प्रवीण गुगनानी। आचार्य चाणक्य का कथन है कि ‘शत्रु के साथ युद्ध केवल रणक्षेत्र में और हथियारों से ही नहीं लड़ा जाता, युद्ध अपने व शत्रु देश के मानस में उसकी मानसिकता को हथियार बनाकर भी लड़ा जाता है।’ युद्धकाल में देश का नेतृत्व, विपक्ष व नागरिकों की सकारात्मक भूमिका ही प्राथमिक तत्व है। प्रशंसा की बात है कि युद्ध व शांति काल की भारतीय मानसिकता को चीन के समाचार पत्र ‘द ग्लोबल टाइम्स’ ने समझा और लिखा कि भारत में अभिजात्य वर्ग के कुछ लोगों की गलत धारणा है कि अमेरिका ने अपनी भारत-प्रशांत रणनीति के जरिये भारत का परचम लहराया है।

यह पत्र आगे लिखता है कि 2017 में जब डोकलाम क्षेत्र में भारतीय सेना ने चीन की क्षेत्रीय संप्रभुता को चुनौती दी, तब भारत के इसी वर्ग ने इसकी प्रशंसा की। चीन के प्रति भारतीय एलीट की मानसिकता खतरनाक है। निश्चित तौर पर यदि भारत के बुद्धिजीवियों व मध्यम वर्ग की चीन के प्रति नकारात्मक धारणा है तो वह इतिहास सिद्ध व तथ्य आधारित है। निश्चित ही भारत का आम (वामपंथी नहीं) अभिजात्य वर्ग या सुधिजन, श्रेष्ठजन ही संकटकाल में भारत का सच्चा साथ देता है और सकारात्मक परिवेश का निर्माण करता है। दुर्भाग्य का विषय है कि इस चीनी समाचार पत्र द्वारा भारत के इस वर्ग को दिए गए श्रेय को राहुल गांधी सिरे से खारिज कर रहे हैं।

लगभग युद्धकाल जैसी परिस्थितियों में जब देश पूरा ध्यान दुश्मन पर टिकाए हुए है, हमारे वीर शहीद सैनिकों के अंतिम संस्कार हो रहे हैं, देश का नागरिक अपनी दलगत निष्ठाओं को परे रखकर देश की सरकार के साथ खड़ा है, तब राहुल गांधी अलग ही राग अलाप रहे हैं। वैसे प्रारंभ से ही कांग्रेस का चीन समस्या के प्रति किस प्रकार दब्बूपन व तदर्थवाद की नीति रही है, इसका हमारा बड़ा ही कटु अनुभव है। हमारे इस कटु अनुभव को ठप्पा लगाने के लिए वह समझौता पर्याप्त है जो 1954 में किया गया था। भारत चीन संघर्षो के संदर्भ में कांग्रेस सरकारों का रवैया संदिग्ध रहा है जिससे चीन के क्रूर कारनामों के प्रति भारत का जनमानस अपरिचित है और इस युद्ध से संबंधित कई दस्तावेज अब भी तालों में कैद हैं।

बहुत सी मांगों और असंतोष के बाद भारत सरकार ने 1969 में भारत चीन युद्ध पर एक श्वेत पत्र प्रकाशित किया और इसके बाद भी कई श्वेत पत्र जारी किए गए, किंतु इन सबमें सत्य का सदा अभाव ही रहा। महज शब्दों के खेल के रूप में प्रकाशित ये श्वेत पत्र और इनके बाद की परिस्थितियां आज भी इस देश के जनमानस को यह जवाब नहीं दे पाई हैं कि चीन ने हम पर हमला कर हमारी 14,000 वर्ग किमी भूमि को कैसे कब्जा लिया? 21 नवंबर 1962 को चीन स्वयं वापस चला गया था? चीन ने तब हम पर क्यों आक्रमण किया, क्यों चीन वापस चला गया, क्या बातें हुइर्ं, दस्तावेज क्या कहते हैं? ये सब आज भी रहस्य ही है।

चीन ने पिछले वर्षो के मनमोहन शासनकाल में कश्मीरी युवकों को भारतीय परिचय पत्रों पर नहीं, वरन अन्य दस्तावेजों के आधार पर वीजा देना आरंभ किया और भारत के भीतरी मामलों में सीधा अनुचित हस्तक्षेप किया था। उसे भी मनमोहन सरकार ने अनदेखा कर दिया था। ब्रह्मपुत्र पर बने बांध और पाकिस्तान के ग्वादर बंदरगाह के अधिग्रहण को भी हल्के में लिया गया था। आज जब चीनी सेना के भारतीय सीमा में प्रवेश पर भारतीय सेना ने दृढ़ प्रतिक्रिया दी है और इस उपक्रम में हमने 20 भारतीय जवानों के वीरगति के दुख को ङोलने के साथ ही 40 से अधिक चीनी सैनिकों को मार गिराने का गौरव भी हासिल किया है, तब निश्चित ही हमें राष्ट्रीय स्तर पर अधिक गंभीर होना होगा व इस अनुरूप दिखना भी होगा। उम्मीद है कि समूचा विपक्ष इस बात को समङोगा।

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