नई दिल्ली, संजय गुप्त। लोकसभा चुनाव के ठीक पहले कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ने बहन प्रियंका गांधी वाड्रा को राजनीति में सक्रिय करने का फैसला लेकर आम लोगों को ही नहीं, खुद कांग्रेसजनों को भी चौंकाया है। एक लंबे अरसे से कांग्रेसजनों को प्रियंका गांधी वाड्रा के राजनीति में सक्रिय होने का इंतजार अवश्य था, लेकिन हाल-फिलहाल इसके कोई संकेत नहीं दिख रहे थे कि वह लोकसभा चुनाव के पहले महासचिव बनकर राजनीति में सक्रिय हो सकती हैं। वैसे एक समय ऐसा भी था जब लोग प्रियंका को सोनिया गांधी का स्थान लेते देख रहे थे। ऐसा इसलिए था, क्योंकि राहुल गांधी अनमने ढंग से राजनीति कर रहे थे और कोई प्रभाव नहीं छोड़ पा रहे थे। इसके विपरीत चुनावों के दौरान अमेठी और रायबरेली जाकर प्रियंका वाड्रा अच्छी-खासी राजनीतिक हलचल पैदा कर रही थीं। वहां के आम लोग और खासकर कांग्रेसजन प्रियंका की राजनीतिक सूझबूझ से तो प्रभावित दिखते ही, वे उनमें इंदिरा गांधी की झलक भी देखते। इसके चलते अमेठी, रायबरेली के कांग्रेसजनों के साथ अन्य कांग्रेसी नेता भी समय-समय पर प्रियंका के राजनीति में सक्रिय रहने की जरूरत जताते।

2014 में जब कांग्रेस की लोकसभा चुनाव में अभूतपूर्व हार हुई तब कांग्रेस के कई बड़े नेताओं ने इसकी पुरजोर कोशिश की कि प्रियंका आगे आएं और कांग्रेस को नेतृत्व दें, लेकिन ऐसा नहीं हुआ। तब गांधी परिवार की ओर से यह कहा गया कि वह अभी अपना परिवार संभाल रही हैं और सही समय पर राजनीति में प्रवेश करेंगी। बीच-बीच में ऐसे भी संकेत आते रहे कि वह राजनीति में प्रवेश की इच्छुक ही नहीं हैं। चूंकि वह अमेठी और रायबरेली का दौरा करती रहीं इसलिए ऐसे भी कयास लगाए जाते रहे कि वह रायबरेली सीट से सोनिया गांधी की जगह चुनाव लड़ सकती हैं।

प्रियंका का कांग्रेस का महासचिव और पूर्वी उत्तर प्रदेश का प्रभारी बनना एक बड़ी राजनीतिक घटना अवश्य रही, लेकिन कुछ स्थानों को छोड़ दें तो कांग्रेसी कार्यकर्ताओं में वैसा जोश नहीं दिखा जैसा राहुल गांधी के उपाध्यक्ष और अध्यक्ष बनने के समय देखने को मिला था। इसका कारण चाहे जो हो, लेकिन राजनीति में उनके सक्रिय होने से कांग्रेस को पूर्वी उत्तर प्रदेश के साथ देश के अन्य हिस्सों में लाभ मिल सकता है। प्रियंका को महासचिव बनाए जाने पर जहां कांग्रेस के नेताओं ने उत्साह दिखाया वहीं भाजपा ने इसे परिवारवाद की संज्ञा तो दी ही, यह भी कहा कि इससे यह साबित हो गया कि राहुल गांधी फेल हो गए हैं। इस आकलन को कांग्रेस चाहे जैसे देखे, इसमें दोराय नहीं कि प्रियंका वाड्रा गांधी परिवार की सदस्य होने के नाते ही सीधे कांग्रेस की महासचिव बनने में सफल रहीं। वह कांग्रेस में नई जान फूंकने का काम भी कर सकती हैं, लेकिन इसके बारे में आज के दिन सुनिश्चित नहीं हुआ जा सकता। चूंकि अमेठी-रायबरेली के अलावा देश के अन्य हिस्सों के लोग अभी तक प्रियंका से मुखातिब नहीं हुए हैं और उनमें उन्हें लेकर एक उत्सुकता है इसलिए यह माना जा सकता है कि वह अन्यत्र जहां भी जाएंगी, लोग उन्हें देखने-सुनने आएंगे।

आम लोगों में गांधी परिवार के सदस्यों को देखने-सुनने की जो उत्कंठा है वह यही बताती है कि गांधी परिवार का करिश्मा फीका भले ही पड़ा हो, लेकिन वह खत्म नहीं हुआ। प्रियंका वाड्रा किसी परिचय की मोहताज नहीं, लेकिन वह खबरों से दूर रहती आई हैं। शायद ही उनका कोई साक्षात्कार किसी समाचार पत्र या टीवी चैनल में सामने आया हो।

