डॉ अजय खेमरिया। आधुनिक –राष्ट्र- की अवधारणा अपने भौगोलिक परिक्षेत्र और नागरिकों की सुरक्षा की प्रत्याभूति देती है। इसके लिए सामरिक सामर्थ्य हासिल करना प्रत्येक –राष्ट्र- की स्वाभाविक आवश्यकता है। शीतयुद्ध के खात्मे और नई अर्थ केंद्रित वैश्विक व्यवस्था के आकार लेने के साथ ही क्या दुनिया से सामरिक संघर्ष और शस्त्रों की होड़ कम नहीं होनी चाहिए थी?

वैश्विक अर्थव्यवस्था, विश्व ग्राम और वैश्विक आरोग्य एवं कल्याण के अंतरराष्ट्रीय संगठनों से भरी मौजूदा विश्व व्यवस्था की वास्तविक प्राथमिकताएं आखिर है क्या? पूंजीवाद और साम्यवाद के ध्रुवों के विलोपित हो जाने के बाद भी आज की दुनिया पूंजीवादी राष्ट्रों के नए सुगठित और सुनियोजित बाजारवाद के चंगुल में फंसी हुई नहीं हैं? बदलती वैश्विक व्यवस्था में समानांतर रूप से सैन्य व्यय कम होकर नागरिक कल्याण सर्वोपरि प्राथमिकताओं में नहीं आने चाहिए थे? लेकिन ऐसा हुआ नहीं है।

कोरोना महामारी ने पूरी दुनिया की प्राथमिकताओं को कटघरे में लाकर खड़ा कर दिया है। कोरोना से कराहती मानवता के भावी कल्याण का विकल्प आज समवेत रूप से हथियारों की होड़ को प्रबंधित करने का भी हो सकता है, क्योंकि ताजा अनुभव यह भी प्रमाणित करते हैं कि कोई भी देश अपनी पूंजी या प्रौद्योगिकी के बल पर अकेले कोरोना जैसी महामारियों से नहीं जीत पाएगा। इस मौजूदा महामारी से निबटने में नाकाम दुनिया की स्थिति जनआरोग्य के मामले में 100 साल पुरानी ही इबारत के पुनर्वाचन जैसी लगती है। तकनीक के उन्नत पक्ष ने इस स्थिति को और भी खतरनाक बना दिया है।

वर्ष 1918 में फैली वैश्विक इंफ्लुएंजा महामारी से करीब पांच करोड़ लोगों की मौत हुई थी। तब से दुनिया की आबादी लगभग चार गुना बढ़ चुकी है। यदि कोरोना काबू में नहीं आ सका तो विश्व स्वास्थ्य संगठन को आशंका है कि संक्रमितों का आंकड़ा पांच करोड़ तक जा सकता है। हार्वर्ड ग्लोबल इंस्टीट्यूट के निदेशक डॉ आशीष झा के अनुसार अकेले भारत मे अक्टूबर 2020 तक कोरोना से मरने वालों की संख्या डेढ लाख तक हो सकती है। डब्लूएचओ के 267 अलग अलग शोधकर्ताओं के अनुसार इंफेक्शन फेटेलिटी रेट यानी संक्रमण से होने वाली मौतें पूरी दुनियां में पांच करोड़ के नजदीक ही संभावित है। यानी 2020 की दुनिया उसी 1918 के दौर में खड़ी दिखती है।

प्रतिष्ठित चिकित्सा विज्ञान पत्रिका -द लांसेट- ने अमेरिका के जॉन हॉपकिंस विश्वविद्यालय द्वारा जारी -ग्लोबल हेल्थ सिक्योरिटी रिपोर्ट- में बताया गया है कि पूरी दुनिया में कोविड-19 जैसी महामारी से निबटने का कोई प्रामाणिक सिस्टम मौजूदा नहीं है। किसी भी देश के पास वैश्विक महामारियों एवं संक्रमण से अपने नागरिकों को बचाने के लिए कोई कारगर तंत्र उपलब्ध नहीं है।

