[ जगमोहन सिंह राजपूत ]: जब स्कूलों में अध्यापक उचित अनुपात में न हों, अधिकांश में नियमित प्राचार्य न हों, समय पर पुस्तकें, वर्दी और स्वेटर वितरित न हो पाते हों तब देश की राजधानी दिल्ली के सरकारी स्कूलों में प्राथमिकता केआधार पर सीसीटीवी कैमरे लगाना बच्चों और अध्यापकों के भी मनोविज्ञान की अनदेखी का ही उदाहरण कहा जा सकता है। वैसे तो कोई भी सुरक्षा विशेषज्ञ इसे बखूबी समझा सकता है कि सुरक्षा के लिए स्कूलों में सीसीटीवी कैमरे लगाना कितना उपयोगी है, लेकिन समस्या यह है कि अपवाद छोड़कर शायद सत्ता में बैठे राजनेता यह जानना ही नहीं चाहते कि कक्षा के अंदर अध्यापकों और बच्चों पर लगातार निगरानी की तलवार लटकाने के दुष्परिणाम क्या हो सकते हैं?

दिल्ली के सरकारी स्कूलों में सीसीटीवी आने के बाद माता-पिता बच्चों को बाल सुलभ शरारतें करते भी देख सकेंगे। जब बच्चे घर लौटेंगे तो बहुत संभव है कि उनसे कहा जाए कि आगे से ऐसा न करें। शैतानियां करना अच्छी बात नहीं है। स्कूल में ध्यान से पढ़ें और आगे चलकर इंजीनियर, डॉक्टर बनकर अपना और परिवार का नाम रोशन करें। जाहिर है कि बच्चे माता-पिता की बातों को ध्यान से सुनेंगे, सहमेंगे और अगले दिन उनकी छोटी-छोटी शरारतों में आनंद ढूंढ़ लेने की प्रवृत्ति कुछ कुंठित अवश्य हो जाएगी। इन शरारतों में उनके विचारों की जो उड़ान और संकल्पना शक्तिप्रकट होती है उस पर एक प्रकार का नियंत्रण लग जाएगा।

मुश्किल यह है कि राजनेता हर तरफ राजनीति ही देखते हैं। शायद उन्हें यह देखने की फुर्सत नहीं कि शिक्षा जगत में वे देश ही अग्रणी हैं जो अपनें स्कूलों के संसाधनों की आवश्यकताओं को प्राथमिकता के आधार पर पूर्ण करते हैं। वे अपने अध्यापकों पर भरोसा करते हैं। उनका सम्मान करते हैं और उन्हें वीआइपी मानते हैं। यदि कोई राज्य सरकार अध्यापकों की हर क्षण निगरानी करने को ही शिक्षा सुधार का रास्ता मानती है तो इसे एक विडंबना ही कहा जाएगा। स्कूल में कक्षा के अंदर जो शाश्वत स्वायत्तता अध्यापक को उपलब्ध है उसका मखौल उड़ाकर कुछ भी सकारात्मक प्राप्त नहीं किया जा सकता है। यह एक सामान्य सिद्धांत है जिससे हर पढ़ा-लिखा और शिक्षा में रुचि लेनेवाला परिचित है।

वर्तमान में शिक्षा व्यवस्था में बच्चों के संपूर्ण व्यक्तित्व विकास की संभावना लगातार कम होती जा रही है। सारा ध्यान केवल अधिक से अधिक अंकों पर है। बच्चों के भविष्य का रास्ता माता-पिता की चिंताओं और उनकी अपेक्षाओं से निर्धारित होता है। दिल्ली में सरकारी स्कूलों में सुधार को लेकर राज्य सरकार बड़े बड़े विज्ञापन देकर लोगों का ध्यान आकर्षित करनें में सफल रही है।

सरकारी स्कूलों में थोड़े से सुधार की भी लोग प्रशंसा करते हैं और सारे देश का ध्यान उधर जाता है, क्योंकि देश की बहुत बड़ी आवश्यकता यह है कि सरकारी स्कूल सुधरें। उनके सुधर जाने पर निजी स्कूलों, जिन्हें बिना किसी कारण पब्लिक स्कूल कहा जाता है, की मनमानी समाप्त नहीं तो कम अवश्य होगी। यही नहीं यदि सरकारी स्कूल सही ढंग से चलनें लगें तो वे लोग शिक्षा में निवेश नहीं करेंगे जिनकी सोच केवल मुनाफा कमाने तक ही सीमित होती है। दिल्ली सरकार ने अपने अध्यापकों और मंत्रियों को विदेश भेजा। इस क्रम में फिनलैंड की चर्चा खूब चली, लेकिन सभी जानते हैैं कि भारत फिनलैंड नहीं है।

