अभिषेक मिश्रा। पिछले दिनों दिल्ली में मुख्यमंत्रियों और मुख्य न्यायाधीशों के 39 वें सम्मेलन में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और देश के मुख्य न्यायाधीश एनवी रमणा भी शामिल हुए। इससे पहले इस तरह का सम्मेलन अप्रैल, 2016 को आयोजित हुआ था। लंबे अंतराल के बाद आयोजित इस सम्मलेन में कई प्रमुख मुद्दों पर चर्चा हुई, जिनमें से एक महत्वपूर्ण मुद्दा था भारत की स्वतंत्रता के सौ वर्ष पूरे होने के समय संघीय कार्यपालिका और उच्चतर न्यायपालिका के बीच रिश्तों का आकलन। विधायिका और कार्यपालिका के बीच संबंधों के बारे यह मान्यता है कि कार्यपालिका संसद द्वारा पारित किसी कानून के विरुद्ध कोई कदम नहीं उठा सकती। अनुच्छेद 256 यह व्यवस्था देता है।

न्यायाधीशों की नियुक्ति संघीय कार्यपालिका या कहें कि राष्ट्रपति द्वारा ही होती है। संघीय कार्यपालिका संवैधानिक दायित्व निर्वहन से बंधी है और उसे उच्चतर न्यायपालिका के फैसले को मानना ही होगा। यहां यह उल्लेख करना आवश्यक है कि सुप्रीम कोर्ट देश का सर्वोच्च अपीलीय न्यायालय होने के साथ ही एक संवैधानिक अदालत भी है। अमूमन संवैधानिक लोकतांत्रिक देशों में सर्वोच्च संघीय अपीलीय अदालत और संवैधानिक न्यायालय अलग-अलग होते हैं। अपीलीय अदालतें विधायिका द्वारा पारित कानून को न तो खारिज कर सकती हैं और न उसे निष्प्रभावी बना सकती हैं। वहीं संवैधानिक अदालत ऐसा कर सकती है। इसीलिए उसे 'संविधान की रक्षा' भी कहा जाता है। यहां अनुच्छेद 50 का उल्लेख भी आवश्यक है, जो लोक सेवाओं में न्यायपालिका को कार्यपालिका से पृथक करने में राज्य की भूमिका को रेखांकित करता है।

भारत में यह प्रश्न बार-बार उठता है कि सुप्रीम कोर्ट में न्यायाधीशों की नियुक्तियां लोक सेवा के दायरे में आएंगी या नहीं? वास्तव में जजों की नियुक्ति का मसला ऐसा है, जिसने पिछले कुछ अर्से से टकराव की स्थिति पैदा कर दी है। अनुच्छेद-124 के तहत सुप्रीम कोर्ट में जजों की नियुक्ति होती है। इस अनुच्छेद का सरोकार मुख्य रूप से तीन संस्थानों से है। एक सुप्रीम कोर्ट, दूसरा सुप्रीम कोर्ट के जज और तीसरे भारत के मुख्य न्यायाधीश यानी सीजेआइ। साथ ही यह न्यायाधीशों की नियुक्ति की प्रक्रिया भी निर्धारित करता है। इसमें एक प्रक्रिया न्यायाधीशों के लिए है तो दूसरी मुख्य न्यायाधीश के लिए। मुख्य न्यायाधीश की नियुक्ति के मुद्दे पर कोई पेच नहीं, क्योंकि उसमें वरिष्ठता के क्रम का ही ध्यान रखा जाता है। टकराव अन्य न्यायाधीशों की नियुक्ति को लेकर होता है। यहां यह स्पष्ट करना आवश्यक है कि अनुच्छेद 124 का संबंध न्यायाधीशों की चयन प्रक्रिया से न होकर, उनकी नियुक्ति से है।

