डॉ. सुशील कुमार सिंह। Crude Oil Price अंतरराष्ट्रीय तेल बाजार में कच्चे तेल का दाम चाहे आसमान पर हो या जमीन पर जनता को सस्ता तेल नहीं मिल पाता है। मौजूदा समय में यह लगभग 42 डॉलर प्रति बैरल चल रहा है और पेट्रोल व डीजल दोनों की कीमत लगभग 80 रुपये प्रति लीटर है। जून महीने में तेल की कीमतों में हुई यह वृद्धि रोजाना के हिसाब से बढ़ोतरी लिए हुए है।

वैसे इसे लॉकडाउन से पहले 14 मार्च से बढ़त के रूप में तब देखा जा सकता है, जब तीन रुपये प्रति लीटर एक्साइज ड्यूटी बढ़ा दी गई। पेट्रोल की तुलना में कहीं अधिक सस्ता डीजल दिल्ली में तो सात दशक के इतिहास में पहली बार आगे निकल गया है।

उल्लेखनीय है कि जून 2017 में डीजल और पेट्रोल की कीमतें तय करने का जिम्मा सरकार ने तेल कंपनियों को दे दिया। देखा जाए तो तेल कंपनियां किसी भी स्थिति में घाटे में नहीं रहती हैं और सरकार मुनाफा लेने से नहीं चूकती हैं, जिस कारण जनता को सस्ता तेल नहीं मिल पाता है। पड़ताल बताती है कि तेल की कीमतें विदेशी मुद्रा दरों और अंतरराष्ट्रीय बाजार में कच्चे तेल की कीमतों के आधार पर बदलती रहती हैं। इन्हीं मानकों के आधार पर तेल कंपनियां प्रतिदिन तेल के दाम तय करती हैं। इसमें रिफाइनरी, पेट्रोल पंप का कमीशन, केंद्र का एक्साइज ड्यूटी और राज्य सरकारों के वैट के साथ ही कस्टम और रोड व पर्यावरण सेस भी जुड़ा रहता है। कोरोना के समय में जब तेल अपने न्यूनतम स्तर पर पहुंचा तो सरकार ने पेट्रोल पर 10 रुपये और डीजल पर 13 रुपये एक्साइज ड्यूटी लगाकर इसके सस्ते होने वाले की गुंजाइश को खत्म कर दिया। जबकि मार्च में एक बार पहले ही यह महंगा हो चुका था।

गौरतलब है कि नरेंद्र मोदी शासनकाल में कच्चे तेल की कीमत 28 डॉलर प्रति बैरल तक भी गिर चुकी है और कोरोना काल में तो कुछ दिनों के लिए यह 18 डॉलर प्रति बैरल तक आ चुका था। तब देश को तेल की इतनी आवश्यकता नहीं थी, क्योंकि सभी लॉकडाउन में थे। लिहाजा खपत गिरने से न केवल ऑयल कंपनियों व उत्पादन करने वाले देशों को घाटा हुआ, बल्कि सरकार का खजाना भी कमजोर हुआ। मई में बढ़ाई गई एक्साइज ड्यूटी का अर्थ जाहिर है तेल से खजाने को मजबूती प्रदान करना है। सरकार को केवल अपने मुनाफे की चिंता है, लेकिन उसे यह भी सोचना चाहिए कि तेल की बेलगाम कीमत जनता पर महंगाई का बोझ लाद सकती है। चीन और अमेरिका के बाद भारत कच्चे तेल का सबसे बड़ा आयातक देश है। कोरोना काल में भारत में तेल की खपत में 30 से 35 फीसद की कमी आई। अपनी आवश्यकता का करीब 80 फीसद तक तेल भारत आयात करता है जो अधिकतम खाड़ी देशों से आता है। जिन देशों में तेल की खपत घटी, उनकी अर्थव्यवस्था इसके चलते भी चरमराने लगी और तेल उत्पादन ईकाइयों के लिए भी खतरा होने लगा।