यह सुनने में अच्छा लगता है कि सीसीटीवी कैमरे लगाने से शिक्षा में माता-पिता की भागीदारी बढ़ जाएगी। वे अपने बच्चे की प्रगति से लगातार परिचित होते रहेंगे और आवश्यकता होने पर स्कूल या अध्यापक से संपर्क कर सकेंगे। उन्हें यह भी भरोसा होगा कि अब अध्यापक किसी बच्चे से किसी प्रकार का बदसलूकी नहीं कर सकेंगे, लेकिन यह बच्चे और और उसके गुरु जी की निगरानी का अत्यंत आधुनिक एवं अहिंसक तरीका होगा! सरकारी आंकड़े सदा उत्साहजनक ही आते हैं, मगर वे यह नहीं दर्शाएंगे कि इससे छात्र और अध्यापक के बीच की सहजता और पारस्परिकता समाप्त हो जाएगी, जो कि संवेदनहीनता बढ़ाएगी।

चार दशकों से अधिक के अध्यापन काल में कक्षा में कोई और भी निगरानी कर रहा है, ऐसा कोई अनुभव नहीं हुआ। आखिर वह अध्यापक सहज भाव से कैसे पढ़ा सकता है जिसके सर पर मंत्री जी सब कुछ देख रहें हैं की तलवार सदा लटकी रहे? अध्यापक और अध्यापन, दोनों के लिए यह स्थिति अस्वीकार्य ही मानी जाएगी। यह स्थिति छात्रों और अध्यापकों की सर्जनात्मकता और नया कुछ करने की नैसर्गिक प्रवृत्तियों को भी धुंधली करेगी। किसी भी संस्था की कार्य-संस्कृति बदलने का सबसे कारगर तरीक केवल एक ही है और वह यह है कि संस्था का नेतृत्व सही व्यक्ति के पास हो एवं उसे स्वायत्तता हो।

एनसीईआरटी के निदेशक पद का कार्यभार संभालने के बाद परंरागत विभागाध्यक्षों के साथ होने वाली बैठक के स्थान पर मेरी पहली बैठक सफाई कर्मचारियों के साथ की गई। वे दशकों से वहां की कुर्सियों की सफाई तो करते रहे मगर उन पर कभी बैठे नहीं थे। उस दिन भी बैठनें में हिचक रहे थे। उन्हें बैठाकर कहा गया कि यदि अध्यापक/प्राध्यापक चार-पांच दिन न आएं तो भी संस्था चलेगी, मगर आपके कार्य में कोई कमी होगी तो विद्यालय का कार्य दूसरे-तीसरे दिन ठप हो जाएगा। उनसे यह भी कहा गया कि संस्था में देश भर से लोग और अभिभावक भी आते हैैं। यदि यहां का परिसर और वातावरण थोड़ा सा भी साफ नहीं होगा तो वे लोग क्या सोचेंगे?

जब उनकी समस्याएं पूछी गईं और सुझाव मांगे गए तो उनकी पहली मांग थी कि सफाई का सामान समय पर मिले। दूसरी मांग यह थी कि हमारे तबके में कुछ लोग ऐसे हैं जो पढ़ लिख नहीं पाते हैं। उनकी पढ़ाई-लिखाई का प्रबंध हो जाए तो अच्छा। उन्होंने ऐसी कोई मांग नहीं रखी जो सामान्य रूप से कर्मचारी अपने प्रबंधक से अक्सर करते रहते हैं। शिक्षा का दायित्व होता है मनुष्य-निर्माण। स्कूलों को थानों में बदलने से नकारात्मकता की ही उपलब्धि होगी, सहयोग घटेगा और अध्यापक-स्कूल- छात्र की पारिस्परिकता यांत्रिक हो जाएगी जो संवेदनशीलता के क्षरण को बढ़ावा देगी। स्कूलों में सीसीटीवी लगाने की नहीं, अध्यापकों पर भरोसा करने की जरूरत है। इस जरूरत की पूर्ति केवल दिल्ली सरकार को ही नहीं, हर राज्य की सरकार को करनी होगी। स्कूलों को स्कूल ही बना रहना चाहिए ताकि वहां मनुष्यता का पाठ सुचारू रूप से पढ़ाया जा सके।

[ लेखक एनसीईआरटी के निदेशक रहे हैैं ]