असल में नियुक्ति और चयन दो अलग-अलग पहलू हैं। सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीशों की नियुक्ति के मामले में राष्ट्रपति के लिए मुख्य न्यायाधीश से परामर्श आवश्यक है। राष्ट्रपति चाहें तो वह हाई कोर्ट के न्यायाधीशों से भी मंत्रणा कर सकते हैं। एसपी गुप्ता (1980) के मामले में सुप्रीम कोर्ट ने न्यायिक नियुक्तियों और स्थानांतरण से जुड़ी प्रक्रिया को परखा एवं उसकी पड़ताल की। वास्तव में यही वह मामला था जब पहली बार कालेजियम शब्द का उल्लेख किया गया। कालेजियम की संकल्पना असल में इस उद्देश्य से की गई थी कि कि मुख्य न्यायाधीश किसी प्रकार अपनी शक्तियों का दुरुपयोग न करें। हालांकि तब यह तय नहीं हो पाया कि कोलेजियम का ढांचा और प्रवृत्ति कैसी होगी? ऐसे में जनता को कभी यह पता ही नहीं चलता कि जजों की नियुक्ति या स्थानांतरण कैसे होता है और इस प्रक्रिया में किन नियमों एवं प्रविधानों का पालन किया जाता है? परिणामस्वरूप समूची प्रक्रिया कुछ लोगों के हाथ में सिमटकर गई है। सरकार ने इस प्रक्रिया में परिवर्तन के उद्देश्य से राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग यानी एनजेएसी बनाया, परंतु सुप्रीम कोर्ट ने उसके विरुद्ध वीटो कर उसकी राह रोक दी। न्यायपालिका की यह दलील थी कि एनजेएसी न्यायिक स्वतंत्रता में बाधक बन सकता है।

कृषि सुधार संबंधी तीन कानून और नागरिकता संशोधन कानून यानी सीएए के अनुभव यही बताते हैं कि लोकतंत्र वास्तव में एक दोधारी तलवार है। यह पारंपरिक संवैधानिकता के लिए एक बड़ी बाधा बन सकता है। हमने देखा कि कृषि कानूनों और सीएए को लागू करने में लोकतांत्रिक अधिकार किस प्रकार बाधक बने। हमें अभी तक यह नहीं पता चल पाया कि ये कानून संविधान-विरोधी अथवा गैर-कानूनी थे या फिर वे विरोध-प्रदर्शन, जिसने महीनों तक लोगों की आवाजाही रोके रखकर उनकी परेशानियां बढ़ाईं। सुप्रीम कोर्ट में रास्ते खाली कराने के लिए दायर की गई याचिकाओं को अनदेखा कर दिया गया। इसके बजाय उसने इन कानूनों की संवैधानिक वैधता की पड़ताल करने को प्राथमिकता दी। सीएए विरोधी प्रदर्शनकारियों के धरने से परेशान लोगों को राहत देने के बजाय उसने मध्यस्थ तय कर दिए।

निश्चित रूप से कुछ ऐसे मामले होते हैं, जहां सुप्रीम कोर्ट की भूमिका संवैधानिक अदालत की होती है। एक संवैधानिक अदालत के रूप में सुप्रीम कोर्ट मध्यस्थ या न्यायिक भूमिका नहीं निभा सकता, क्योंकि संवैधानिक अदालत कोई पारंपरिक अदालत नहीं, जो विवादों का निपटारा करे। उसे तो कानूनों की व्याख्या ही करनी होती है। वास्तविकता यह है कि कानूनों की संवैधानिक वैधता मध्यस्थता का मसला नहीं है। यदि ऐसा होता है तो वह असंवैधानिक होगा। आशा करें कि ऐसी स्थितियां उत्पन्न नहीं होंगी और सुप्रीम कोर्ट अपनी प्रतिष्ठा के अनुरूप पहल करके भारत की जनता को आश्वस्त करेगा, जिनकी इस संस्थान में गहन आस्था है। यह तभी संभव है जब वह शक्ति के पृथक्करण संबंधी अलिखित नियमों की लक्ष्मण रेखा का पालन करे। ऐसा इसलिए, क्योंकि अंतत: अदालतें ही तय करती हैं कि लक्ष्मण रेखा क्या है और कब उसका उल्लंघन किया गया?

(लेखक जर्मनी के हैंबर्ग विश्वविद्यालय में विधिशास्त्र के प्राध्यापक हैं)