संजय मिश्र। यह सत्य है कि सरकारें विधायकों के बहुमत से बनती हैं और चलती हैं, लेकिन सत्ता की लड़ाई में ऐसी भी सरकारें बन जाती हैं जिनके पास बहुमत होता तो है, मगर उसके प्रदर्शन की ताकत नहीं रहती। ऐसी सरकारें बहुमत का ढिंढोरा पीटती हैं, लेकिन असल में वे खतरे के पायदान पर खड़ी रहती हैं। मध्य प्रदेश की कमलनाथ सरकार की स्थिति भी कुछ ऐसी ही है। सरकार बहुमत से बनी है और जैसे-तैसे चल भी रही है, पर उसकी स्थिरता का भरोसा किसी को नहीं है। सरकार के प्रबंधकों को भी यह भरोसा शायद ही हो कि सरकार पांच साल के लिए स्थिर है। पिछले एक सप्ताह के घटनाक्रम ने साफ कर दिया है कि कमलनाथ सरकार का भविष्य अनिश्चित है। उसे अपनी सुरक्षा के लिए भारी कीमत चुकानी पड़ सकती है। सरकार रहेगी या जाएगी, यह राज्यसभा चुनाव में ही तय हो जाएगा।

वास्तव में कांग्रेस की यह सरकार गंभीर खतरे में है। यह खतरा अंदर और बाहर दोनों तरफ से है। लोकतंत्र में लगभग सभी राजनीतिक दलों का लक्ष्य सरकार बनाकर सत्ता प्राप्त करना होता है। वे इसके लिए हर जतन करने को तैयार रहते हैं, लेकिन जोड़-तोड़ वाले दौर में सरकार बनाना और उसे पांच साल तक चलाना दो अलग-अलग विषय हैं। कांग्रेस ने मध्य प्रदेश की सत्ता में 15 साल का वनवास खत्म करने के लिए जिस जोड़-तोड़ से सरकार बनाई वही अब उसे भारी पड़ने लगा है। प्रदेश की राजनीति अस्थिरता की चपेट में आ गई है। सरकार बचाने-बनाने के खेल में विधायकों को तोड़ने-जोड़ने की जो कोशिशें हो रही हैं, उसमें सिर्फ राजनीतिक दल ही शामिल नहीं रह गए हैं, बल्कि प्रकारांतर से सत्ता प्रतिष्ठान भी शामिल हो गया है।

यही कारण है कि विकास और सरकार के सामान्य कामकाज पर राजनीतिक धड़ेबंदी का असर पड़ा है। बजट बनाने में जुटी सरकार सिर्फ अधिकारियों के सहारे रह गई है। सरकार पर संकट के बादल ने नौकरशाही को भी प्रभावित किया है। याद करें वह दिन जब लगभग सवा साल पहले विधानसभा चुनाव में कांग्रेस बड़े दल के रूप में उभरी थी। उसे सरकार बनाने में इसका लाभ मिला था। दूसरे नंबर पर रही भारतीय जनता पार्टी ने भी सरकार में बने रहने के लिए दम लगाया था, पर नैतिक बल में वह कांग्रेस से कमजोर पड़ गई। यही वजह है कि जोड़-तोड़ में कांग्रेस ने भाजपा को मात दे दी थी। प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष कमलनाथ बड़े सियासी प्रबंधक बनकर उभरे।

चाहे विधानसभा अध्यक्ष का चुनाव हो या फिर उपाध्यक्ष का, कमलनाथ ने अपना हुनर दिखाया। भाजपा की ओर से जब भी सत्ता को आंखें दिखाई गईं, उन्होंने पूरी ताकत से जवाब दिया। गो वंश वध प्रतिषेध विधेयक को पास कराने के दौरान दो भाजपा विधायकों का समर्थन हासिल करके उन्होंने अपने प्रबंध कौशल का लोहा भी मनवाया, लेकिन इस बार संकट कुछ अलग ढंग का है। खुद कांग्रेस में नेता से लेकर कार्यकर्ता तक में धड़ेबंदी साफ-साफ दिखाई भी दे रही है। पूर्व मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह के अनुज लक्ष्मण सिंह हों, मंत्री का सुख भोगने वाले कंप्यूटर बाबा या फिर कई अन्य विधायक, वे अपना-अपना राग अलाप रहे हैं। ज्योतिरादित्य सिंधिया क्या सोच रहे और क्या करने वाले हैं, इसका भी अंदाजा किसी को नहीं है। नेताओं की यह रार पार्टी और सरकार को असहज कर रही है।

ऐसे में राज्यसभा चुनाव कांग्रेस सरकार के लिए मुसीबत बनकर आया है। 114 विधायकों वाली कांग्रेस सरकार की सुवासरा से उसके ही विधायक हरदीप सिंह डंग ने इस्तीफा देकर मुसीबत बढ़ा दी है। आगर और जौरा विधानसभा क्षेत्र के उपचुनाव भी होने वाले हैं। राज्यसभा सीट के लिए क्षत्रपों की लड़ाई से पार पाना कठिन हो गया है। इससे सरकार का संकट आने वाले दिनों में और बढ़ेगा। दरअसल, भाजपा की रणनीति कर्नाटक से सबक लेते हुए कांग्रेस को उसी के तौर-तरीकों से घेरने की है। यद्यपि कांग्रेस के पास विधानसभा अध्यक्ष की एक शक्ति है, लेकिन विरोध का स्वर निकालने वाले उसके कुछ विधायक दृढ़ होकर खड़े हो जाते हैं तो उन्हें रोकना मुश्किल होगा। माना जा रहा है कि विधायक यदि झुकेंगे भी तो अपनी शर्तो पर। मुख्यमंत्री कमलनाथ अनुभवी हैं और लंबे समय से जनता से चुनकर आते रहे हैं, लेकिन कांग्रेस का केंद्रीय नेतृत्व प्रदेश में क्षत्रपों में एकजुटता बनाए रखने में नाकामयाब रहा है।

कांग्रेस का संकट विधायकों और बड़े नेताओं की वह महत्वाकांक्षा भी है, जो राज्य में 15 साल के वनवास के बाद सत्ता मिलने पर पैदा हुई है। कई विधायक तो खुलेआम कह रहे हैं कि कभी भी उनकी मांगों को सत्ता और संगठन ने गंभीरता से नहीं लिया। मंत्रियों का आचरण भी इस स्थिति के लिए कम जिम्मेदार नहीं है। कार्यकर्ता से दूरी और विधायकों की सुध न लेने से भी सरकार की किरकिरी हो चुकी है। ऐसा भी नहीं है कि जोड़-तोड़ के इस खेल में भाजपा को खामियाजा नहीं भुगतना पड़ेगा। पार्टी दो बार पटखनी खा चुकी है। यही वजह है कि इस बार भाजपा नेतृत्व फूंक-फूंककर कदम बढ़ा रहा है। यह भी सच है कि सत्ता की लड़ाई में कांग्रेस को जैसे समझौते करने पड़े, भाजपा को भी उससे अधिक समझौते करने पड़ेंगे। इसलिए आगे सरकार मजबूत ही बनेगी या रहेगी कहना मुश्किल है।

(लेखक नईदुनिया, भोपाल के स्थानीय संपादक हैं)

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