यह समय ही बताएगा कि आम लोगों में प्रियंका को लेकर जो आकर्षण है उससे कांग्रेस को कितना राजनीतिक लाभ मिलेगा? उन्हें देखने-सुनने के प्रति उत्सुकता का यह मतलब नहीं कि लोग उनके कहने पर कांग्रेस को वोट भी देंगे। ध्यान रहे कि 2017 के विधानसभा चुनावों में अमेठी और रायबरेली में उनकी तमाम सक्रियता के बाद भी कांग्रेस इन दोनों जिलों से मात्र दो सीटें ही जीत सकी थी। ऐसा नतीजा तब आया था जब कांग्रेस सपा के समर्थन से चुनाव लड़ रही थी। स्पष्ट है कि उनके राजनीतिक कौशल की परीक्षा होना अभी शेष है। यह परीक्षा इसलिए भी होगी, क्योंकि कांग्रेस के लिए गांधी परिवार का जितना मूल्य-महत्व है उतना अब आम जनता के लिए नहीं रह गया है। यह भी ध्यान रहे कि वह पीढ़ी खत्म हो गई है जो कांग्रेस के प्रति निष्ठावान रहती थी। इसी तरह एक तथ्य यह भी है कि बीते कुछ समय में कांग्रेस जहां सबसे कमजोर हुई है वह उत्तर प्रदेश ही है।

प्रियंका को आम चुनाव के ठीक पहले कांग्रेस महासचिव बनाने के फैसले को लेकर एक सवाल यह भी उभरा है कि कहीं यह फैसला इसलिए तो नहीं लिया गया ताकि कांग्रेस उत्तर प्रदेश में भाजपा के साथ सपा-बसपा को भी चुनौती देते दिखे? सपा और बसपा ने जब अपने तालमेल से कांग्रेस को दूर रखा था तो यही संदेश उभरा था कि उत्तर प्रदेश में उसकी मुश्किलें और बढ़ने वाली हैं। प्रियंका के राजनीति में सक्रिय होने और पूर्वी उत्तर प्रदेश का प्रभारी बनने से कांग्रेस एक मजबूत चेहरे से लैस नजर आने लगी है। हालांकि प्रियंका के साथ ही ज्योतिरादित्य सिंधिया को पश्चिमी उत्तर प्रदेश का प्रभारी बनाने की घोषणा की गई है, लेकिन शायद इस घोषणा का मकसद यह जाहिर करना है कि प्रियंका योगी आदित्यनाथ और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के गढ़ में भाजपा को चुनौती देने का इरादा रखती हैं। चूंकि पश्चिमी उत्तर प्रदेश ज्योतिरादित्य सिंधिया की सक्रियता का केंद्र नहीं रहा इसलिए उन्हें यहां अपना असर छोड़ने के लिए प्रियंका के सहयोग की जरूरत पड़ सकती है।

जो भी हो, प्रियंका को महासचिव बनाकर राहुल गांधी ने एक तरह से यह भी जाहिर किया कि वह अपने बलबूते कांग्रेस की वापसी करा पाने में खुद को समर्थ नहीं पा रहे हैं। यह कहना कठिन है कि वह खुद को प्रधानमंत्री मोदी के कद का नेता जाहिर करने से बचना चाहते हैं या नहीं, लेकिन ऐसे तर्कों में ज्यादा दम नहीं दिखता कि प्रियंका के महासचिव के रूप में सक्रिय होने से कांग्रेस को ब्राह्मण वोटों का लाभ होगा। जातिवादी राजनीति के असर से इन्कार नहीं, लेकिन आज का मतदाता इतना भोला-भाला नहीं कि वह प्रियंका को ब्राह्मण मानने लगे। लोग इससे अच्छी तरह परिचित हैं कि प्रियंका के पति रॉबर्ट वाड्रा हैं और वह गैर-ब्राह्मण हैं। इस सबके बावजूद प्रियंका वाड्रा के राजनीति में सक्रिय होने से कांग्रेस मजबूत नजर आएगी।

यदि प्रियंका की सक्रियता से कांग्रेस मुकाबले में आती है तो उसके उम्मीदवार भाजपा के साथ ही सपा-बसपा के हिस्से के भी वोट हासिल कर सकते हैं। माना जा रहा है कि अगर कांग्रेस के उत्तर प्रदेश में त्रिकोणीय मुकाबले की स्थिति बनी तो भाजपा को इसका लाभ भी मिल सकता है। यह समय बताएगा कि ऐसा होगा या नहीं, लेकिन यह मानने के पर्याप्त कारण हैं कि प्रियंका के राजनीति में सक्रिय होने से सपा-बसपा के साथ भाजपा को भी अपनी रणनीति बदलनी पड़ सकती है।

(लेखक दैनिक जागरण के प्रधान संपादक हैं)