डा. ब्रजेश कुमार तिवारी। आमतौर पर अगर किसी देश की मुद्रा अन्य देशों की मुद्राओं की तुलना में मजबूत होती है, तो उस देश की अर्थव्यवस्था को बेहतर माना जाता है। आज अमेरिकी डालर को यह रुतबा हासिल है। अमेरिकी डालर को वैश्विक मुद्रा का दर्जा प्राप्त है। अंतरराष्ट्रीय व्यापार में अधिकांश भुगतान अमेरिकी डालर में ही होता है। यही वजह है कि डालर के मुकाबले हमारे देश की मुद्रा रुपये की हैसियत से पता चलता है कि भारतीय मुद्रा मजबूत है या कमजोर। देखा जाए तो साल की शुरुआत से ही रुपया डगमगा रहा है। दस जून को यह 77.85 प्रति डालर के स्तर पर था। अमेरिकी डालर के मुकाबले रुपये में देखी गई यह अब तक की सबसे बड़ी गिरावट है। आंकड़ों के अनुसार, आजादी के बाद से हमारा रुपया डालर के मुकाबले लगभग 20 गुना नीचे लुढ़का है। वर्ष 1948 में एक डालर चार रुपये में मिलता था। तब देश पर कोई कर्ज भी नहीं था। वर्ष 1951 में जब पहली पंचवर्षीय योजना लागू हुई तो सरकार ने विदेश से कर्ज लेना शुरू किया। उसके बाद से डालर के मुकाबले रुपये की कीमत भी लगातार कम होने लगी। कालांतर में रुपये की हैसियत में उत्तरोत्तर गिरावट का एक प्रमुख पड़ाव 1991 में भी आया, जब भारत सरकार ने आर्थिक संकट के दौर में रुपये में एकबारगी ही करीब 20 प्रतिशत का अवमूल्यन कर दिया था। उसका उद्देश्य देश से होने वाला निर्यात बढ़ाना था।

वास्तव में रुपये की कीमत पूरी तरह इसकी मांग और आपूर्ति पर निर्भर करती है। आयात और निर्यात का भी इस पर सीधा असर होता है। एक देश जो निर्यात से अधिक आयात करता है, उसकी डालर की मांग अधिक होती है। जैसे भारत निर्यात से ज्यादा आयात करता है। भारत कच्चे तेल के बड़े आयातकों में से एक है। यह अपनी जरूरत का लगभग 80 प्रतिशत कच्चे तेल का आयात करता है। नि:संदेह इन दिनों अंतरराष्ट्रीय बाजार में कच्चे तेल की बढ़ती कीमत रुपये के मूल्य में गिरावट का प्रमुख कारण है। यद्यपि केंद्र सरकार-रिजर्व बैंक ने रुपये की गिरावट को थामने की हरसंभव कोशिश करने का भरोसा दिलाया है, लेकिन अब उन्हें इस दिशा में कुछ ठोस और कड़े कदम उठाने ही होंगे। इस दिशा में सबसे पहले सरकार को आयातित कच्चे तेल पर अपनी निर्भरता घटानी चाहिए। हालांकि ऐसा तभी संभव होगा जब हम तेल के विकल्पों को अपनाएंगे। इस कड़ी में पेट्रोल, डीजल और गैस आधारित गाड़ियों के बजाय इलेक्टिक वाहनों को अपनाने की दिशा में आगे बढ़ने की जरूरत है। ऐसा करने से विदेशी मुद्रा भंडार का एक बहुत बड़ा हिस्सा हम बचा सकते हैं।

