[रशीद किदवई]। महाराष्ट्र और हरियाणा विधानसभा चुनाव के परिणाम निश्चित ही वैसे नहीं हैं जैसे माने जा रहे थे। दोनों राज्यों के नतीजे ऐसे हैं कि सरकार गठन को लेकर खींचतान तय है। दोनों राज्यों के चुनाव नतीजे अगर भाजपा को अपनी रीति-नीति पर नए सिरे से विचार करने के लिए मजबूर करेंगे तो वे कांग्रेस की अंदरूनी राजनीति पर भी असर डालने का काम करेंगे। पहले माना जा रहा था कि कांग्रेस अध्यक्ष के रूप में जल्द ही राहुल गांधी की वापसी हो सकती है। वैसे भी सोनिया गांधी के स्वास्थ्यगत कारणों से कांग्रेस को एक पूर्णकालिक अध्यक्ष की तुरंत आवश्यकता महसूस हो रही थी।

सोनिया गांधी खुद भी फरवरी 2020 से आगे कार्यकारी अध्यक्ष का दायित्व संभालने की इच्छुक नहीं हैं, लेकिन अब राहुल की वापसी में देरी हो सकती है। राहुल गांधी की वापसी की राह में सबसे बड़ी अड़चन उनके काम करने का तरीका और कांग्रेस के एक तबके को लेकर अविश्वास और तिरस्कार भाव है। दिलचस्प बात यह है कि हरियाणा विधानसभा चुनाव में वही तबका कामयाब भी हुआ है। सवाल यह है कि क्या राहुल गांधी खुद के साथ अपनी कार्यशैली बदलने को तैयार हैं?

महाराष्ट्र और हरियाणा के विधानसभा चुनाव परिणाम दोनों ही प्रमुख राष्ट्रीय पार्टियों को कळ्छ संदेश दे रहे हैं। हरियाणा में भूपेंद्र सिंह हुड्डा पर भरोसा जताने के लिए सोनिया बधाई की पात्र हैं। वहीं भाजपा ने मनोहर लाल खट्टर को फिर से भुनाने के प्रयास की कीमत चुकाई। भूपेंद्र सिंह हुड्डा मंझे हुए सियासतदां हैं, लेकिन राहुल गांधी ने उन्हें दरकिनार कर दिया था। मनोहर लाल खट्टर का तो भाजपा की 2014 की जीत में भी कोई खास योगदान नहीं था। उन्हें मुख्यमंत्री पद प्रदान किए जाने के बाद विधानसभा चुनाव के पहले सफल मुख्यमंत्री के रूप में प्रस्तुत किया गया, लेकिन चुनाव परिणामों ने दिखा दिया कि खट्टर जनता का दिल जीतने में असफल रहे।

विधानसभा चुनाव अमूमन स्थानीय मुद्दों पर लड़े जाते हैं, लेकिन भाजपा ने जानबूझकर इन चुनाव में राष्ट्रीयता, अनुच्छेद 370 और पाकिस्तान को कड़ा जवाब देने जैसे तमाम मुद्दों का सहारा लिया। फिर भी ये मुद्दे काम कर सकते थे, यदि स्थानीय समस्याएं गहराती नहीं। इसकी अनदेखी नहीं की जा सकती कि विदर्भ (महाराष्ट्र) में किसानों की बदहाली, मानेसर (हरियाणा) में ऑटोमोबाइल सेक्टर की समस्याएं, रोजगार के घटते अवसर और दोनों राज्यों के प्रभुत्वशाली वर्गों यानी जाटों और मराठों की अनदेखी वास्तविक समस्याएं थीं। भाजपा को अब यह देखना होगा कि इन समस्याओं का समाधान कैसे हो?

विपक्ष के समाप्त हो जाने और एक पार्टी का शासन जैसी बातों के बीच हरियाणा के चुनाव परिणाम विपक्ष में आशा का संचार करने वाले हैं। हरियाणा में कौन सरकार बनाता है, इससे अलग वहां की जीत विपक्ष के निर्जीव शरीर में जान डालने का काम करने वाली है। सोनिया और राहुल गांधी निश्चित ही इस पर चिंतन-मनन कर सकते हैं कि उन्होंने हरियाणा में हुड्डा परिवार पर पहले भरोसा क्यों नहीं किया, जिन्होंने भाजपा की जीत का रास्ता रोक दिया। अब कांग्रेस को कैप्टन अमरिंदर सिंह, कमलनाथ, अशोक गहलोत और भूपेंद्र सिंह हुड्डा जैसे स्थानीय दिग्गजों को ज्यादा महत्व देना चाहिए।