भंडारण की क्षमता बढ़ाए भारत : खास यह भी है कि भारत के पास तेल भंडारण की बहुत अधिक क्षमता नहीं है जैसा कि अमेरिका और चीन के पास है। चीन ने एक तरफ दुनिया को कोरोना की मुश्किल में डाला और दूसरी तरफ सस्ते कच्चे तेल का भंडारण किया। भारत में रोजाना औसतन करीब 46 लाख बैरल तेल की खपत होती है। अगर तेल सस्ता भी हो जाए तो उसे रखने की जगह नहीं है। भारत ने हाल ही में पांच मिलियन टन का स्ट्रैटेजिक रिजर्व बनाया है, जबकि यह इससे कम से कम चार गुना होना चाहिए। चीन के पास तो 90 मिलियन टन स्ट्रैटेजिक रिजर्व की क्षमता है, जिसकी तुलना में तो भारत 14 गुना पीछे है।

कच्चे तेल का दाम घटते ही चीन ने अपना रिजर्व मजबूत कर लिया। ऐसे में उसके यहां दो साल तक तेल के दाम नहीं बढ़ सकते और भारत की स्थिति यह है कि लॉकडाउन में तेल जमा नहीं कर पाया और अनलॉक में कीमत बढ़ने से रोक नहीं पा रहा है। वैसे भी चौतरफा अर्थव्यवस्था की मार ङोल रही सरकार तेल से कमाई का कोई अवसर छोड़ना नहीं चाहती है। तेल के दाम कुछ भी रहे हों भारत में तेल पर लगने वाले टैक्स हमेशा ऊपर ही रहे हैं। जाहिर है तेल से होने वाली कमाई भारत को राजकोषीय घाटा कम करने में मदद करती है, मगर सरकार को भी सोचना होगा कि अर्थव्यवस्था में गिरावट की मार केवल उन्हीं पर नहीं पड़ी है, बल्कि देश की 130 करोड़ जनता पर भी पड़ी है।

यूपीए शासन में तेल का हाल : ऐसे में मनमोहन सिंह की याद आना स्वाभाविक है। मई 2014 में नरेंद्र मोदी का केंद्र की सत्ता में आने से पहले 109 डॉलर प्रति बैरल कच्चा तेल था, तब पेट्रोल की कीमत 71 से 72 रुपये प्रति लीटर के बीच हुआ करता थी। इतना ही नहीं, मनमोहन सिंह के कार्यकाल में ही कच्चे तेल की कीमत 145 डॉलर प्रति बैरल तक रही है, मगर कीमत 80 रुपये लीटर के पार नहीं गई, जबकि मोदी सरकार में 42 डॉलर प्रति बैरल में ही पेट्रोल के साथ डीजल को भी 80 के पार करा दिया।

अमेरिका, ब्रिटेन, जर्मनी, फ्रांस सहित कई देशों की तुलना में भारत में तेल पर सबसे ज्यादा टैक्स है। भारत के बाद ज्यादा टैक्स जर्मनी में है, जबकि अमेरिका में तो भारत से तीन गुना कम टैक्स है। समझने वाली बात यह भी है कि तेल की कीमत के चलते बाजार में बिकने वाली तमाम वस्तुएं आसमान छूने लगती हैं, परिवहन सुविधाएं बेकाबू होने लगती हैं और जीवन की भरपाई पेट कटौती में चली जाती है। ऐसे में सवाल है कि जनता से वोट लेकर भारी-भरकम सरकार चलाने वाले उसी की जेब काटने पर क्यों उतारू रहते हैं? जबकि उनका जिम्मा लोक कल्याण का है। मोदी सरकार के बारे में यह कहना लाजमी है कि पिछले छह वर्षो में सबसे ज्यादा एक्साइज ड्यूटी बढ़ाने वाली सरकार और एक बार में सबसे ज्यादा एक्साइज ड्यूटी लगाने वाली सरकार बन गई है जो सरकार और जनता दोनों की सेहत के लिए ठीक नहीं है।

[निदेशक, वाईएस रिसर्च फाउंडेशन ऑफ पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन]