सफल एवं सार्थक जीवन के लिए कर्म जरूरी है, लेकिन उसके साथ विवेक भी जरूरी है। कर्म मनुष्य के स्वभाव में निहित है। गीता में कहा गया है कि हम कर्म करें, वह हमारा अधिकार है, किंतु फल की इच्छा न करें। हमारा शरीर दरवाजा है। उस खुले दरवाजे से सभी तरह के कर्मों को करने की प्रेरणा मिलती है। एक मनीषी ने लिखा है कि यह शरीर नौका है। यह डूबने भी लगता है और तैरने भी लगता है, क्योंकि हमारे कर्म सभी तरह के होने से यह स्थिति बनती है। इसीलिए बार-बार अच्छे कर्म करने की प्रेरणा दी जाती है, लेकिन ऐसा हो नहीं पाता है। हमें यह समझ लेना चाहिए कि जिस प्रकार एक डाल पर बैठा व्यक्ति उसी डाल को काटता है तो उसका नीचे गिर जाना अवश्यंभावी है, ठीक उसी प्रकार गलत काम करने वाला व्यक्ति अंततोगत्वा गलत फल पाता है। उदाहरण के लिए हम किसी पर क्रोध करते हैं तो उसका प्रत्यक्ष फल हमारी आंखों के सामने आ जाता है। हमारा शरीर, हमारा मन, हमारी बुद्धि, सब कुछ उत्तेजित हो उठता है जिससे हमारी शक्ति का अपव्यय होता है। साथ ही हम उस व्यक्ति को भी क्षुब्ध करते हैं जो हमारे क्रोध का भाजन होता है। हम कोई बुरा शब्द मुंह से निकालते हैं तो हमारी जबान गंदी हो जाती है। हम चोरी करते हैं तो हमारे भीतर बड़ी अशांति और बेचैनी होती है। इसके विपरीत जब हमारे हाथों से कोई अच्छा काम होता है तो तत्काल हमें बड़े ही आत्मिक संतोष और प्रसन्नता की अनुभूति होती है।
मनुष्य के हाथ में कर्तव्य करना है, लेकिन उसका फल नहीं है। वह अनेक कारणों तथा परिस्थितियों पर निर्भर करता है। सच्चाई यह भी है कि कर्म कराने वाला और कोई है। हम तो निमित्त मात्र हैं। हममें से अधिकांश व्यक्ति इस सत्य को भूल जाते हैं। एक और महत्वपूर्ण बात यह है कि यदि हम फल की आशा रखते हैं तो अनुकूल फल होने से हमें हर्ष होता है और प्रतिकूल फल होने से विषाद होता है। इससे राग और द्वेष पैदा होते हैं। इसीलिए कहा गया है कि कर्म करो, किंतु तटस्थ भाव से करो। हममें से अधिकतर लोग सत्कर्म करके उसका हिसाब रखते हैं। यह उचित नहीं है। इससे पुण्य क्षीण हो जाता है। बाइबिल में कहा गया है कि अपने दाहिने हाथ से तुम जो कुछ देते हो उसका बाएं हाथ को भी पता नहीं होना चाहिए। हमारे यहां भी कहावत है, ‘नेकी कर दरिया में डाल।’ इसका तात्पर्य यह है कि सत्कर्म करके भी उसे भूल जाना चाहिए। अन्यथा व्यक्ति अभिमान से बच नहीं सकेगा।
[ ललित गर्ग ]