डॉ. आशीष कुमार मैसी। प्रख्यात लेखिका सुश्री लैरी मे की रिपोर्ट ‘क्राइम अगेंस्ट हृयूमैनिटी 2019’ ने विश्व में उथल-पुथल मचा दी थी। तब से अल्पसंख्यक समुदाय के धार्मिक उत्पीड़न से संबंधित प्रकरणों को और अधिक गंभीरता से लिया जाने लगा। अमेरिका एवं यूरोप के कुछ देशों में हाल में नागरिकता संशोधन कानूनों में धार्मिक उत्पीड़न से ग्रसित अल्पसंख्यकों को नागरिकता देने के प्राविधानों में प्राथमिकता दिखने लगी है।

वर्ष 2000 से भारत के पड़ोसी राष्ट्रों में अल्पसंख्यक उत्पीड़न की शिकायतें हद पार कर रही थी। उसका प्रभाव भारत की आंतरिक व्यवस्था पर दिखा था। संयुक्त राष्ट्र की बीते 20 वर्षो की रिपोर्ट के अनुरूप भारत सरकार भी इस हलचल से प्रभावित हुई और मनमोहन सिंह ने इस मुद्दे को गंभीरता से उठाते हुए पड़ोसी देशों के धार्मिक रूप से उत्पीड़ित अल्पसंख्यकों को नागरिकता देने की पुरजोर वकालत की थी। मनमोहन सिंह के इस ज्वलंत सवाल की पृष्ठभूमि में पाकिस्तान और बांग्लादेश में बढ़ते इस्लामिक कट्टरवाद से उत्पन्न धार्मिक अल्पसंख्यकों के उत्पीड़न के शिकार लोगों की चिंता थी।

देश के संसदीय इतिहास में वोट बैंक से प्रभावित हमारा तत्कालीन राष्ट्रीय नेतृत्व कई बार मौका देखकर यू-टर्न मारते दिखा है। शाह बानो प्रकरण पर तत्कालीन सरकार का यू-टर्न खासा चर्चा का विषय रहा जिसके चलते भारत की राजनीतिक व विधिक व्यवस्था पर प्रश्नचिन्ह लगा? ऐसे दलीय नेतृत्व के चलते भारत में आधार, जीएसटी एवं राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर आया। फिर वोट बैंक से प्रभावित स्पष्ट नीति व नेतृत्व की दृढ़ इच्छाशक्ति के अभाव में सबसे लंबे समय तक शासन करने वाली पार्टी की सरकार सभी मूल प्रश्नों पर बैक गियर में नजर आई है। ऐसा नहीं है कि पाकिस्तान व बांग्लादेश में समझदार और संवेदनशील मुसलमान नहीं हैं। दुर्भाग्य यह है कि उनकी आवाज सुनी नहीं जाती है। धार्मिक कट्टरवाद के आगे पुलिस व प्रशासन भी फेल है।

भारत में विधि का शासन है। यहां हर समस्या का समाधान व उसका तरीका-सलीका विधि द्वारा निर्धारित है। लोकतंत्र में विपक्ष और विरोध आवश्यक है। भारत गणराज्य में लोकतांत्रिक मर्यादाओं की परिधि के अंदर ही विरोध को न्यायोचित माना जाता है जिसका अर्थ हिंसा, तोड़-फोड़, राष्ट्रीय संपत्ति को नुकसान पहुंचाना कदापि नहीं है। भारत के स्वतंत्रता आंदोलन में महात्मा गांधी के नेतृत्व में विरोध आंदोलन चला। इस गांधीवादी विरोध में न तो वैमनस्य था, न ही हिंसा के लिए कोई स्थान। इस तर्कसंगत एवं शांतिपूर्ण विरोध ने विदेशी सत्ता की नींव की चूलें हिला दी थी। इमरजेंसी काल का विरोध जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व में 1975 में उभरा और इस विरोध ने एक राष्ट्रीय स्वरूप धारण कर लिया। इस जनांदोलन ने भी लोकतांत्रिक तरीके से सत्ता परिवर्तन के संकल्प को साकार किया।

