[ ए. सूर्यप्रकाश ]: देश की शीर्ष अदालत नागरिकों से जुड़े मूल अधिकारों के संरक्षण को लेकर निरंतर रूप से अपनी प्रतिबद्धता दिखाती आई है। वहीं राज्य और उनकी पुलिस आतंक विरोधी कानूनों की आड़ में ऐसे फैसले लेने पर तुली हैं, जिनसे लोगों का जीवन जोखिम में पड़ रहा है। इस सिलसिले में यदि मुख्य न्यायाधीश एनवी रमना सहित कुछ न्यायाधीशों की हालिया टिप्पणियों पर गौर करें तो प्रतीत होता है कि राजनीतिक विरोधियों को आतंकित करने और आलोचकों को खामोश करने के लिए राज्य सरकारें राष्ट्रीय सुरक्षा कानून यानी रासुका और ऐसे अन्य कानूनों का और उपयोग नहीं कर पाएंगी। इतना ही नहीं कोरोना महामारी जैसी आपदा के बीच शीर्ष अदालत ने यह भी स्पष्ट कर दिया कि वह राज्य सरकारों के ऐसे फैसलों पर आंखें नहीं मूंदे रहेगी, जिनके जरिये सरकारें किसी वर्ग की धार्मिक या अन्य भावनाओं का तुष्टीकरण करने में लगी हों। तमाम हाई कोर्ट भी हाल में संकेत दे चुके हैं कि अगर सरकारों ने अपनी कार्यशैली न बदली तो अदालतें मूकदर्शक नहीं बनी रहेंगी। बीते दिनों मणिपुर में एक एक्टिविस्ट की रिहाई के निर्देश से लेकर उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड में कांवड़ यात्रा को लेकर सख्ती और बकरीद से पहले केरल सरकार को देर से ही सही, तगड़ी लताड़ लगाना अदालत के नए मिजाज और तेवरों को दर्शाता है।

रासुका के तहत गिरफ्तार मणिपुर के एक्टिविस्ट लिचोबाम की तत्काल रिहाई के आदेश

इस कड़ी में सुप्रीम कोर्ट ने मणिपुर के एक एक्टिविस्ट इरेंद्रो लिचोबाम की तत्काल रिहाई के आदेश दिए। लिचोबाम को मणिपुर सरकार ने रासुका के तहत गिरफ्तार किया था। दरअसल उन्होंने कोविड-19 से हुई मणिपुर के भाजपा अध्यक्ष की मौत को गाय के गोबर और गोमूत्र से जोड़कर फेसबुक पर एक टिप्पणी लिखी थी। लिचोबाम ने लिखा था कि कोरोना का उपचार गोबर या गोमूत्र में नहीं, बल्कि विवेक और विज्ञान में निहित है। इस पोस्ट के बाद वह गिरफ्तार कर लिए गए और करीब दो महीने जेल में रहे। मीडिया में आई खबरों के अनुसार जब यह मामला सुप्रीम कोर्ट के समक्ष आया तो जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़ और एमआर शाह की पीठ ने लिचोबाम की तुरंत रिहाई के आदेश में कहा कि हम ऐसे व्यक्ति को एक दिन के लिए भी जेल में नहीं रख सकते। पीठ ने राज्य सरकार को निर्देश दिया कि वह फैसले के दिन ही पांच बजे से पहले बंदी की रिहाई के आदेश का पालन सुनिश्चित करे। नि:संदेह लिचोबाम की पोस्ट में गरिमा का अभाव था, क्योंकि यह कोरोना के शिकार हुए एक मृतक के विषय में थी, लेकिन क्या यह राष्ट्रीय सुरक्षा कानून के उल्लंघन में गिनी जा सकती थी।

कांवड़ यात्रा पर स्वत: संज्ञान लेकर सुप्रीम कोर्ट ने सरकार से पुनर्विचार करने को कहा

