्ष कारण है-राजनीतिक वर्चस्व की लड़ाई। दूसरा कारण है भारतीय चिंतन-दर्शन की आधी-अधूरी समझ, जिसमें विभिन्न देवी-देवताओं को अलग खांचों में बांटकर देखा जाता है।

शिवद्रोही मम दास कहावा

यह पश्चिम के एकेश्वरवादी चिंतन का प्रभाव है जो वैष्णव (विष्णु-राम-कृष्ण के आराधक), शाक्त (शक्ति या दुर्गा के उपासक) और शैव (शिव-पूजक) को एक-दूसरे का विरोधी तक मानते हैं। जबकि तुलसीदास ने लिखा है कि ‘शिवद्रोही मम दास कहावा, सोई नर मोहि सपनेहु नहीं भावा।’ अर्थात राम कहते हैं कि जो शिव का द्रोही है, वह मुझे सपने में भी प्रिय नहीं है चाहे वह मेरा दास क्यों न हो।

उत्तर भारतीय में राम तो कोलकाता में काली

उत्तर भारतीय जिस भाव से राम की पूजा करते हैं उसी श्रद्धा से कोलकाता के दक्षिणेश्वर में काली, गुवाहाटी में कामाख्या या जम्मू में वैष्णो देवी (सब दुर्गा के ही रूप) की आराधना करते हैं। बंगाल के चैतन्य महाप्रभु ने तुलसी के आविर्भाव से पहले ही बंगाल में ‘हरे रामा-हरे कृष्णा’ को गुंजायमान कर दिया था। तब राम क्या सिर्फ उत्तर भारत के हैं? यह प्रश्न इसलिए भी जरूरी है, क्योंकि तमिलनाडु के नेताओं-बुद्धिजीवियों ने भी कुछ इसी तरह का सवाल उठाया था।

श्रीराम एक सांस्कृतिक पुरुष भी हैं

अयोध्या के श्रीराम ईश्वर तो हैं ही, लेकिन इसके अतिरिक्त वह एक सांस्कृतिक पुरुष भी हैं जिनसे पूरा भारत युगों-युगों से प्रभावित हुआ है। सभी क्षेत्रों, भाषाओं, जातियों के लोगों ने अपने-अपने तरीके से अथवा रामकथा रची है। वाल्मीकि की ‘आदि रामायण’ के बाद व्यास रचित महाभारत में भी ‘रामोपाख्यान’ के रूप में यह कथा वर्णित हुई है। बौद्ध परंपरा में श्रीराम से संबंधित ‘दशरथ जातक’, ‘अनामक जातक’ और ‘दशरथ कथानक’ नामक तीन जातक कथाएं उपलब्ध हैं। जैन साहित्य में रामकथा संबंधी कई प्रमुख ग्रंथ हैं।

अनेक भारतीय भाषाओं में हैं रामायण

विभिन्न भारतीय भाषाओं में हिंदी में 11, मराठी में 8, बांग्ला में 25, तमिल में 12, तेलुगु में 12 और उड़िया में 6 रामायणें मिलती हैं। सबसे अधिक रामायण बंगाल में ही रची गईं। इसके अतिरिक्त गुजराती, मलयालम, कन्नड़, असमिया, कश्मीरी, उर्दू, अरबी, फारसी, संथाली आदि भाषाओं में भी रामकथा लिखी गई है। पिछड़े-दलित और आदिवासियों ने भी राम को अपनी रचना का विषय बनाया। यही नहीं मुस्लिम रचनाकारों में भी श्रीराम लोकप्रिय रहे।

‘वो हम सब का मालिक राम’

अमीर खुसरो ने तुलसीदास से 250 वर्ष पूर्व लिखा ‘वो हम सब का मालिक राम’ तो तुलसी के समकालीन रहीम राम के आदर्श को नमन करते हुए लिखते हैं ‘रामचरित मानस विमल, संतन जीवन प्राण हिंदुआन को वेद सम, यवनहीं प्रकट कुरान’। 1623 में सादुल्ला मसीह की ‘दास्ताने रामो-सीता’ फारसी-भाषी जनता में लोकप्रिय हुई। इसकी हस्तलिखित प्रतिलिपियां ब्रिटिश इंडिया म्यूजियम, एशियाटिक सोसायटी बंगाल आदि में सुरक्षित हैैं। इकबाल जैसे शायर ने तो यहां तक कहा कि हिंद का प्याला सत्य से भरा हुआ है और जितने भी दार्शनिक मगरिब (पश्चिम) में हुए हैं, वे भारत के श्रीराम का विस्तार हैं।

‘राम-राम’ या ‘जय रामजी की’ सांस्कृतिक-लौकिक अभिवादन है

विदेशों में भी ‘तिब्बती रामायण’, पूर्वी तुर्किस्तान की ‘खोतानी रामायण’, इंडोनेशिया की ‘काकविन रामायण’, जावा का ‘सेरतराम’, ‘सैरीराम’, ‘रामकेलिंग’, ‘पातानी रामकथा’, इंडो-चीन की ‘रामकेर्ति’, ‘खमैर रामायण’, म्यांमार की ‘यूतोकी रामयागन’, थाईलैंड की ‘रामकियेन’ आदि रामचरित्र का बखूबी बखान करती हैं। स्पष्ट है कि श्रीराम वह सांस्कृतिक पुरुषोत्तम हैं जो देश-काल से परे हैं।

श्रीराम का आदर्श

श्रीराम जिन जीवन मूल्यों, आदर्शों, मर्यादा और सामाजिक समरसता की प्रतिष्ठा के लिए संघर्ष करते हैं वे भारतीयों के जीवन-संस्कृति में रचे-बसे हैं। इसीलिए हर भारतीय अपनी ‘राम-कहानी (जीवन कथा)’ सुनाता है। मिलने-जुलने पर ‘राम-राम’ या ‘जय रामजी की’ कहना एक धार्मिक अभिवादन के बजाय एक सांस्कृतिक-लौकिक अभिवादन है।

‘जय श्रीराम’ पॉपुलर कल्चर की देन है

‘जय श्रीराम’ इसी की एक कड़ी है जो पॉपुलर कल्चर की देन है और रामायण सीरियल के माध्यम से आम जनमानस में और फैली। नि:संदेह जो कुछ अतिपंथी ‘जय श्रीराम’ के नाम पर हिंसा कर रहे हैं वे प्रभु श्रीराम का अपमान और समाज को तोड़ने का काम कर रहे हैं। उनसे सख्ती से निपटा जाना चाहिए।

श्रीराम भगवान नहीं धरोहर हैं

जेएनयू के पूर्व शोधार्थी साकिब सलीम (2017) सही लिखते हैं कि ‘हमें यह समझने की जरूरत है कि श्रीराम केवल हिंदू धर्म के भगवान नहीं हैं, बल्कि इस मिट्टी की धरोहर हैं। धरोहर को बांटना न तो मुमकिन है और न अक्लमंदी’। तथाकथित सेक्युलरिस्ट बुद्धिजीवियों और अतिवादियों को यह बात समझ लेनी चाहिए।

( लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय में प्रोफेसर हैं )