बीते वर्षो के दौरान गांधीवादी अन्ना हजारे के नेतृत्व में भी ‘भ्रष्टाचार हटाओ’ का एक राष्ट्रव्यापी आंदोलन चला। इस आंदोलन ने भी सत्ता परिवर्तन के संकल्प को साकार किया। ऐसे आंदोलनों में ठोस तथ्य थे, तर्क थे, कुतर्क के लिए कोई स्थान न था। भारत का संविधान एक गतिशील संविधान है जो देश, काल और परिस्थिति के अनुरूप अपने को ढालता व बदलता रहता है। भारत के संविधान के अनुच्छेद 368 में संविधान संशोधन की पूरी प्रक्रिया है। वर्ष 2016 में नरेंद्र मोदी सरकार ने इन संशोधन पर गहनता से विचार करने हेतु एक संयुक्त संसदीय समिति का गठन सांसद सत्यपाल सिंह की अध्यक्षता में किया गया। कुछ माह में ही भारत सरकार के मंत्री बनने के कारण 25 दिसंबर 2017 को इस समिति की अध्यक्षता मेरठ के सांसद राजेंद्र अग्रवाल को सौंपी गई। इस समिति में कांग्रेस के वर्तमान लोकसभा में नेता अधीर रंजन चौधरी, महिला कांग्रेस की राष्ट्रीय अध्यक्षा व असम से सांसद सुष्मिता देव, कम्युनिस्ट पार्टी के नेता मो. सलीम, बसपा के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष सतीशचंद्र मिश्र व सपा नेता जावेद अली खां इस समिति के प्रमुख चेहरे थे।

कुल मिलाकर संयुक्त संसदीय समिति में 30 सांसदों के अतिरिक्त भारत सरकार के गृह, न्याय और विदेश मंत्रलय के प्रतिनिधियों के अलावा भारत की आंतरिक सुरक्षा से जुड़े खुफिया तंत्र अनुसंधान और विश्लेषण विंग (रॉ), इंटेलिजेंस ब्यूरो (आइबी) सहित सभी प्रमुख एजेंसियों की उपस्थिति प्रमुखता से दर्ज की गई। इस समिति के पास 9,267 व्यक्तियों के ज्ञापन, 56 गैर सरकारी संगठनों की सूची उपलब्ध है, जिन्होंने समिति के समक्ष मौखिक साक्ष्य प्रस्तुत किए। जेपीसी का दस्तावेज 438 पृष्ठों का तैयार हुआ।

मजे की बात यह है कि जब जेपीसी में आपकी पार्टी की सशक्त उपस्थिति रही, तब क्या आपके सांसद बैठक में अनुपस्थित थे? या संसद में समय नष्ट कर रहे थे। बिल के दस्तावेज बनाने वाले आप कैसे अनुच्छेद 19 को नहीं देख पाए। यह तर्क भारत की सबसे बड़ी पंचायत के सदस्यों की गरिमा को धूमिल करने वाला कुतर्क लगता है। सत्य तो यह है कि सड़क पर विरोध और विद्रोह करने वाले नेता राफेल की जेपीसी जांच कराने की वकालत करते हुए इसे सर्वश्रेष्ठ पड़ताल कमेटी घोषित करने में थकते नहीं थे। अब वही नेता जेपीसी को धता बताकर धर्म के आधार पर भ्रम फैलाने में लगे हैं। संसद के दोनों सदनों ने सर्वदलीय समझदारी और संसदीय साझेदारी से बने इस बिल को साझा जिम्मेदारी के साथ पास करके राष्ट्रपति महोदय द्वारा इस पर अनुमति मुहर लगा दी गई। अब यह देश का कानून बन गया। इसके पश्चात कानून का कोई भी विरोध भारत की संसद की अवमानना नहीं तो क्या कहा जाएगा?

(लेखक राज्य अल्पसंख्यक आयोग, उत्तर प्रदेश सरकार के पूर्व अध्यक्ष हैं)

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