अमेरिका, स्पेन, इटली जैसे मुल्कों में कोविड के कहर से जुटी नागरिकों की लाशें इस विमर्श को भी खड़ा करतीं है कि क्या वैश्विक स्वास्थ्य सुरक्षा को लेकर एक नई साझी और समावेशी नीति की ओर नहीं बढ़ना चाहिए? यह भी समझना होगा कि अमेरिका और रूस में, जहां कोरोना से सर्वाधिक मौतें हुई हैं, वे दुनिया के सबसे बड़े हथियार निर्माता और निर्यातक मुल्क हैं। इनके पास कुल 3,750 सक्रिय परमाणु बम में से 3,250 का जखीरा है। कोरोना से जूझते भारत के रक्षा मंत्री का हालिया रूस दौरा और वहां से एस-400की आपूर्ति सुनिश्चित करना यह दर्शाता है कि कोरोना और भविष्य में आने वाले ऐसे ही संक्रमण से बचाव की समावेशी रणनीति आज भी दुनिया की सर्वोपरि प्राथमिकता में नहीं है।

हकीकत यह है कि दुनिया में हथियारों का बाजार लोक स्वास्थ्य के काफी आगे इसलिए है, क्योंकि यह अमेरिका, रूस और यूरोप के एकाधिकार को बनाए हुए है। स्वीडन की स्वतंत्र संस्था –सीपरी- के अनुसार दुनिया में हथियारों का कारोबार 1,917 अरब डॉलर का है। इस अथाह कारोबार में 100 बड़ी कंपनियां हैं जिनमें 43 अमेरिका, 10 रूस और 27 यूरोपीय मुल्कों की हैं। अब इस कारोबार के दूसरे पक्ष को भी समझना चाहिए। भारत ने 27.86 लाख करोड़ के 2020-21 के बजट में से साढे तीन लाख करोड़ की राशि रक्षा मद के लिए रखी जबकि लोक स्वास्थ्य पर 2019 में हमारा कुल खर्च 65 हजार करोड़ ही था। यह जीडीपी का मात्र एक फीसद है और रक्षा पर यह आंकड़ा 2.2 फीसद है। इन आंकड़ों से स्पष्ट होता है कि दुनियाभर में हथियारों की होड़ केवल अपने नागरिकों की सीमाई मुल्कों से रक्षा के लिए नहीं है। असल में यह चंद धनी मुल्कों और कारोबारी घरानों के इशारों पर नाचती वैश्विक व्यवस्था का बदनुमा पक्ष भी है।

सवाल बुनियादी रूप से यही है कि विश्व मे नागरिकों की सुरक्षा हथियारों के बल पर की जाना अधिक जरूरी है या महामारियों से? क्या जिन मुल्कों ने हथियारों के बाजार सजाए हैं, वे इस संक्रमण से बच सके है? स्पष्ट है कि आर्थिक संपन्नता के बाबजूद कोई भी देश आज या भविष्य में कोविड जैसे खतरनाक संक्रमणों से अकेले लड़ाई नहीं लड़ सकता है। ऐसे में मानव जाति की रक्षा अमेरिकी या यूरोपियन ऑर्डिनेंस फैक्ट्रियां और उनके उत्पाद कर पाएंगे या वैश्विक स्वास्थ्य सेवाएं? तथ्य यह है कि आज वैश्विक प्राथमिकताओं को नए सिरे से निर्धारित किए जाने का सबसे उपयुक्त समय आ गया है। राष्ट्रीय हित और सामरिक सुरक्षा के महत्व को अस्वीकार नहीं किया जा सकता है, लेकिन कोविड-19 के त्रासदपूर्ण अनुभव के बाद वैश्विक प्राथमिकताओं में लोक स्वास्थ्य को सर्वोपरि रखने के लिए एक समावेशी पहल अमेरिका, रूस, फ्रांस, जर्मनी जैसे धनी मुल्कों को करनी होगी।

[लोक नीति मामलों के जानकार]