इसके बाद कांवड़ यात्रा का मुद्दा आया, जिस पर अदालत ने स्वत: संज्ञान लिया। कांवड़ यात्रा में श्रद्धालु अमूमन हरिद्वार से गंगाजल लेकर सैकड़ों किलोमीटर लंबी यात्रा कर अपने गंतव्य तक जाते हैं और वहां शिव मंदिर में गंगाजल से अभिषेक के साथ यह यात्रा संपन्न होती है। गत वर्ष कोरोना के कारण यात्रा प्रतिबंधित हो गई थी। हालांकि इस बार उत्तराखंड और उत्तर प्रदेश ने यात्रा की अनुमति के शुरुआती संकेत दिए। बहरहाल प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने दो-टूक कह दिया कि सार्वजनिक स्वास्थ्य को लेकर कोई समझौता नहीं किया जा सकता। इसके बाद उत्तराखंड सरकार ने यात्रा रद कर दी। फिर भी उत्तर प्रदेश सरकार इसे लेकर हीलाहवाली ही करती दिखी। आखिरकार सुप्रीम कोर्ट को दखल देना पड़ा। जस्टिस आरएफ नरीमन और बीआर गवई ने इस मसले को उठाकर उत्तर प्रदेश सरकार से पुनर्विचार के लिए कहा। इस पर पीठ ने यही कहा कि भारत के नागरिकों का स्वास्थ्य और अनुच्छेद 21 में उल्लिखित जीवन का अधिकार सर्वोपरि है। न्यायाधीशों ने कहा कि जीवन का अधिकार सबसे बुनियादी मूल अधिकार है और अन्य सभी भावनाएं इसके समक्ष गौण हैं। उन्होंने कहा कि महामारी ने सभी को प्रभावित किया और अनुच्छेद 21 ही सभी को संरक्षा प्रदान करता है। अदालत ने राज्य सरकार को निर्णय पर पुनर्विचार के लिए समय दिया।

यूपी सरकार ने कांवड़ यात्रा रद करने का किया एलान

राज्य सरकार भी तुरंत लाइन पर आ गई और उसने यात्रा रद करने का एलान किया। इस बीच अदालत के समक्ष एक और मसला आ गया। यह केरल से जुड़ा था, जहां राज्य सरकार ने बकरीद से पहले बंदिशों में कुछ छूट दी थी ताकि लोग त्योहार पर खरीदारी कर सकें। अदालत ने महामारी के दौर में रियायतें देने को लेकर दबाव के आगे झुकी सूबे की सरकार को आड़े हाथों लिया। साथ ही चेताया भी कि इन रियायतों के कारण राज्य में महामारी का प्रसार हुआ तो संबंधित निर्णय लेने वालों के खिलाफ अदालत कार्रवाई करेगी।

आपराधिक कानूनों का नागरिकों द्वारा की गई आलोचना को दबाने में उपयोग नहीं किया जाना चाहिए

कुछ दिन पहले अमेरिकन बार एसोसिएशन द्वारा आयोजित एक कार्यक्रम में जस्टिस चंद्रचूड़ ने नागरिकों के मूल अधिकारों की रक्षा में सुप्रीम कोर्ट की भूमिका और दायित्व पर प्रकाश डाला। उन्होंने कहा कि आतंक विरोधी कानूनों सहित आपराधिक कानूनों का नागरिकों द्वारा की गई आलोचना को दबाने या उनके उत्पीड़न में उपयोग नहीं किया जाना चाहिए। उन्होंने कहा कि जहां कार्यकारी और विधायी कदमों से नागरिकों के मूल मानवाधिकारों का उल्लंघन हो वहां संविधान के संरक्षक के रूप में सुप्रीम कोर्ट को आगे आना होगा।

सीजेआई ने कहा- कानूनों की न्यायिक समीक्षा न्यायपालिका के मुख्य कार्यों में से एक

कुछ हफ्ते पहले एक अन्य कार्यक्रम में मुख्य न्यायाधीश एनवी रमना ने भी इस संदर्भ में कहा कि विद्वानों के अनुसार कोई कानून तब तक कानून के रूप में वर्गीकृत नहीं किया जा सकता जब तक कि वह न्याय और समानता के सिद्धांतों से आबद्ध न हो। ‘सशक्त स्वतंत्र न्यायपालिका’ के महत्व पर जोर देते हुए जस्टिस रमना ने कहा कि न्यायपालिका को ही यह जिम्मेदारी मिली है कि वह यह सुनिश्चित करे कि जो कानून प्रवर्तित किए जा रहे हैं क्या वे संविधान के अनुरूप हैं या नहीं। ऐसे में कानूनों की न्यायिक समीक्षा न्यायपालिका के मुख्य कार्यों में से एक है।

चीफ जस्टिस रमना ने कहा- संविधानवाद के संरक्षण का दायित्व केवल अदालतों के ही जिम्मे है

रमना ने आगे यह भी कहा, ‘न्यायपालिका के महत्व से हमें उस तथ्य को अनदेखा नहीं करना चाहिए कि संविधानवाद के संरक्षण का दायित्व केवल अदालतों के ही जिम्मे है। राज्य व्यवस्था के तीनों अंगों कार्यपालिका, विधायिका और न्यायपालिका तीनों संवैधानिक भरोसे के बराबर भागीदार हैं।’ ऐसे आदेशों और टिप्पणियों से शीर्ष अदालत का मंतव्य एकदम स्पष्ट है। वह यही कि जो भी उच्चतर न्यायपालिका के नए मिजाज को भांपने में नाकाम रहेगा, उसे देर-सबेर उसकी तपिश तो झेलनी ही पड़ेगी।

( लेखक लोकतांत्रिक विषयों के विशेषज्ञ और वरिष्ठ स्तंभकार हैं )