यह याद रखा जाना चाहिए कि 2004 और 2009 की कांग्रेसनीत संप्रग सरकार बनवाने और उसे दोबारा सत्ता में लाने में संयुक्त आंध्र प्रदेश प्रांत के वाईएस राजशेखर रेड्डी का बड़ा हाथ था। अगर कांग्रेस वहां जगन मोहन रेड्डी और चंद्रशेखर राव को पार्टी में बनाए रखने में सफल होती तो आज पार्टी दोनों तेुलुगु भाषी राज्यों आंध्र प्रदेश और तेलंगाना में कहीं ज्यादा मजबूत होती और वहां उसकी ही सरकार होती। कांग्रेस की कार्यकारी अध्यक्ष सोनिया गांधी ने महाराष्ट्र में नौ चुनावी सभाओं को संबोधित किया, लेकिन इसका कोई फायदा नहीं हुआ। हरियाणा के महेंद्रगढ़ में उनकी रैली हो नहीं हो पाई और पार्टी के पूर्व अध्यक्ष सीताराम केसरी के बाद यह पहली बार हुआ कि पूरे प्रचार अभियान के दौरान कांग्रेस अध्यक्ष ने चुनाव प्रचार से ऐसी दूरी बनाए रखी।

चुनाव नतीजे बता रहे हैं कि मुंबई में पुरानी और ऐतिहासिक पार्टी कांग्रेस को लगातार समर्थन देने वाले आधार की जमीन खिसक गई है। लगता है कि वहां दलित, ईसाई, मुसलमान, उत्तरी एवं दक्षिण भारतीय मतदाताओं के बीच सिर्फ मुसलमानों तथा ईसाइयों के छोटे से गुट ने कांग्रेस को वोट दिए। इन परिस्थितियों की पूरी तरह अनदेखी करते हुए मुंबई में मिलिंद देवड़ा और संजय निरुपम बराबर सिर फुटौव्वल करते रहे। समझा जा सकता है कि अगर कांग्रेस मुंबई में ही थोड़ा ठीकठाक प्रदर्शन करती तो महाराष्ट्र में उसकी स्थिति कुछ और बेहतर हो सकती थी। निश्चित ही इस वक्त कांग्रेस को नए नेतृत्व की अत्यंत आवश्यकता है। इसके अलावा पार्टी में ऊपर से नीचे तक सांगठनिक पुनर्गठन और जिम्मेदारियां देने के साथ जवाबदेही तय करने की भी जरूरत है। कांग्रेस के साथ भाजपा को भी यह समझने की जरूरत है कि राष्ट्रीय मसलों के सहारे राज्यों के चुनाव नहीं जीते जा सकते। महाराष्ट्र और हरियाणा के चुनाव नतीजे यह साफ-साफ कह रहे हैं कि मोदी सरकार के प्रति सकारात्मक रवैया रखने वाले मतदाता भी भाजपा की राज्य सरकारों के प्रति अपनी नाखुशी जाहिर करने में पीछे नहीं रहने वाले।

महाराष्ट्र और हरियाणा में विधानसभा चुनावों के कुछ राज्यों में विधानसभाओं के उपचुनाव भी उल्लेखनीय है। कुछ नतीजे तो बहुत दिलचस्प हैं और वे राजनीति को प्रभावित करने वाले भी हैं। मध्य प्रदेश के झाबुआ विधानसभा क्षेत्र में हुआ उपचुनाव इसका उदाहरण है। वहां से कांग्रेस उम्मीदवार कांतिलाल भूरिया की जीत के मायने कमलनाथ सरकार की मजबूती है। कांग्रेस को अब राज्य में अपने बलबूते पूर्ण बहुमत भी मिल गया है। दूसरी ओर कांग्रेस की आंतरिक राजनीति में इस जीत के दूसरे मायने हैं। कमलनाथ और दिग्विजय सिंह गुट द्वारा अब भूरिया को प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष के रूप में पेश किया जाएगा जिससे ज्योतिरादित्य सिंधिया की अध्यक्ष पद की दावेदारी की काट की जा सके। याद रहे कि मध्य प्रदेश की राजनीति में प्रभावशाली सिंधिया खेमा अध्यक्ष पद के लिए दावेदारी पेश करता रहता है। भूरिया की जीत के बाद उन्हें भी इस पद के दावेदार के तौर पर प्रस्तुत किया जा सकता है जो प्रदेश के आदिवासी समाज का प्रतिनिधित्व करते हैं।

(लेखक ऑब्जर्वर रिसर्च फाउंडेशन में फेलो एवं वरिष्ठ स्तंभकार हैं)

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