[डॉ. विशेष गुप्ता]। यह राहतकारी है कि रेलवे ने कुछ चुनिंदा रेलवे स्टेशन पर आश्रय गृह बनाने की पहल की है। इन आश्रयगृहों में करीब 25 बच्चे रह सकेंगे और उनमें खाने-पीने से लेकर इलाज तक की सुविधा उपलब्ध होगी। इन बच्चों को उनके परिवार वालों से मिलवाने की कोशिश भी की जाएगी। रेलवे महिला कल्याण संगठन इस योजना का प्रभारी होगा और इस काम में वह बच्चों के लिए काम करने वाले गैर सरकारी संगठनों की मदद लेगा। इस पहल की जरूरत शायद इसलिए पड़ी, क्योंकि विभिन्न कारणों से घर छोड़ने या मानव तस्करी के शिकार करीब 35,000 बच्चों को पिछले चार साल में रेलवे स्टेशनों से मुक्त कराया गया।

इसमें संदेह है कि रेलवे की इस पहल से अनाथ, बेसहारा और नशे की गिरफ्त में आने वाले बच्चों के पुनर्वास के प्रति समाज अपनी जिम्मेदारी का निर्वाह करने को लेकर सक्रिय होगा। समाज इसकी अनदेखी नहीं कर सकता कि देश के महानगरों की सड़कों पर अनाथ और बेसहारा बच्चों की भरमार है। ये बच्चे भीख मांगते अथवा कचरा बीनते आसानी से दिखाई दे जाएंगे। इनमें केवल लड़कों के साथलड़कियां भी होती हैं। ये सभी गुमनामी के अंधेरे में अपना जीवन जीने को मजबूर हैं। क्या शासन-प्रशासन के साथ समाज को इनकी फिक्र नहीं होनी चाहिए?

बेसहारा बच्चों के लिए कई बार फुटपाथ अथवा फ्लाईओवर के नीचे की जगह उनका घर होती है। बासी या बचा हुआ खाना उनका भोजन होता है। आंकड़े बताते हैं कि देश में ऐसे बच्चों की संख्या 10 लाख से भी ऊपर है। अधिकांश इनमें वे बच्चे हैं जिन्होंने परिवार की टूटना अथवा मां-बाप की प्रताड़ना के कारण घर छोड़ दिया। बाकी गरीब अथवा अनाथ हैं जो या तो गरीबी के कारण बेसहारा होने को मजबूर हुए। इनका अपना परिवार न होने के कारण इनकी परवरिश भी दोषपूर्ण होती है। सामाजिक ज्ञान शून्य होने के कारण ये बच्चे अच्छे और बुरे के बीच अंतर नहीं कर पाते। शातिर अपराधी ऐसे ही बच्चों को अपनी शरण में लेकर पहले उन्हें नशेड़ी बनाते हैं, फिर उनसे नशीले पदार्थों की तस्करी या अन्य अपराध कराते हैं।

कई बार वे यौन शोषण का भी शिकार बनते हैं। नेशनल क्राइम रिकॉर्डस ब्यूरो के आकड़े बताते हैं कि देश में 67 फीसद से भी अधिक बाल अपराधी 16 से 18 आयु समूह में हैं। पिछले सालों के मुकाबले इस साल नाबालिग किशोर अपराधियों की संख्या में 28 फीसद का इजाफा हुआ है। एक शोध के अनुसार हर साल करीब सवा लाख से भी अधिक बच्चे भटक कर रेलवे स्टेशन पहुंचते हैं। आम तौर पर वे रेलवे विभाग की उदारता से वहां गुजर- बसर करते हैं, लेकिन यह भी देखने में आया है कि रेलवे प्लेटफॉर्म पर चल रही दुकानों पर गरीब परिवारों के बच्चों से बंधुआ मजदूरी कराई जाती है। बच्चों की मुश्किलों पर शोध कर रहे सोशल काउंसलर एम हार्पर की रेस्क्यूइंग रेलवे चिल्ड्रन-रियूनाइटिंग फैमिलीज फ्रॉम इंडियाज रेलवे प्लेटफॉम्र्स नामक पुस्तक बताती है कि घर से भाग जाने वाले बच्चों का मामला वैश्विक है।

एक तथ्य यह भी है कि बेसहारा बच्चे केवल रेलवे स्टेशनों पर ही ठौर नहीं तलाशते। देश की राजधानी दिल्ली में करीब 50 हजार बच्चे सड़कों पर रहकर गुजर-बसर करते हैं। इनमें करीब 20 फीसद लड़कियां हैं। अधिकतर कूड़ा-कचरा बीनकर अथवा भीख मांगकर गुजारा करते हैं। तमाम ऐसे भी हैं जो बालश्रम करने को मजबूर हैं। तकलीफदेह यह है कि इनमें से एक चौथाई नाबालिग यौन शोषण का शिकार पाए गए हैं। कभी-कभी कुछ सामाजिक संस्थाएं इन बच्चों को किताबें अथवा पुराने कपड़े वितरित कर अपनी इतिश्री कर लेते हैं। आज जरूरत इसकी है कि बेसहारा बच्चों को मुख्यधारा में लाने और उनका जीवन संवारने की कोई ठोस पहल हो। रेलवे ने एक अच्छी पहल की है, लेकिन उसे पर्याप्त नहीं कहा जा सकता, क्योंकि बेसहारा बच्चे रेलवे स्टेशन से इतर भी दिखते हैं। बेहतर हो कि बेसहारा बच्चों के लिए बाल संरक्षण गृहों का एक रचनात्मक ढांचा विकसित हो, जहां उनकी पढ़ाई-लिखाई की व्यवस्था हो।

मुजफ्फरपुर, देवरिया आदि के मामले यह बताते हैं कि समाज की सक्रिय भागीदारी बिना ऐसे संरक्षण गृह उद्देश्य से भटकने के साथ बेसहारा बच्चों के लिए समस्या बन सकते हैं। बेसहारा-बदनसीब बच्चों को समाज का सक्रिय और सम्मानित सदस्य बनाना केवल सरकार के भरोसे नहीं छोड़ा जा सकता।

(लेखक उप्र राज्य बाल अधिकार संरक्षण आयोग के अध्यक्ष हैं)