रुपये में गिरावट को रोकने और विदेशी मुद्रा भंडार को समृद्ध बनाए रखने के लिए केंद्र सरकार को ऐसे ही कुछ अन्य कदम भी उठाने चाहिए। जैसे कि सरकार को आयात नियंत्रित करने और निर्यात बढ़ाने की दिशा में रणनीतिक रूप से आगे बढ़ना चाहिए। यह वक्त मेक इन इंडिया कार्यक्रम को प्रभावी ढंग से क्रियान्वित करने का है, जो आठ वर्ष के बाद भी भारतीय अर्थव्यवस्था में अपने प्रभावी योगदान के लक्ष्य से काफी पीछे है। आज भारत के सकल घरेलू उत्पाद यानी जीडीपी में विनिर्माण (मैन्यूफैक्चरिंग) सेक्टर की हिस्सेदारी महज 13 प्रतिशत है। जबकि चीन की जीडीपी में उसके विनिर्माण सेक्टर की हिस्सेदारी 29 प्रतिशत है। भारत की तुलना में जीडीपी में विनिर्माण सेक्टर का बड़ा हिस्सा रखने वाले अन्य एशियाई देशों में दक्षिण कोरिया (26 प्रतिशत), जापान (21 प्रतिशत), थाईलैंड (27 प्रतिशत), सिंगापुर और मलेशिया (21 प्रतिशत), इंडोनेशिया और फिलीपींस (19 प्रतिशत) शामिल हैं।

हालांकि यह सच है कि केंद्र सरकार आर्थिक विकास को गति प्रदान करने और अंतरराष्ट्रीय व्यापार में इसकी प्रासंगिकता बढ़ाने के लिए एक प्रतिस्पर्धी परिवेश बनाने का प्रयास कर रही है। इसका परिणाम भी कुछ क्षेत्रों में दिख रहा है। भारतीय कंपनियों द्वारा कोरोनारोधी टीकों का विकास स्वदेशी प्रतिभा का एक ज्वलंत उदाहरण है। इसके बावजूद भारत अपने विनिर्माण क्षेत्र को पूरी तरह पुनर्जीवित करने में विफल रहा है। जाहिर है यह मेक इन इंडिया अभियान को भी अपेक्षित सहयोग नहीं दे पा रहा है। यही वजह है कि स्वरोजगार को बढ़ावा देने के तमाम प्रयासों के बावजूद बेरोजगारी के स्तर ने चार दशकों का रिकार्ड तोड़ दिया है। भारत का मैन्यूफैक्चरिंग सेक्टर आज जिस स्थिति में है उसके लिए सिर्फ कोरोना जिम्मेदार नहीं है। दरअसल हमारा विनिर्माण क्षेत्र कागजी कार्रवाई में उलझा हुआ है। श्रम, भूमि और पर्यावरण मंजूरी से जुड़े नियमों-कानूनों के आगे विवश है। कराधान और सीमा शुल्क की नीतियां इस हद तक पेचीदा हैं कि घरेलू स्तर पर निर्माण के बजाय कई वस्तुओं का आयात सस्ता पड़ता है।

इसमें दोराय नहीं कि भारत भविष्य में खुद को अगला ‘वैश्विक कारखाना’ बना सकता है। कोरोना के बाद यह साफ दिख रहा है कि दुनिया चीन से तंग आ चुकी है। अब एक वैकल्पिक मैन्यूफैक्चरिंग हब की तलाश कर रही है। भारत यह विकल्प बन सकता है। आवश्यकता है बोङिाल नियमों से देश के विनिर्माण क्षेत्र को मुक्त किया जाए। निश्चित रूप से ऐसे प्रभावी कदमों के जरिये डालर के मुकाबले रुपये की गिरावट पर लगाम लगाई जा सकती है।

इसके साथ ही यदि हम स्वदेशी वस्तुओं का प्रयोग करना शुरू कर दें तो विदेशी वस्तुओं को आयात करने का खर्च बच जाएगा। भारत को वर्ष 2025 तक पांच लाख करोड़ (टिलियन) डालर की अर्थव्यवस्था बनने के लिए हमें कम से कम 2.5 टिलियन डालर मूल्य की वस्तुओं और सेवाओं का निर्यात करने की आवश्यकता है, क्योंकि अभी कुल जीडीपी में निर्यात का योगदान लगभग 25 प्रतिशत है। कुल मिलाकर भारत के पास रुकने का समय नहीं है। हम एक लंबा सफर तय कर चुके हैं, लेकिन यात्र अभी खत्म नहीं हुई है।

(लेखक जेएनयू के अटल स्कूल आफ मैनेजमेंट विभाग में एसोसिएट प्रोफेसर हैं)